भारतीय न्यायपालिका की ओवरहॉलिंग आवश्यक

By: Mar 7th, 2018 12:08 am

भानु धमीजा

सीएमडी, ‘दिव्य हिमाचल’

लेखक, चर्चित किताब ‘व्हाई इंडिया नीड्ज दि प्रेजिडेंशियल सिस्टम’ के रचनाकार हैं

भारतीय न्यायपालिका ने अत्यधिक मामलों में न्याय न देकर, लटकाकर, या आधा-अधूरा काम कर अन्याय किया है। इसके प्रदर्शन के कुछ मापदंडों पर विचार करें। भारतीय अदालतों में दो करोड़ बीस लाख से अधिक केस लंबित हैं। जिनमें से 60 लाख पांच वर्ष से ज्यादा समय से लटके हैं। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय में भी जहां 1950 में 700 मामले लंबित थे आज 60 हजार से अधिक केस न्याय के इंतजार में हैं। न्यायालय भ्रष्टाचार के लिए भी बदनाम हैं। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के ताजा ‘वैश्विक भ्रष्टाचार बैरोमीटर’ के अनुसार, वर्ष 2016 में अदालत जाने वाले भारतीयों में से 45 प्रतिशत का कहना है कि उन्हें रिश्वत देनी पड़ी। भारत एशिया प्रशांत क्षेत्र में भ्रष्टाचार के दूसरे उच्चतम स्तर पर है…

भारतीय सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ न्यायाधीशों ने हाल ही में देश की न्यायपालिका की ईमानदारी के विषय में गंभीर चिंता जताई है। उन्होंने सबसे देश के सर्वोच्च न्यायालय पर बैंच-फिक्सिंग और सरकार के साथ मिलकर काम करने के आरोप लगाए हैं। इन आरोपों को मामूली भीतरी मसले के तौर पर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। स्वयं न्यायाधीशों ने उन्हें भारतीय लोकतंत्र के भविष्य के लिए इतना महत्त्वपूर्ण माना कि न्यायिक खामोशी की हमारी पुरानी परंपरा को तोड़ते हुए सब सार्वजनिक कर दिया।

हमारे न्यायाधीशों ने जो गंभीर मसले उठाए हैं वे गहन बीमारियों के सूचक हैं। भारतीय न्यायपालिका का लगभग हर पहलू — इसका अधिकार क्षेत्र, ढांचा, जज नियुक्त करने की पद्धति, पारदर्शिता, और जवाबदेही की व्यवस्था  — भारतीय जनता का भला करने में असफल रहा है।

न्याय में देरी, भ्रष्टाचार और पक्षपात

भारतीय न्यायपालिका ने अत्यधिक मामलों में न्याय न देकर, लटकाकर, या आधा-अधूरा काम कर अन्याय किया है। इसके प्रदर्शन के कुछ मापदंडों पर विचार करें। भारतीय अदालतों में दो करोड़ बीस लाख से अधिक केस लंबित हैं। जिनमें से 60 लाख पांच वर्ष से ज्यादा समय से लटके हैं। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय में भी जहां 1950 में 700 मामले लंबित थे आज 60 हजार से अधिक केस न्याय के इंतजार में हैं।

न्यायालय भ्रष्टाचार के लिए भी बदनाम हैं। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल के ताजा ‘वैश्विक भ्रष्टाचार बैरोमीटर’ के अनुसार, वर्ष 2016 में अदालत जाने वाले भारतीयों में से 45 प्रतिशत का कहना है कि उन्हें रिश्वत देनी पड़ी। भारत एशिया प्रशांत क्षेत्र में भ्रष्टाचार के दूसरे उच्चतम स्तर पर है।

वर्ष 2010 में एक पूर्व विधि मंत्री ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि उनकी जानकारी के अनुसार भारत के 16 में से आठ मुख्य न्यायाधीश ‘‘निश्चित रूप से भ्रष्ट’’ थे। चार न्यायाधीशों के निशाने पर आए वर्तमान चीफ जस्टिस भी दो ताजा मामलों के संबंध में शक के दायरे में हैं। कुछ विपक्षी दल तो उनके खिलाफ महाभियोग लाने पर भी विचार कर रहे हैं।

भारतीय कोर्ट विशिष्ट वर्ग, धनवानों, और बड़े संपर्क रखने वालों की ओर अधिक ध्यान देते हैं। वर्ष 2013 में सर्वोच्च न्यायालय के दो न्यायाधीशों ने तो स्पष्ट कहाः ‘‘हम सौगंध उठाकर यह कह सकते हैं कि कुल समय का मात्र पांच प्रतिशत उन आम लोगों के लिए प्रयोग किया जा रहा है जिनकी फरियादें 20 या 30 वर्षों से इंतजार कर रही हैं। यह कोर्ट बड़े अपराधियों के लिए एक सुरक्षित ठिकाना बन चुका है।’’

न्यायपालिका में यहां-वहां फेरबदल से अब काम नहीं चलेगा। हमें निम्न व्यापक सुधारों पर विचार करना चाहिए।

1. क्षेत्राधिकार पर नियंत्रण

वर्ष 1998 के विधि आयोग की एक रिपोर्ट का सार है कि भारत के सुप्रीम कोर्ट का अधिकार क्षेत्र दुनिया भर के सर्वोच्च न्यायालयों में सर्वाधिक क्षेत्राधिकारों में से एक है। इसने न केवल अदालतों का बोझ बढ़ाया है, बल्कि न्यायाधीशों को उन क्षेत्रों में घुसने की अनुमति दे दी जो हमारी कार्यकारी या विधायी शाखाओं की जिम्मेदारियां होनी चाहिएं। देश का सर्वोच्च संवैधानिक न्यायालय देश भर से आ रही सामान्य अपीलों में व्यस्त है जो अधिकतर उन क्षेत्रों में हैं जो न्यायालय से संबंधित ही नहीं हैं।

जनहित याचिकाएं न्यायक्षेत्र के फैलाव का ऐसा ही एक उदाहरण है। संवैधानिक विशेषज्ञ और पद्मभूषण पुरस्कार विजेता, डा. सुभाष कश्यप ने लिखा, ‘‘कुछ दशकों से न्यायपालिका अत्यंत आत्मलीनता की स्थिति में कही जा सकती है, जो अपनी छवि कानून के सृजक या शिल्पी के रूप में देख रही है। तथाकथित रचनात्मक न्यायशास्त्र के बहाने संविधान के सिद्धांत धीरे-धीरे नष्ट किए जा रहे हैं।’’

अधिकतर विधि विद्वानों ने न्यायपालिका द्वारा आत्मसंयम की मांग की है। न्यायालयों में बढ़ते मामलों से निपटने के लिए विशेष पीठें बनाने, सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को पुनर्नियुक्त करने, और बेहतर आंतरिक व्यवस्था लागू करने की सलाह भी कुछ देते हैं। विधि सेंटर ऑफ लीगल पॉलिसी के अनुसंधान निदेशक अर्घ्य सेनगुप्ता ने हाल ही में प्रस्तावित किया है कि संसद एक सुप्रीम कोर्ट एक्ट पास करे जिसके तहत न्यायालय को तीन खंडों — स्वीकृति, अपीलय और संवैधानिक — में पुनर्गठित किया जाए।

परंतु आवश्यकता क्षेत्राधिकार पर नियंत्रण की है, केवल काम के बोझ को बेहतर तरीकों से संचालित करने की नहीं। अदालतों की शक्तियों पर कुछ बाहरी प्रतिबंध अवश्य होने चाहिएं। जैसा सरकार की अन्य शाखाओं के साथ है। ये प्रतिबंध अमरीकी मॉडल के अनुरूप निम्न तीन तरीकों से उपलब्ध करवाए जा सकते हैं।

पहला, संसद को संघीय और राज्य न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र तय करने की शक्तियां दी जाएं। दूसरा, इसे अमरीका की अपीलीय अदालतों, संघीय जिला न्यायालयों, और ट्रिब्यूनल्स की तरह सुप्रीम कोर्ट से नीचे निचली अदालतें स्थापित करने का अधिकार हो। और तीसरा, संसद को यह अधिकार भी हो कि वह कोर्ट के अपीलीय अधिकार क्षेत्र को अपवाद बना सके या विनियमित कर पाए। ये प्रावधान न केवल न्यायपालिका पर नियंत्रण उपलब्ध करवाएंगे, अपितु ये निर्वाचित प्रतिनिधियों को अधिक न्यायिक सेवाओं के बारे उत्तरदायी भी बनाएंगे।

2. राज्य न्यायपालिकाएं

सुप्रीम कोर्ट में केंद्रीकृत एकात्मक न्यायपालिका भारत जैसे अत्यधिक विस्तृत देश के लिए उपयुक्त नहीं। देश भर में उच्च न्यायालय की क्षेत्रीय पीठें स्थापित करने के लिए अकसर प्रस्ताव लाए जाते हैं। वर्ष 2010 में जस्टिस वीआर कृष्णाय्यर

ने समूची व्यवस्था विकेंद्रीकृत करने के पक्ष में तर्क दिया था। उन्होंने लिखा, ‘‘अगर विधिक संस्थानों तक जनता की पहुंच को यथार्थ बनना है तो विकेंद्रीकृत सर्वोपरि अभीष्ट हैं।’’ उन्होंने कहा, ‘‘अभी तक न्यायिक सुधार इधर-उधर की कसरत ही रहे हैं, एक पूर्ण परियोजना नहीं। यह दुर्भाग्यपूर्ण है।’’

क्योंकि भारत एक संघ है, क्यों न राज्यों को उनकी अपनी न्यायपालिकाओं के लिए जवाबदेह बनाया जाए? पहले ही हर राज्य का अपना हाई कोर्ट है जो राज्य सरकार के साथ आज भी कई प्रयास समन्वित करता है। भारत पृथक संघीय और राज्य अदालतों की प्रणाली अपना सकता है। जहां संघीय न्यायालयों का क्षेत्राधिकार अंतर-राज्यीय, राष्ट्रीय, और अंतरराष्ट्रीय मसलों पर हो, जबकि राज्य के भीतर सभी मुद्दे राज्य अदालतों के अधिकार क्षेत्र में हों।

यह बेशक संघीय और राज्य सरकारों की शक्तियों को स्पष्ट करना आवश्यक बना देगा। शक्तियों को ओवरलैप करने वाली हमारे संविधान की ‘समवर्ती सूची’ को इसलिए खत्म कर देना चाहिए। यह केवल हर सरकार को दूसरी के क्षेत्रों में दखलअंदाजी करने और जिम्मेदारी से बचने का रास्ता बन गई है। आर. जगन्नाथन, स्वराज्य के संपादक ने हाल ही में समवर्ती सूची हटाने की मांग की है, क्योंकि यह ‘‘अनावश्यक अव्यवस्था पैदा करती है।’’

3. उत्तरदायित्व और पारदर्शिता

सरकार को न्यायपालिका पर नियंत्रण देने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। परंतु इसका यह मतलब यह नहीं कि शासन का एक महत्त्वपूर्ण अंग बिना नियंत्रणों के चले, या जनता के प्रति जवाबदेह न हो। उन चार न्यायाधीशों के खुलासे के मद्देनजर हमारे विद्वानों ने न्यायपालिका से अधिक पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग उठाई है। कुछ की मांग है कि संसद अरसे से लंबित ‘न्यायिक मानक और जवाबदेही’ विधेयक पारित करे। यह एक निगरानी समिति स्थापित करेगा और न्यायाधीशों की जांच करने में सक्षम होगा। अन्यों ने वरिष्ठ न्यायाधीशों से ‘‘गोपनीयता का पर्दा उतार फेंकने’’ की प्रार्थना की है।

उत्तरदायित्व का मुद्दा न्यायाधीश नियुक्त करने के तरीके से जुड़ा हुआ है। कोई भी लोकतांत्रिक संस्था इसके पदाधिकारियों के चयन में जनता को शामिल किए बिना उचित रूप से नहीं चल सकती। भारत दशकों से इसके लिए संघर्ष कर रहा है। जजों की नियुक्ति के सभी तरीके — राष्ट्रपति द्वारा, प्रधानमंत्री द्वारा, कॉलेजियम द्वारा, आदि — नतीजे देने में असफल रहे हैं। अब आवाजें उठ रही हैं कि सरकार एक प्रक्रिया मैमोरेंडम बनाए। परंतु यह भी कार्यपालिका को, जो कि सबसे बड़ी मुकदमेबाज है, न्यायाधीशों की नियुक्तियों, तबादलों, और पदोन्नतियों पर कुछ अधिकार दे देगा।

भारत को अमरीकी प्रणाली की तर्ज पर न्यायाधीश नियुक्त करने में विधायिका को हक देने पर विचार करना चाहिए। उस प्रणाली में कार्यपालिका (राष्ट्रपति) द्वारा प्रस्तावित सभी उम्मीदवारों जजों का अनुमोदन उनकी सेनेट द्वारा होता है। यह जजों की नियुक्ति में जनप्रतिनिधियों को भागीदार व जवाबदेह बना देता है। यह न्यायपालिका को जनता के बदलते नजरिए से भी जोड़ता है, जो किसी भी लोकतांत्रिक संस्था के लिए मुख्य आवश्यकता है।

हमारी राज्यसभा ऐसी निगरानी उपलब्ध करवाने को आदर्श रूप से अनुकूल है। बेशक, इसके अपने कुछ सुधारों की भी आवश्यकता है। राज्यसभा कार्यपालिका और कॉलेजियम द्वारा संयुक्त रूप से नामित न्यायाधीशों के अनुमोदक के तौर पर काम कर सकती है। यह नई अदालतों की स्थापना के लिए कानून पास कर सकती है। या ऊपर बताए अनुसार अधिकार क्षेत्र बदल सकती है। और, बतौर राज्य परिषद, यह राज्यों की न्यायपालिकाओं के कार्यों की जांच करने वाला सदन भी हो सकती है।

भारत की न्यायपालिका भी विश्वस्तरीय हो, ऐसा समय आ गया है। इसे पाने का एकमात्र रास्ता साहसिक और दूरदर्शी कदम हैं।

-भानु धमीजा अंगे्रजी में ‘दि क्विंट’ में प्रकाशित (31 जनवरी, 2018)

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