महादेवी वर्मा : रच डाला अनुभूतियों का छायावादी काव्य

By: Mar 25th, 2018 12:15 am

महादेवी वर्मा (जन्म : 26 मार्च, 1907, फर्रूखाबाद – मृत्यु : 11  सितंबर, 1987, प्रयाग) हिंदी भाषा की प्रख्यात कवयित्री हैं। महादेवी वर्मा की गिनती हिंदी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभ सुमित्रानंदन पंत, जयशंकर प्रसाद और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के साथ की जाती है। आधुनिक हिंदी कविता में महादेवी वर्मा एक महत्त्वपूर्ण शक्ति के रूप में उभरीं। महादेवी वर्मा ने खड़ी बोली हिंदी को कोमलता और मधुरता से संसिक्त कर सहज मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का द्वार खोला, विरह को दीपशिखा का गौरव दिया, व्यष्टिमूलक मानवतावादी काव्य के चिंतन को प्रतिष्ठापित किया। महादेवी वर्मा के गीतों का नाद-सौंदर्य, पैनी उक्तियों की व्यंजना शैली अन्यत्र दुर्लभ है।

जीवन परिचय

महादेवी वर्मा अपने परिवार में कई पीढि़यों के बाद उत्पन्न हुई। उनके परिवार में दो सौ सालों से कोई लड़की पैदा नहीं हुई थी, यदि होती तो उसे मार दिया जाता था। दुर्गा पूजा के कारण उनका जन्म हुआ। उनके दादा फारसी और उर्दू तथा पिताजी अंग्रेजी जानते थे। माताजी जबलपुर से हिंदी सीख कर आई थी, महादेवी वर्मा ने पंचतंत्र और संस्कृत का अध्ययन किया। महादेवी वर्मा जी को काव्य प्रतियोगिता में चांदी का कटोरा मिला था जिसे इन्होंने गांधीजी को दे दिया था। महादेवी वर्मा कवि सम्मेलन में भी जाने लगी थी, वो सत्याग्रह आंदोलन के दौरान कवि सम्मेलन में अपनी कविताएं सुनाती और उनको हमेशा प्रथम पुरस्कार मिला करता था। महादेवी वर्मा मराठी मिश्रित हिंदी बोलती थी।

जन्म

महादेवी वर्मा का जन्म होली के दिन 26 मार्च, 1907 को फर्रूखाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ था। महादेवी वर्मा के पिता श्री गोविंद प्रसाद वर्मा एक वकील थे और माता श्रीमती हेमरानी देवी थीं। महादेवी वर्मा के माता-पिता दोनों ही शिक्षा के अनन्य प्रेमी थे। महादेवी वर्मा को आधुनिक काल की मीराबाई कहा जाता है। महादेवी जी छायावाद के प्रमुख कवियों में से एक हैं। हिंदुस्तानी स्त्री की उदारता, करुणा, सात्विकता, आधुनिक बौद्धिकता, गंभीरता और सरलता महादेवी वर्मा के व्यक्तित्व में समाविष्ट थी। उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की विलक्षणता से अभिभूत रचनाकारों ने उन्हें साहित्य साम्राज्ञी, हिंदी के विशाल मंदिर की वीणापाणि, शारदा की प्रतिमा आदि विशेषणों से अभिहित करके उनकी असाधारणता को लक्षित किया। महादेवी जी ने एक निश्चित दायित्व के साथ भाषा, साहित्य, समाज, शिक्षा और संस्कृति को संस्कारित किया। कविता में रहस्यवाद, छायावाद की भूमि ग्रहण करने के बावजूद सामयिक समस्याओं के निवारण में महादेवी वर्मा ने सक्रिय भागीदारी निभाई।

शिक्षा

महादेवी वर्मा की प्रारंभिक शिक्षा इंदौर में हुई। महादेवी वर्मा ने बी.ए. जबलपुर से किया। महादेवी वर्मा अपने घर में सबसे बड़ी थी, उनके दो भाई और एक बहन थी। 1919 में इलाहाबाद में क्रॉस्थवेट कॉलेज से शिक्षा का प्रारंभ करते हुए महादेवी वर्मा ने 1932 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम.ए. की उपाधि प्राप्त की। तब तक उनके दो काव्य संकलन नीहार और रश्मि प्रकाशित होकर चर्चा में आ चुके थे। महादेवी जी में काव्य प्रतिभा सात वर्ष की उम्र में ही मुखर हो उठी थी। विद्यार्थी जीवन में ही उनकी कविताएं देश की प्रसिद्ध पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाने लगी थीं।

विवाह

उन दिनों के प्रचलन के अनुसार महादेवी वर्मा का विवाह छोटी उम्र में ही हो गया था, परंतु महादेवी जी को सांसारिकता से कोई लगाव नहीं था, अपितु वे तो बौद्ध धर्म से बहुत प्रभावित थीं और स्वयं भी एक बौद्ध भिक्षुणी बनना चाहती थीं। विवाह के बाद भी उन्होंने अपनी शिक्षा जारी रखी। महादेवी वर्मा की शादी 1914 में डॉ. स्वरूप नरेन वर्मा के साथ इंदौर में 9 साल की उम्र में हुई, वो अपने मा-पिताजी के साथ रहती थीं क्योंकि उनके पति लखनऊ में पढ़ रहे थे।

विरासत

शिक्षा और साहित्य प्रेम महादेवी जी को एक तरह से विरासत में मिला था। महादेवी जी में काव्य रचना के बीज बचपन से ही विद्यमान थे। छह-सात वर्ष की अवस्था में भगवान की पूजा करती हुई मां पर उनकी तुकबंदी

देखिए :

ठंडे पानी से नहलाती

ठंडा चंदन उन्हें लगाती

उनका भोग हमें दे जाती

तब भी कभी न बोले हैं

मां के ठाकुर जी भोले हैं।

वे हिंदी के भक्त कवियों की रचनाओं और भगवान बुद्ध के चरित्र से अत्यंत प्रभावित थीं। उनके गीतों में प्रवाहित करुणा के अनंत स्रोत को इसी कोण से समझा जा सकता है। वेदना और करुणा महादेवी वर्मा के गीतों की मुख्य प्रवृत्ति है। असीम दुःख के भाव में से ही महादेवी वर्मा के गीतों का उदय और अंत दोनों होता है।

महिला विद्यापीठ की स्थापना

महादेवी वर्मा ने अपने प्रयत्नों से इलाहाबाद में प्रयाग महिला विद्यापीठ की स्थापना की। इसकी वे प्रधानाचार्य एवं कुलपति भी रहीं। महादेवी वर्मा पाठशाला में हिंदी-अध्यापक से प्रभावित होकर ब्रजभाषा में समस्या पूर्ति भी करने लगीं। फिर तत्कालीन खड़ी बोली की कविता से प्रभावित होकर खड़ी बोली में रोला और हरिगीतिका छंदों में काव्य लिखना प्रारंभ किया। उसी समय मां से सुनी एक करुण कथा को लेकर सौ छंदों में एक खंडकाव्य भी लिख डाला। 1932 में उन्होंने महिलाओं की प्रमुख पत्रिका चांद का कार्यभार संभाला। प्रयाग में अध्यापन कार्य से जुड़ने के बाद हिंदी के प्रति गहरा अनुराग रखने के कारण महादेवी वर्मा दिनों-दिन साहित्यिक क्रियाकलापों से जुड़ती चली गईं। उन्होंने न केवल चांद का संपादन किया वरन् हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए प्रयाग में साहित्यकार संसद की स्थापना की। उन्होंने साहित्यकार मासिक का संपादन किया और रंगवाणी नाट्य संस्था की भी स्थापना की।

कृतियां

महादेवी जी कवयित्री होने के साथ-साथ एक विशिष्ट गद्यकार थीं। यामा में उनके प्रथम चार काव्य-संग्रहों की कविताओं का एक साथ संकलन हुआ है। ‘आधुनिक कवि-महादेवी’ में उनके समस्त काव्य से उन्हीं द्वारा चुनी हुई कविताएं संकलित हैं। कवि के अतिरिक्त वे गद्य लेखिका के रूप में भी पर्याप्त ख्याति अर्जित कर चुकी हैं। स्मृति की रेखाएं (1943 ई.) और अतीत के चलचित्र (1941 ई.) उनकी संस्मरणात्मक गद्य रचनाओं के संग्रह हैं। उनकी कृतियां इस प्रकार हैं :

काव्य

नीहार (1930), रश्मि (1932), नीरजा (1934), सांध्यगीत (1936), दीपशिखा (1942), यामा, सप्तपर्णा

गद्य

अतीत के चलचित्र, स्मृति की रेखाएं, पथ के साथी, मेरा परिवार

विविध संकलन

स्मारिका, स्मृति चित्र, संभाषण, संचयन, दृष्टिबोध

पुनर्मुद्रित संकलन

यामा (1940), दीपगीत (1983), नीलांबरा (1983), आत्मिका (1983)

निबंध

शृंखला की कडि़यां, विवेचनात्मक गद्य, साहित्यकार की आस्था तथा अन्य निबंध

ललित निबंध

क्षणदा

काव्य संग्रह

महादेवी वर्मा के 1934 में नीरजा, 1936 में सांध्यगीत नामक संग्रह प्रकाशित हुए। 1939 में इन चारों काव्य संग्रहों को उनकी कलाकृतियों के साथ वृहदाकार में यामा शीर्षक से प्रकाशित किया गया। महादेवी वर्मा ने गद्य, काव्य, शिक्षा और चित्रकला सभी क्षेत्रों में नए आयाम स्थापित किए। इसके अतिरिक्त उनके 18 काव्य और गद्य कृतियां हैं जिनमें मेरा परिवार, स्मृति की रेखाएं, पथ के साथी, शृंखला की कडि़यां और अतीत के चलचित्र प्रमुख हैं। महादेवी के काव्य में भाव समृद्धि तथा शैल्पिक सौंदर्य का आकर्षक समन्वय है।

अनुभूतियां

महादेवी वर्मा का काव्य अनुभूतियों का काव्य है। उसमें देश, समाज या युग का चित्रांकन नहीं है, बल्कि उसमें कवयित्री की निजी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति हुई है। उनकी अनुभूतियां प्रायः अज्ञात प्रिय के प्रति मौन समर्पण के रूप में है। उनका काव्य उनके जीवन काल में आने वाले विविध पड़ावों के समान है। उनमें प्रेम एक प्रमुख तत्त्व है जिस पर अलौकिकता का आवरण पड़ा हुआ है। इनमें प्रायः सहज मानवीय भावनाओं और आकर्षण के स्थूल संकेत नहीं दिए गए हैं, बल्कि प्रतीकों के द्वारा भावनाओं को व्यक्त किया गया है। कहीं-कहीं स्थूल संकेत दिए गए हैं। इनमें संयम और त्याग है तथा दूसरों का हित करने की प्रबल आकांक्षा है :

मैं नीर भरी दुःख की बदली !

विस्तृत नभ का कोई कोना,

मेरा कभी न अपना होना,

परिचय इतना इतिहास यही,

उमड़ी थी कल मिट आज चली।

महादेवी का काव्य वर्णनात्मक और इतिवृत्तात्मक नहीं है। आंतरिक सूक्ष्म अनुभूतियों की अभिव्यक्ति उन्होंने सहज भावोच्छवास के रूप में की है। इस कारण उसकी अभिव्यंजना-पद्धति में लाक्षणिकता और व्यंजकता का बाहुल्य है। रूपकात्मक बिंबों और प्रतीकों के सहारे उन्होंने जो मोहक चित्र उपस्थित किए हैं, वे उनकी सूक्ष्म दृष्टि और रंगमयी कल्पना की शक्तिमत्ता का परिचय देते हैं। ये चित्र उन्होंने अपने परिपार्श्व, विशेषकर प्राकृतिक परिवेश से लिए हैं पर प्रकृति को उन्होंने आलंबन रूप में बहुत कम ग्रहण किया। प्रकृति महादेवी वर्मा के काव्य में सदैव उद्दीपन, अलंकार, प्रतीक और संकेत के रूप में ही चित्रित हुई है। इसी कारण प्रकृति के अति परिचित और सर्वजनसुलभ दृश्यों या वस्तुओं को ही उन्होंने अपने काव्य का उपादान बनाया है। उसके असाधारण और अल्पपरिचित दृश्यों की ओर उनका ध्यान नहीं गया है। फिर भी सीमित प्राकृतिक उपादानों के द्वारा उन्होंने जो पूर्ण या आंशिक बिंब चित्रित किए हैं, उनसे उनकी चित्रविधायिनी कल्पना का पूरा परिचय मिल जाता है। इसी कल्पना के दर्शन महादेवी वर्मा के उन चित्रों में भी होते हैं, जो उन्होंने शब्दों से नहीं, रंगों और तूलिका के माध्यम से निर्मित किए हैं। उनके ये चित्र दीपशिखा और यामा में कविताओं में प्रकाशित हुए हैं।

सम्मान और पुरस्कार

सन् 1955 में महादेवी जी ने इलाहाबाद में साहित्यकार संसद की स्थापना की और पं. इला चंद्र जोशी के सहयोग से साहित्यकार का संपादन संभाला। यह इस संस्था का मुखपत्र था। स्वाधीनता प्राप्ति के बाद 1952 में वे उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्या मनोनीत की गईं। 1956 में भारत सरकार ने उनकी साहित्यिक सेवा के लिए पद्म भूषण की उपाधि और 1969 में विक्रम विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट. की उपाधि से अलंकृत किया। इससे पूर्व महादेवी वर्मा को नीरजा के लिए 1934 में सेकसरिया पुरस्कार, 1942 में स्मृति की रेखाओं के लिए द्विवेदी पदक प्राप्त हुए। 1943 में उन्हें मंगला प्रसाद पुरस्कार एवं उत्तर प्रदेश सरकार के भारत भारती पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यामा नामक काव्य संकलन के लिए उन्हें भारत का सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ।

निधन

महादेवी वर्मा का निधन 11 सितंबर, 1987 को प्रयाग में हुआ था। महादेवी वर्मा ने निरीह व्यक्तियों की सेवा करने का व्रत ले रखा था। वे बहुधा निकटवर्ती ग्रामीण अंचलों में जाकर ग्रामीण भाई-बहनों की सेवा सुश्रुषा तथा दवा निःशुल्क देने में निरत रहती थी। वास्तव में वे निज नाम के अनुरूप ममतामयी, महीयसी महादेवी थी। भारतीय संस्कृति तथा भारतीय जीवन दर्शन को आत्मसात किया था। उन्होंने भारतीय संस्कृति के संबंध में कभी समझौता नहीं किया। महादेवी वर्मा ने एक निर्भीक, स्वाभिमाननी भारतीय नारी का जीवन जिया। राष्ट्र भाषा हिंदी के संबंध में उनका कथन है -‘‘हिंदी भाषा के साथ हमारी अस्मिता जुड़ी हुई है। हमारे देश की संस्कृति और हमारी राष्ट्रीय एकता की हिंदी भाषा संवाहिका है।’’


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