मोदी के डर का डिनर

By: Mar 15th, 2018 12:05 am

भारतीय राजनीति में एक दौर था, जब इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थी। तब राजनीतिक संघर्ष ‘इंदिरा बनाम शेष दल’ होता था। आज युग-परिवर्तन के साथ-साथ राजनीति के समीकरण भी बदले हैं। आज भाजपा भारतीय राजनीति की केंद्रीय धुरी है और ‘प्रधानमंत्री मोदी बनाम शेष दल’ के समीकरण बन रहे हैं। यानी विपक्ष में जो भी महत्त्वपूर्ण दल और नेता हैं, वे प्रधानमंत्री मोदी को 2019 के चुनाव में ध्वस्त करना चाहते हैं। यह मोदी का डर, खौफ  है या मोदी की भाजपा को चुनाव में पराजित करने की वाकई राजनीतिक लामबंदी है? यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपने आवास 10, जनपथ में विपक्षी नेताओं को रात्रि-भोज पर आमंत्रित किया था। करीब 20 दलों के नेता आए। कांग्रेसियों की भी भीड़ थी। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी इस आयोजन में शामिल रहे। लेकिन पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री एवं तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी, बसपा अध्यक्ष मायावती, सपा अध्यक्ष एवं उप्र के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, तमिलनाडु में द्रमुक के कार्यकारी अध्यक्ष एम.स्टालिन आदि महत्त्वपूर्ण नेताओं ने डिनर में शामिल होना जरूरी नहीं समझा, लिहाजा आयोजन का 40 फीसदी महत्त्व तो तुरंत कम हो गया। बेशक इन दलों के जो अन्य नेता डिनर में ‘भरपाई’ करने को शामिल हुए, उनकी राजनीतिक औकात ‘शून्य’ है। फिर भी सीपीएम के सलीम, तृणमूल के सुदीप बंद्योपाध्याय, सपा के रामगोपाल यादव और कुछ छोटी पार्टियों के नेताओं की शिरकत गौरतलब रही। एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार का आना मायने रखता है। उन्होंने ही सोनिया गांधी के विदेशीपन के खिलाफ आंदोलन चलाते हुए अपनी अलग पार्टी बनाई थी, लेकिन वह मोदी-विरोधी भी हैं और 2019 में नई, वैकल्पिक सत्ता के पक्षधर हैं। इसी महीने के आखिर में वह भी विपक्षी एकजुटता के प्रयास के मद्देनजर बैठक और डिनर का आयोजन कर सकते हैं। बहरहाल पहला सवाल तो यही है कि जो नेता विपक्षी गठबंधन को आकार देने में अहम भूमिका निभा सकते हैं, वे इस रात्रिभोज से दूर क्यों रहे? दूसरा सवाल यह है कि तेलुगूदेशम पार्टी, शिवसेना, पीडीपी, तेलंगाना राष्ट्र समिति सरीखी पार्टियां, जो प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा से नाखुश हैं और एनडीए से अलग होने की प्रक्रिया में शामिल हो चुकी हैं, उनके नेता भी इस डिनर से गैर-हाजिर क्यों रहे? क्या सोनिया गांधी ने उन्हें आमंत्रित नहीं किया? या फिलहाल उन्होंने ही कांग्रेस से दूरी बना रखी है? शरद पवार डिनर में जरूर आए, लेकिन उनकी पार्टी एनसीपी के एक राज्यसभा सांसद टीवी चैनलों पर इंटरव्यू देते रहे कि ‘राहुल गांधी का नेतृत्व अभी परिपक्व नहीं है। बेशक उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष बना दिया गया है, लेकिन वह पार्टी के संगठन तक ही सीमित रहेंगे। सोनिया गांधी कांग्रेस संसदीय दल की नेता और यूपीए की अध्यक्ष हैं, लिहाजा विपक्ष को एकजुट करने का काम वही करेंगी।’ साफ है कि विपक्ष के महत्त्वपूर्ण नेता फिलहाल राहुल गांधी का नेतृत्व स्वीकार करने के मूड में नहीं हैं। ममता और मायावती तो इस संदर्भ में सरेआम बयान भी दे चुकी हैं, लेकिन कांग्रेसी प्रवक्ता दावा कर रहे हैं कि यदि कांग्रेस के नेतृत्व में अगली सरकार बनी, तो राहुल ही प्रधानमंत्री बनेंगे। सवाल यह भी है कि ममता, मायावती, अखिलेश, शरद पवार, स्टालिन सरीखे विपक्ष के नेताओं ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से राहुल गांधी को नेता मानने से इनकार ही किया है, तो पराजित, अपने-अपने क्षेत्रों में ध्वस्त, अंतर्विरोधी और नकारात्मक राजनीति के चेहरे रहे नेता क्या प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा को चुनौती दे सकेंगे? हम इस सवाल का विश्लेषण कर चुके हैं, जिसमें हमने इसे ‘सोनिया का सपना’ करार दिया था। बहरहाल यह तो पहला विपक्षी डिनर है। इसे प्रीति और मैत्री का रात्रिभोज कह सकते हैं। यदि कोई गठबंधन आकार लेता है, तो वह चुनावों से एक-दो माह पूर्व ही संभव होगा। अभी तो विपक्ष का ध्यान बंटा है। कुछ दल तीसरे मोर्चे के फार्मूले पर भी विचार कर रहे हैं। ममता बनर्जी ने तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव के विचार की सराहना की है। यदि विपक्ष कथित तीसरे मोर्चे और सोनिया विपक्षी गठबंधन में विभाजित होता है, तो प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा को ही लाभ होगा। इधर जनवरी के महीने में कुछ सर्वे सामने आए थे। उनमें औसतन 53 फीसदी लोगों ने इच्छा जताई थी कि मोदी एक और बार प्रधानमंत्री बनें, जबकि राहुल गांधी के पक्ष में करीब 22 फीसदी वोट थे। लेकिन इन्हीं सर्वे के आधार पर चुनाव नहीं हुआ करते। बेशक कई दल और नेता ऐसे हैं, जो प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा से खफा हैं। फिलहाल ज्यादातर एनडीए में ही हैं, लेकिन वे गठबंधन से बाहर जाते हैं, तो मोदी और भाजपा की ताकत निश्चित तौर पर कम होगी, लिहाजा प्रधानमंत्री अपने साथियों को समझाने की कोशिश करेंगे और दूसरी आंख विपक्षी गठबंधन की संभावनाओं पर रखेंगे।


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