मौन की अभिव्यक्ति : सकारात्मक भावानुभूतियों की सार्थक प्रस्तुति

By: Mar 11th, 2018 12:04 am

जाने-माने लेखक अजय पाराशर एक और काव्य संग्रह लेकर पाठकों के समक्ष हैं। उनके काव्य संग्रह ‘मौन की अभिव्यक्ति’ में उनके मन में चल रहा ऊहापोह, शांति-अशांति, प्रश्नवाचक मुद्रा में दार्शनिक का अट्टहास तथा न जाने और क्या-क्या, चित्रित हुआ है। मौन की अभिव्यक्ति सवा दो खंडों में विभाजित ग्रंथ है अर्थात किस पर चढ़ाऊं फूल, समय की नदी पर लकीर तथा दोहे। लेखक के मन में अपने ढंग से वैचारिक स्तर पर इन खंडों में अलग-अलग भाव संचारित हुए हो सकते हैं, परंतु पाठक के लिए इन सवा दो खंडों में भावात्मकता में बराबर निरंतरता बनी रहती है। मंतर छू मंतर जैसी कविताओं में कवि की छेड़छाड़ पाठक को गुदगुदाती है, तो जो छूट गया, सो छूट गया…पत्तों के झड़ने के माध्यम से जीवन की क्षणभंगुरता को सहज-सरल, परंतु बेहद प्रभावी ढंग से वाणी दी गई है। यथा :

काल हो जब बहती गंगा, जीवन हो फिर गंगा घाट

मन है ज्यों बकरी की जात, नाते रिश्ते धूप छांव से,

सुख दुख है वृक्षों की पात, जो सूखे फिर झड़े पेड़ से,

झड़े वही जो छूट गया, जो छूट गया सो छूट गया।

विषयवस्तु की प्रभविष्णुता वैचारिक चिंतन को प्रवाह देती है और समग्रतः मौन की अभिव्यक्ति वास्तव में कवि हृदय में स्थित ज्वारभाटे की विस्फोटक अभिव्यक्ति है, जिसे कहीं-कहीं सृजनकर्ता ने शब्दों की कोमलता का जामा पहनाकर विचार की हिंसा को शांत करने का प्रयत्न किया है। परंतु फिर भी विचार की उच्छृंखलता ताक-झांक करती हुई धरातल पर आ खड़ी होती है।

कवि सांसारिकता एवं सुखवाद से पूर्णतः संतृप्त जान पड़ता है, परंतु ऐसा होने पर भी उस अदृश्य, अनंत शक्ति, परमपिता परमात्मा के संदर्भ में उसके उद्गार विभिन्न मुद्राओं में अनेक कविताओं में समाहित हैं, जो पुस्तक को आध्यात्मिकता में रंग देते हैं। अनादिकाल से चली आ रही जिज्ञासाएं, संस्कार, स्वीकार-अस्वीकार, किस पर चढ़ाऊं फूल में साकार हो उठे हैं। मनुष्य की दुर्बलता, अनंत शक्ति के समक्ष उसका बौनापन, उसके क्रियाकलाप में स्वार्थ भावना आदि की अभिव्यक्ति पाठक को झकझोर जाती है :

पद अपनी मतलब परस्ती की खातिर, ढूंढता हूं तुझे कभी परबतों में

कभी डूब जाता हूं नदी नालों में, चढ़ जाता हूं कैलाश कभी

पूजता हूं कंकरों पत्थरों को, पेड़ों, जानवरों और चांद सूरज को

पर देखना नहीं चाहता, तुझे अपने भीतर समाया हुआ।

बंद गुफा तथा वैसी ही अन्य कई कविताओं में मानव मन के विरोधाभासों को उकेरा गया है। मौन कभी-कभी उदासीनता का प्रतीक भी बन जाता है। अजय पाराशर की कविता की एक विशिष्टता यह भी है कि सहज ही, जाने-अनजाने में इसमें सूक्त वाक्य बनते, मिटते उभरते रहते हैं, जो सोचने पर विवश करते हैं और भावविभोर कर जाते है। यादों की रोशनी में जब भी कवि जिंदगी की तहों को उधेड़ता है, तो उसे अनुभवों के नुकीले नश्तर चुभते हैं और वह कह उठता है-कुछ भी तो पता नहीं, कब तक चलता रहेगा यह खेल? मौन की अभिव्यक्ति में संकलित कविताएं किसी सांचे-खांचे में ढालकर नहीं लिखी गई हैं, क्योंकि इनमें जीवन, जगत, इस ओर, उस पार के अनेक मुद्दे समाहित हैं। अंधेरे की किताब को पढ़ने के लिए मन की आंखें चाहिए और फिर कई परतों में बहती काल की नदी पर हस्ताक्षर करने इतने आसां तो नहीं होते। जीवन के होने न होने की समस्या का समाधान आज तक बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, पीर-पैगंबर नहीं सुझा पाए हैं। अतः स्वाभाविक है कि लेखक के मन में भी जो शंकाएं जीवन-जगत को लेकर उसे विचलित करती हैं, उनके निदान-समाधान के लिए उसकी कलम में छटपटाहट है, नास्टेलिजक उदासी है, संशय है, लेकिन कोई आरोपित अतिशयोक्ति नहीं, अपितु कविता में वह आचार-व्यवहार और विचार के स्तर पर भी विश्लेषणात्मक हो गया है। जैसे दि ओल्ड मैन एंड सी का लेखक हेमिंग्वे अपनी कहानियों पर कोई अंत आरोपित नहीं करता, उसी प्रकार अजय पाराशर किसी निष्कर्ष या उपदेश को अपनी कविताओं का अनुलग्नक नहीं बनाते। अनुभूति रूपी बिंबों को थाली में परोस कर पाठक के लिए साहित्यिक व्यंजन प्रस्तुत करते हैं…पाठक चाखा बनकर आस्वाद का आनंद लेता है। अर्थ की विस्तृति एवं अन्वति के अनुसार आस्वाद में विविधता का मान भी हो सकता है। इस संग्रह की कविता ‘जरूरी है युद्ध’ विषय की मार्मिकता एवं प्रस्तुति की गंभीरता के कारण विशेष उल्लेख की अधिकारी है। सन् 1959 में तिब्बत से तिब्बतियों का पलायन, विस्थापन और निर्वासन…इतिहास की दर्दनाक घटना है। इसी त्रासदी को अपनी कविता में अभिव्यक्त करते हुए लेखक ने विस्थापितों की नई पीढि़यों के संदर्भ में अनेक प्रश्न उठाए हैं। दावा की मिची, उदास आंखें जानना चाहती हैं :

बुद्धों के दरम्यां पसरी दीवार का भेद

पूछना चाहती हैं क्यों नहीं समझता

चीन का बुद्ध, तिब्बत के बुद्ध का दर्द

उन मांओं का दर्द, पिता की चिंता

बहनों की पीड़ा, भाइयों की आग

जो पसरी पड़ी है, उनके अंग-संग में

क्यों नहीं बिछाए जा सकते

दुनिया की छत पर तिब्बत के सपने

जो तिब्बत की आबोहवा में

घूमना चाहते हैं याक की पीठ पर

चाहते हैं रचना बसना, अपनी माटी की गंध में।

छोटे-छोटे भावचित्रों के माध्यम से कवि ने सामाजिक सरोकारों में व्याप्त विसंगतियों को कुशलतापूर्वक व्यंग्य की धार से चित्रित किया है। ‘पोस्टमार्टम’ कविता ऐसा ही उदाहरण है। व्यक्ति छद्म व्यवहार को ढकने के लिए तीन-तीन मुखौटे धारण कर लेता है, मुखौटे पर मुखौटा। व्यवहार में परिवर्तन स्वार्थपरता, अनुदारता एवं हिंसक प्रवृत्तियों का उद्घाटन है। अशांति, आतंक विश्व समाज का हाल मार्क बन गया है। ऐसे विकट समय में कविता की उपयोगिता एवं प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है। अजय पाराशर की सृजनात्मकता समय की चिंताओं को रेखांकित करती सदाशयता की सलिला बन जाती है।

-डा. सुशील कुमार फुल्ल, पुष्पांजलि,

राजपुर (पालमपुर)

पुस्तक समीक्षा

* चर्चित पुस्तक : मौन की अभिव्यक्ति (2017)

* लेखक : अजय पाराशर

* मूल्य : 120 रुपए

* प्रकाशक : बोधि प्रकाशन

सी-46, सुदर्शनपुरा इंडस्ट्रियल एरिया एक्सटेंशन, नाला रोड, 22 गोदाम, जयपुर-110006


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