राजनीतिक दिवालियापन है अविश्वास

By: Mar 21st, 2018 12:05 am

लोकसभा में विपक्ष के हंगामे के कारण अविश्वास प्रस्ताव पेश नहीं किया जा सका। यदि स्पीकर सुमित्रा महाजन ने इसे अनुमति दी, तो उसे कभी भी पेश किया और बहस की जा सकती है। हम उन राष्ट्रीय और संसदीय कारणों को गिना चुके हैं, जिनके मद्देनजर लोकसभा में सरकार के खिलाफ  अविश्वास प्रस्ताव लाया जा सकता है। अविश्वास प्रस्ताव का क्षेत्रीय मुद्दों से कोई सरोकार नहीं है। सिर्फ एक राज्य की, क्षेत्रीय पार्टी के क्षेत्रीय मुद्दे पर संसद में अविश्वास प्रस्ताव एक ‘राजनीतिक दिवालियापन’ के अलावा कुछ भी नहीं है। यदि इस बार आंध्रप्रदेश की दो पार्टियां-टीडीपी और वाईएसआर कांग्रेस-के अविश्वास प्रस्ताव को लोकसभा में अनुमति दी जाती है, तो आने वाले कल में पश्चिम बंगाल, बिहार, ओडिशा और पूर्वोत्तर राज्यों से भी अविश्वास प्रस्ताव आ सकते हैं। संसद में क्षेत्रीय मुद्दों पर, केंद्र सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्तावों का सैलाब शुरू हो सकता है। क्या वे हालात, वे क्षेत्रीय महत्त्वाकांक्षाएं, विशेष राज्य के दर्जे की एकाधिक मांगें ‘राष्ट्रहित’ में हैं? क्या संसद में यह एक स्वस्थ परंपरा होगी? हालांकि मौजूदा प्रस्ताव को कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, बीजद और वामदलों आदि के करीब 150 सांसदों का समर्थन प्राप्त है, लेकिन उसे भी ‘असंवैधानिक’ करार देते हुए स्पीकर को यह प्रस्ताव रद्द कर देना चाहिए। वैसे भी विपक्ष के इस जमावड़े को अच्छी तरह मालूम है कि कुल 312 सांसदों के समर्थन वाली मोदी सरकार को लेशमात्र भी खतरा नहीं है। अकेली भाजपा के 273 सांसद लोकसभा में हैं। बहुमत का फिलहाल जादुई आंकड़ा 269 है, क्योंकि कुछ सीटें खाली हैं। यदि मोदी-भाजपा-विरोध की एक-एक पार्टी, इकाई को भी एकजुट कर लिया जाए, तो ऐसे सांसदों की संख्या 213 बनती है। क्या इस संख्या पर लोकसभा में सरकार के खिलाफ  अविश्वास प्रस्ताव को पारित किया जा सकता है? यह सिर्फ मोदी-विरोध की ऐसी नाकाम राजनीति है, जिसमें सभी विपक्षी दल भी लामबंद नहीं हैं। कोलकाता में बंगाल की मुख्यमंत्री एवं तृणमूल अध्यक्ष ममता बनर्जी और तेलंगाना मुख्यमंत्री एवं टीआरएस प्रमुख के.चंद्रशेखर राव ने मुलाकात कर ‘फ्रेडरल फ्रंट’ की घोषणा भी कर दी है। आम आदमी पार्टी, झारखंड मुक्ति मोर्चा, अजित जोगी की पार्टी और ओवैसी की एमआईएम ने इस ‘नवजात मोर्चे’ को समर्थन भी दे दिया। इससे कोई भी समीकरण नहीं साधा जा सकता, अलबत्ता कांग्रेस की कोशिशों को पलीता जरूर लग सकता है। अंततः भाजपा और मोदी को ही राजनीतिक फायदा हो सकता है। बहरहाल लोकसभा में सरकार के खिलाफ  अविश्वास प्रस्ताव लाना विपक्ष का संवैधानिक अधिकार है, लेकिन उसके लिए उचित आधार भी होना चाहिए। इस अधिकार का उपहास नहीं किया जाना चाहिए। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल से ही अविश्वास की परंपरा रही है। जेबी कृपलानी ने 1963 में नेहरू सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था, लेकिन उनके पक्ष में सिर्फ 62 वोट आए, जबकि सरकार के पक्ष में 347 वोट थे। इसी तरह लालबहादुर शास्त्री और पीवी नरसिंह राव की कांग्रेस सरकारों के खिलाफ 3-3 बार अविश्वास प्रस्ताव लाए गए, लेकिन सभी ध्वस्त हुए। इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ सर्वाधिक 15 बार यह प्रस्ताव पेश किया गया। अगस्त, 2003 में विपक्षी दलों के साथ मिलकर कांग्रेस ने तत्कालीन वाजपेयी सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव रखा। मुद्दा था-ताबूत घोटाले के बावजूद जार्ज फर्नांडीस को दोबारा रक्षा मंत्री बनाना। तब भी विपक्ष को 186 वोट मिले और 312 वोटों के समर्थन से सरकार स्थिर रही। अब मोदी सरकार के खिलाफ पहली बार अविश्वास प्रस्ताव लाया जा रहा है, क्योंकि सरकार ने आंध्रप्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा नहीं दिया। यही राजनीतिक दिवालियापन है। मुद्दा ही संवैधानिक नहीं है। मुद्दा भी ऐसा है, जिसका सरोकार शेष भारत से नहीं है। क्या लोकसभा को दो क्षेत्रीय पार्टियों का बंधक बनाया जा सकता है? कमोबेश टीडीपी और वाईएसआर कांग्रेस संसद का राष्ट्रीय एजेंडा तय नहीं कर सकतीं, क्योंकि उन्हें पर्याप्त जनादेश हासिल नहीं है। बेहतर होगा कि सरकार के प्रति अविश्वास जताने वाले दल और नेता जनता का विश्वास जीतने चुनावी मैदान में जाएं  और सत्तारूढ़ हों। तब पता चलेगा कि संविधान से बंधकर कैसे काम करना पड़ता है सरकारों को? बहरहाल हम स्पीकर के विवेक के अलावा कुछ नहीं कर सकते। इस राजनीतिक दिवालियापन पर रो भी नहीं सकते।


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