वाराणसी और दिल्ली की सियासी फिजाएं

By: Mar 30th, 2018 12:08 am

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

राज्यसभा की एक-एक सीट महत्त्वपूर्ण हो गई है। हाल में मैंने जब वाराणसी का दौरा किया तो पाया कि वहां हर कोई राज्यसभा की 10 सीटों के लिए होने वाले चुनावों पर नजर गड़ाए हुए था तथा आकलन कर रहा था। चूंकि भाजपा गोरखपुर व फूलपुर लोकसभा उपचुनाव में हाल में हार गई थी, इसलिए लोगों की रुचि इस बात में ज्यादा बढ़ गई थी कि 10 राज्यसभा सीटों पर क्या होने वाला है। लोग इस कारण भी ज्यादा रुचि ले रहे थे क्योंकि हाल के घटनाक्रम ने राज्यसभा का महत्त्व बढ़ा दिया है…

हम अकसर भारतीय संसद के ऊपरि सदन राज्यसभा के बारे में चर्चा करते रहते हैं। अकसर चर्चा यह होती है कि यह सदन औपचारिकता मात्र निभाता है क्योंकि यह निचले सदन लोकसभा द्वारा पारित विधेयकों को ही मंजूरी देता है। इस तरह कार्य का दोहराव हो जाता है, जो काम लोकसभा कर रही होती है, वही काम फिर से राज्यसभा द्वारा निपटाया जाता है। वास्तव में कई विशेषज्ञ दलील देते हैं कि यह अनावश्यक औपचारिकता है, इसलिए इस सदन को खत्म कर देना चाहिए। ऐसा विचार क्यों बनता जा रहा है, इसके कई कारण हैं। वास्तव में यह एक परोक्ष सदन है तथा इसमें चुनकर आने वाले लोगों का आम जनता से कोई संबंध नहीं होता है। सदन के सदस्यों का चुनाव परोक्ष ढंग से होता है तथा यह जनता का प्रतिनिधित्व भी नहीं करता है। वास्तव में इस सदन की रचना के पीछे कुछ तर्क भी हैं। यह आशा की गई थी कि यह सदन लोकसभा द्वारा पारित कानूनों पर एक विवेकपूर्ण नजर रखेगा तथा इसके सुझावों का अपना अलग महत्त्व होगा। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि यह सदन अब बुद्धिजीवियों और वैज्ञानिकों का सदन नहीं रह पाया है। साथ ही अब यह समाज व विविध व्यवसायों के महत्त्वपूर्ण खंडों का प्रतिनिधि भी नहीं रह पाया है। यह सदन अब चुनाव में हारे हुए नेताओं को प्रश्रय देने का माध्यम मात्र रह गया है। कुछ मामलों में तो यह सदन पैसों से भरे थैले लेकर आने वाले व्यापारियों व कारोबारियों को समायोजित करने का माध्यम बन गया है। इसके अलावा इस सदन में 12 ऐसे लोग राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किए जाते हैं   जिन्होंने कला, विज्ञान, साहित्य, खेल, समाज सेवा अथवा अन्य क्षेत्रों में उत्कृष्टता हासिल की हो। लेकिन दुख की बात यह है कि अब इन सीटों पर भी राजनेता ही चुने जाने लगे हैं। इसके कारण इस सदन की छवि धूमिल हुई है तथा इसने अपनी प्रासंगिकता  खो दी है।

कुछ अवसरों पर खिलाडि़यों व कलाकारों का मनोनयन जरूर इस सदन में होता देखा गया है, लेकिन यहां भी मामला वेतन व शान तक सीमित होकर रह गया है। कई लोग यह भी कहते हैं कि यह सदन अभिजात्य वर्ग के राजनेताओं को समायोजित करने का साधन बन गया है, ठीक उसी तरह जिस तरह राज्यों में राज्यपालों के पद हैं। हाल में हुए घटनाक्रम से हमने सीखा कि चूंकि सरकार के पास इस सदन में बहुमत नहीं है तथा वह विपक्ष पर निर्भर है, ऐसी स्थिति में विपक्ष संसद की कार्यवाही में व्यवधान पैदा करने तथा उसे रोकने में सक्षम है। लोकसभा का कोई भी काम बिना शोर-शराबे के नहीं होता। बहिर्गमन व शोरोगुल सदन की कार्यवाही को असंभव बना देता है। इस तरह की नकारात्मक घटनाओं ने राज्यसभा का महत्त्व बढ़ा दिया है, राज्यसभा राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाला सदन है जो सरकार को अपने दायित्व निभाने में मदद कर सकता है, हालांकि जनता के प्रति इस सदन का कोई दायित्व नहीं है। सत्तापक्ष व विपक्ष दोनों अपना-अपना प्रभाव व महत्त्वपूर्ण उपस्थिति इस सदन में बढ़ाने के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं, ऐसी स्थिति में राज्यसभा की एक-एक सीट महत्त्वपूर्ण हो गई है। हाल में मैंने जब वाराणसी का दौरा किया तो पाया कि वहां हर कोई राज्यसभा की 10 सीटों के लिए होने वाले चुनावों पर नजर गड़ाए हुए था तथा आकलन कर रहा था। चूंकि भाजपा गोरखपुर व फूलपुर लोकसभा उपचुनाव में हाल में हार गई थी, इसलिए लोगों की रुचि इस बात में ज्यादा बढ़ गई थी कि 10 राज्यसभा सीटों पर क्या होने वाला है। लोग इस कारण भी ज्यादा रुचि ले रहे थे क्योंकि हाल के घटनाक्रम ने राज्यसभा का महत्त्व बढ़ा दिया है।

वहां आम राय यह पाई गई कि भाजपा इन दोनों सीटों पर इस कारण हारी क्योंकि जातीय प्राथमिकताओं के चलते प्रत्याशियों के चयन में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पसंद को स्वीकार नहीं किया गया। मुख्यमंत्री के रूप में उनकी लोकप्रियता आज भी कायम है तथा किसी ने भी भाजपा की इस हार के लिए उन्हें जिम्मेवार नहीं ठहराया। लोगों की यह अवधारणा उस समय सही साबित हुई जब भाजपा ने 10 में से नौ सीटें जीत लीं। बसपा एक भी सीट नहीं जीत पाई, जबकि सपा को एक सीट मिली। इसके साथ ही नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता भी यहां कायम दिखी क्योंकि यहां पर बड़े स्तर पर विकास कार्य चल रहे हैं। लोगों का मोदी पर विश्वास अब भी कायम है। एक रिक्शावाले ने इस भावना को इस तरह प्रकट किया, ‘‘वाराणसी चमकेगा साहिब।’’ मैंने प्रतिरोध करते हुए उससे कहा कि लेकिन यहां निर्माण कार्यों के कारण चारों ओर धूल ही धूल है। इस पर उसने कहा कि साहिब, समय तो मकान बनाने में भी लग जाता है। यह व्यक्ति आम आदमी का प्रतिनिधित्व करता है जो कई तरह की मुश्किलों व असुविधाओं के बावजूद नरेंद्र मोदी में विश्वास रखता है। जब मैं दिल्ली वापस लौटा तो विभिन्न अड्डों पर अफवाहों का बाजार व राहुल गांधी पर जोक्स चर्चा में सुने। वाराणसी के उलट दिल्ली अब वर्ष 2019 तथा विपक्ष की एकता को लेकर चिंतित है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को लेकर कोई भी उत्साहित नहीं है। उनके बारे में अवधारणा यह बन गई है कि वह तो पहले गंभीर आरोप लगाते हैं, फिर ऊपर से माफी मांग लेते हैं। चार साल पहले यहां जब केजरीवाल की बात होती थी तो लोगों के चेहरों पर चमक आ जाती थी तथा उन्हें भारत का भविष्य माना जाता था।

किस तरह एक शख्स पहले उभरता है और बाद में अपनी लोकप्रियता खो देता है, इसका सटीक उदाहरण केजरीवाल हैं। दिल्ली में कोई भी शख्स इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं दिखा कि विपक्ष का नेतृत्व कौन करेगा। सबसे आगे दौड़ता कोई नजर नहीं आ रहा है। अखिलेश यादव का सपना केवल यूपी तक सीमित है, जबकि लालू प्रसाद यादव जेल में हैं। चंद्रबाबू नायडू ने हाल में एनडीए से अपने संबंध खत्म कर लिए और वह अस्थिर नेता हैं। ममता बैनर्जी एकमात्र नेता हैं जो देशभर में विपक्ष को एक कर रही हैं तथा सरकार पर हमले बोल रही हैं। वह बंगाली में हिंदी बोलती हैं, लेकिन प्रणब मुखर्जी के अनुसार ऐसा व्यक्ति भारत के प्रधानमंत्री के रूप में एक विकलांग की तरह होगा। लेकिन अंततः हमारे पास देवेगौड़ा हैं जो ज्यादा कुछ नहीं जानते। पश्चिम बंगाल में ममता बैनर्जी इस बात से चिंतित हैं कि वहां राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का विस्तार होता जा रहा है तथा इस साल वह वहां 131 नई शाखाएं स्थापित करेगा।

उधर अन्ना हजारे फिर आंदोलन पर हैं, परंतु उनका अनशन इस बार ज्यादा भीड़ इकट्ठी नहीं कर पा रहा है। यहां किसी क्रांति की संभावना नहीं है। मोदी से कैसे निपटा जाए, कोई नहीं जानता है, फिर भी हर कोई इस बारे में बात कर रहा है अगर उसे मौका मिले तो। भाजपा के कुछ आदमी ‘शत्रु’ हैं, परंतु यह कोई नहीं जानता कि वह अखाड़े में कूदेंगे। अब यह धीरे-धीरे स्पष्ट होता जा रहा है कि संयुक्त विपक्ष का नेतृत्व राहुल गांधी नहीं करेंगे, हालांकि वह दूसरे दर्जे की भूमिका निभा सकते हैं। बहरहाल राजनीति दिन-प्रतिदिन गंदी से गंदी होती जा रही है। डाटा लीक प्रकरण व संसद में बहस के दौरान ज्यादा शोरोगलु राजनीति को दूषित कर रहा है।

ई-मेल : singhnk7@gmail.com


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