विष्णु पुराण

By: Mar 31st, 2018 12:05 am

शुद्धःसेल्लक्ष्यते भ्रांत्या गुणवानिवयोऽगुणः।

तमात्मरूपिण देवं नताः स्म पुरुषौत्तमम्।।

आविकारमज शुद्ध निर्गुण यन्निरंजनम्।

नताः स्म तत्पर ब्रह्म विष्णोर्यत्परम पदम्।।

अदीर्धहृस्वमस्थूलमनण्वश्यामलोहितम।

अस्नेहच्छायमतनुमसक्तमशरीरिणम।।

अनाशमसस्पर्शमगंधमरस च यत।

अचक्षु श्रोत्रमचलमवाकपणिममानसम।।

अनामगोत्रमशुमतेजस्कमहेतुकम।

अभय भ्रांतिरहितमनिद्रमजरामरम।।

अरजोऽशब्दममृतप्लुत यदसंबृतम।

पूर्वापरे न वै यस्मिस्तद्विष्णोः परमं पद्म।।

परमेशत्वगुणवत्सर्वभूतमसश्रयम।

नताः स्म तत्वद विष्णोर्जिह्वादृग्गोचरं न यत।।

जो निर्गुण होते हुए आरोप से गुणयुक्त दिखाई देते हैं। उन आत्म रूप पुरुष श्रेष्ठ को नमस्कार है। जो विकार रहित, जन्म रहित, गुण रहित शुद्ध, निर्मल और विष्णु का परम पद रूप है, उस ब्रह्म को नमस्कार है। शस्वा स्थूल लघु, काला, लाल, स्नेहः कांति तथा देह वाला नहीं है तथा आसक्ति रहित और जीव से भिन्न है और अवकाश स्पर्श, गंध रस से रहित, नेत्र जिह्वा, हाथ और मन से भी हीन है। जो नाम, गोत्र, सुख तेजादि से रहित, कारणहीन और भय भ्रांति, निंद्रा, जरा और मरण आदि अव्यस्थाओं से परे है। जो रजोगुण रहित, शब्द रहित, मृत्यु-रहित, गति-रहित तथा आच्छादन रहित हैं और जिसमें पूर्वापर व्यवहार भी नहीं है, वही भगवान श्री हरि का परमपद है। जिसका परमगुण शासन है, जो सर्व रूप एवं आधार रहित हैं तथा जिह्वा और दृष्टि का भी विषय नहीं है, ऐसे भगवान उस परमपद को हमारा नमस्कार है।

एवं प्रचेतसो विष्णं स्तृवंतस्तत्समाधयः।

दशवर्षसहस्राणि तपचेरुर्महर्णवे।।

ततः प्रसन्नो भगवानतेषामंतजले हरिः।

ददौ दर्शनमुन्निद्रनोलोत्पलदलच्छविः।।

पतत्त्रिराजमारूढबमलोक्य प्रचेतसः।

प्रणितेतुः शिरोभस्त भक्तिभारावनामितैः।।

ततस्ताहं भगवान्प्रिय भीताप्सिसो वरः।

प्रसादसुमुखोऽहं वो वरदः समुपस्थितः।।

ततस्तमूचूर्वरद प्राणिपत्य प्रचेतसः।

यथा पित्रा समादिष्टं प्रजानां वृद्धिकारम।।

स चापि देवस्त दत्वा तथाभिलषित वरम।

अंतर्धान जगामाशु ते च निश्चक्रमुंजलात।।

श्री पराशर जी ने कहा, इस प्रकार समुद्र में रहते हुए प्रचेताओं ने समाधिस्थ होकर भगवान विष्णु की स्तुतिपूर्वक दस हजार वर्ष तक तप किया। इससे भगवान उन पर अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें प्रफुल्लित नील कमल जैसे आभा वाले दिव्य स्वरूप से जल में ही दर्शन दिया। जब प्रचेताओं ने गरुड़ारूढ़ भगवान के दर्शन किए, तब उन्होंने भक्ति के भार से झुके हुए अपने सिरों को और भी झुकाकर भगवान को प्रणाम किया। यह देखकर भगवान उनके प्रति बोले, मैं तुम पर अत्यंत प्रसन्न हुआ हूं और तुम्हें वर प्रदान करने के लिए यहां आया हूं। अपना इच्छित वर मांगो। यह सुनकर प्रचेताओं ने वरदाता भगवान विष्णु को पुनः प्रणाम किया और उनके पिता ने उन्हें प्रजा वृद्धि की जो आज्ञा दी थीं, वह सब वृत्तांत उनसे निवेदन किया। इस पर भगवान ने उन्हें उनका इच्छित वर प्रदान किया और वहीं अंतर्ध्यान हो गए। तब प्रचेतागण भी समुद्र के जल से बाहर निकल आए।

तपश्चरत्सु पृथिवी प्रचेतः सु महीरुहाः।

अरक्ष्यमाणामावब्रु बभूवाथ प्रजाक्षयः।।

नाशकन्मरुतो वातु वृत खम भवद्द्रुमैः।

दशसहस्राणि न शकुश्चष्टितु प्रजाः।।

तंदृष्टवा जलनिष्क्रान्तासर्वेक्रुद्धाः प्रचेतसः।

मुखेभ्यो वायुनन्नि च चेऽसृजन जायमंबः।।

उन्मूलानथ तांवृक्षाकृत्वा वंयुराशोषयत।


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