संसद पर जड़ दो ताला!

By: Mar 23rd, 2018 12:04 am

उपराष्ट्रपति एवं राज्यसभा के सभापति एम.वेंकैया नायडू को रात भर नींद नहीं आई। वह बेचैन रहे। पत्नी ने पूछा, तो इतना ही कहा कि संसद में जो हंगामा, नारेबाजी, पोस्टरबाजी आदि चल रहे हैं, उन हरकतों ने उन्हें बेचैन कर रखा है। यही नहीं, उपराष्ट्रपति ने राज्यसभा सांसदों के लिए एक रात्रिभोज का आयोजन तय किया था। वह प्रधानमंत्री मोदी, नेता प्रतिपक्ष गुलाम नबी आजाद और कुछ अन्य नेताओं से बातचीत भी कर चुके थे। एक अनौपचारिक निमंत्रण भी दे दिया था। अचानक वह रात्रिभोज भी रद्द करना पड़ा। यदि इन दो घटनाओं की ही व्याख्या करें, तो यह संसद की लगातार ठप कार्यवाही का ही भावनात्मक असर है, जो वेंकैया के व्यवहार में स्पष्ट है। करीब 15 दिनों से संसद की कार्यवाही ठप रही। संसद खुलती है, स्पीकर और सभापति के साथ सत्ता और विपक्ष के नेता हर रोज कार्य मंत्रणा समिति की बैठक में हाजिर होते हैं। संसद के विधायी और बहस वाले विषयों पर चर्चा होती है। कुछ बुनियादी सहमति भी बनती होगी, लेकिन 11 बजे संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही शुरू होती है, तो हंगामे सामने आते हैं। अलग-अलग पक्ष के सांसद अध्यक्ष या सभापति के आसन के पास आकर नारेबाजी करने लगते हैं। उनके हाथों में पोस्टर और बैनर भी होते हैं, जो एक असंवैधानिक हरकत है। अंततः कुछ ही मिनटों में कार्यवाही को स्थगित करना पड़ता है। ये दृश्य निरंतर देखे जा सकते हैं। चूंकि सांसद सदन में आते हैं, लिहाजा हस्ताक्षर करते ही उनका रोजाना का भत्ता 2000 रुपए तय हो जाता है। संसद चले या न चले, बिल पारित हों या लटके रहें, मुद्दों पर बहस हो सके या न हो, हंगामाखेज सांसदों को कोई फर्क नहीं पड़ता। यह उनका राष्ट्रीय और पेशेवर सरोकार ही नहीं है। संसद की एक मिनट की कार्यवाही पर औसतन 2.5 लाख रुपए खर्च होते हैं। अकेली लोकसभा पर एक दिन में 9 करोड़ रुपए खर्च होते हैं और राज्यसभा पर करीब 7.5 करोड़ रुपए रोजाना खर्च होते हैं। यानी संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही पर रोजाना 16.5 करोड़ रुपए खर्च करने पड़ते हैं। देश के करदाताओं की गाढ़ी कमाई से कब तक खिलवाड़ जारी रहेगा? यदि यही सिलसिला जारी रहा, तो फिर संसद की ही जरूरत क्या है? क्यों न संसद पर ही ताला जड़ दिया जाए? यह सवाल पलायनवाद का नहीं है। यदि सांसदों को अपने वेतन और भत्तों में बढ़ोतरी करनी है या राष्ट्रपति, राज्यपाल के वेतन बढ़ाने हों, तो चुटकी बजाते ही प्रस्ताव पारित हो जाते हैं, लेकिन देश के बजट वाला वित्त विधेयक, जिस पर 21 संशोधन दिए गए थे, कुछ ही पलों में, बिना बहस के, ध्वनिमत के रूप में पारित हो जाता है। मोदी सरकार के खिलाफ  अविश्वास प्रस्ताव कई दिनों तक लटका रहता है। तो फिर संसद के मायने क्या हैं? सांसदों से जिस गरिमा और संवेदना की अपेक्षा की जाती है, वे काफूर क्यों हैं? इराक में मारे गए 39 भारतीयों के बारे में विदेश मंत्री सुषमा स्वराज लोकसभा को जानकारी देना चाहती थीं, लेकिन कांग्रेसियों के हंगामे ने उन्हें बोलने ही नहीं दिया। इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है? दरअसल हमने बोफोर्स तोप घोटाले के दौर से संसद की ठप कार्यवाही को देखा है। कभी 13-15 दिनों तक विपक्षी भाजपा हंगामा कर संसद को ठप्प करती रही है, तो कभी कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों ने वाजपेयी सरकार के दौरान ताबूत घोटाले पर कई दिनों तक संसद नहीं चलने दी। तत्कालीन रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडिस को इस्तीफा देना पड़ा। हालांकि निर्दोष साबित होने पर तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें दोबारा कैबिनेट में शामिल कर लिया। यूपीए की दोनों सरकारों के दौरान जो करीब 15 लाख करोड़ रुपए के घोटाले सामने आए थे, उनके विरोध में भाजपा ने संसद की कार्यवाही नहीं चलने दी। खलनायक दोनों पक्ष हैं, लेकिन अब बारी कांग्रेस की है। दरअसल इस परंपरागत दुश्मनी को खत्म करना पड़ेगा। यह दलील स्वीकार्य नहीं है कि विपक्ष में रहते भाजपा ने संसद में हंगामे किए थे, तो आज कांग्रेस भी विपक्षी दल के तौर पर वही भूमिका निभाएगी।


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