समय ही जीवन

By: Mar 17th, 2018 12:05 am

श्रीराम शर्मा

हानिकारक दुर्व्यसनों को ठंडी आग कहा जाता है। गर्म आग में जलकर भस्म हो जाने में देर नहीं लगती, पर पानी में डूब मरने से भी दुष्परिणाम वैसा ही भयंकर निकलता है। अंतर इतना ही रहता है कि आत्मदाह का भयानक दृश्य रोमांचकारी लगता है और दर्शकों की आंखों में काफी देर तक दिल दहलाने वाला दृश्य खड़ा किए रहता है। जबकि पानी में किसी के डूबने का समाचार सुनकर हल्की सी ही प्रतिक्रिया होती है। इतने पर भी दुःखद परिणति दोनों की ही एक जैसी होती है। जिसका प्राण गया, उस बिछोह का जिन पर प्रभाव पड़ा, वे दोनों ही स्थितियों में समान रूप से कष्ट सहते हैं। दुर्व्यसनों को ठंडी आग जैसा ही कहा गया है क्योंकि वे देर, सवेर में उतनी ही हानि पहुंचाते हैं, जितने कि अग्निकांड, आक्रमण, प्राण, हरण जैसे तत्काल विनाश दृश्य प्रस्तुत करने वाले संकट। कुल्हाड़ी से किसी मजबूत शहतीर को कुछ ही देर में काटकर धराशायी किया जाता है, इसी कार्य को उसके भीतर घुसा हुआ घुन, थोड़ा अधिक समय लेकर पूरा करता है। खोखला हो जाने पर शहतीर बिना कुल्हाड़ी की चोट सहे ही जमीन पर गिरता और सड़े गले ईंधन की तरह प्रयुक्त होता है। किसी को गाली से मार देना और रक्त में विष का प्रवेश कर देने पर धीमी मौत का उपक्रम करना, विवेचकों के लिए हल्के-भारी हो सकते हैं पर दोनों ही परिस्थितयों में भुक्तभोगी को प्रायः समान दुष्परिणाम ही सहन करना पड़ता है।  दुर्व्यसनों में नशेबाजी, चटोरापन, जुआ, व्यभिचार, आवारागर्दी आदि की चर्चा आमतौर से होती रहती हैं। उनकी हानियां भी समझी-समझाई जाती हैं, एक दुर्व्यसनों का सरताज ऐसा है जिसकी ओर से चित्त और आंखें दोनों ही समान रूप से आंखें बंद किए रहते और दोनों ही उसके कारण अपार हानि सहते हैं। इस दुर्व्यसन का नाम है, आलस्य। आलस्य का अर्थ है, श्रम से जी चुराना। इस कारण सामर्थ्य और साधन अवसर रहते हुए भी मनुष्य उन सफलताओं से वंचित रह जाता है, जो समय और श्रम का सुनियोजन करने पर सहज ही उपलब्ध हो सकती थी। पिछड़े लोगों में से अधिकांश का दुर्गुण, आलस्य ही पाया जाता है। आलस्य और दरिद्रता को सहोदर भाई माना गया है, दोनों अभिन्न मित्र हैं। एक के बिना दूसरे को चैन नहीं पड़ता। आलसी समय गंवाता रहता है। साथ ही उन उपलब्धियों से भी हाथ धोता रहता है, जो उतनी देर परिश्रमरत रहने पर सहज ही हस्तगत हो सकती थी। समय ही जीवन है। भगवान इसी रूप में मनुष्य को अभीष्ट वैभव सौभाग्य का अवसर प्रदान करता है। जिसने अपनी समय, संपदा का सुनियोजित उपयोग कर लिया। समझा जा सकता है कि दैवी अनुग्रह का भरपूर लाभ उठा लिया। ऐसे अनेक लोग हुए हैं, जो कि कम समय जीवित रहे,  किंतु उस अवधि का समुचति सदुपयोग करके इतना लाभ उठा सके, जितना कि शतायु लोगों को भी हस्तगत नहीं होता। मनोयोग समेत किया गया परिश्रम प्रगति और संपत्ति का ऐसा सुयोग उपस्थित करता है, जिसे सामान्य जन दैवी वरदान या सौभाग्य चमत्कार ही कह सकते हैं। सामाजिक या राष्ट्रीय प्रगति का स्वरूप कुछ भी क्यों न हो, उसके मूल कारण में उसके घटक सदस्यों की कर्मठता ही काम कर रही होती है। जहां लोगों पर आलस्य प्रमाद चढ़ा होता समझना चाहिए। वहां पक्षाघात जैसी विपत्ति दरिद्रता बनी रहेगी। विकलांगों, अपंगों के दुर्भाग्य पर आंसू बहाए जाते हैं पर सच्चे अर्थों में अभागे वो हैं, जिन्होंने आलस्य का दुर्व्यसन अपनाया। उपयोगी, योजनाबद्ध परिश्रम से जी न चुराकर समय का सदुपयोग करना सीखिए।

 


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