सामाजिक सुरक्षा नहीं, रोजगार सबसिडी दीजिए

By: Mar 6th, 2018 12:07 am

डा. भरत झुनझुनवाला

लेखक, आर्थिक विश्लेषक एवं टिप्पणीकार हैं

उद्यमों पर टैक्स लगाकर रोजगार गारंटी कार्यक्रम चलाया गया। इससे वेतन में वृद्धि हुई। टैक्स और ऊंचे वेतन के दबाव में रोजगार बंद होने लगे। नव-बेरोजगारों को रोजगार दिलाने के लिए रोजगार गारंटी कार्यक्रम का विस्तार करना पड़ा। बचे हुए उद्यमों से अधिक मात्रा में टैक्स की वसूली करनी पड़ी। इससे और उद्यम बंद हुए और बेरोजगारी में वृद्धि हुई। इस प्रकार भंवर स्थापित हो जाता है जो उत्तरोत्तर रोजगार का भक्षण करता है। रोजगार गारंटी कार्यक्रम का उद्देश्य बेरोजगारों को रोजगार  उपलब्ध कराना था। परंतु इससे कार्यरत रोजगारों का ही क्षय होने लगा है…

सरकार द्वारा जनकल्याण के लिए रोजगार गारंटी जैसी तमाम योजनाएं चलाई जा रही हैं। सरकार के इस संकल्प का स्वागत है। इस संकल्प को दो तरह से हासिल किया जा सकता है। पहला रास्ता है कि व्यापारियों पर टैक्स लगाकर रकम हासिल की जाए और उस रकम का उपयोग सामजिक सुरक्षा, रोजगार, आदि उपलब्ध कराने के लिए किया जाए जैसा कि रोजगार गारंटी योजना में किया जा रहा है। दूसरा रास्ता है टैक्स पूंजी-सघन उद्योगों से वसूला जाए और प्राप्त रकम को श्रम-सघन उद्योगों को रोजगार सबसिडी के रूप में दिया जाए।

रोजगार गारंटी जैसी योजनाएं तमाम पश्चिमी देशों द्वारा पिछले 30-40 वर्षों में लागू की गई हैं। अब इसके परिणाम सामने आने लगे हैं। नोबेल पुरस्कार विजेता प्रो. एडमंड फेलप्स ने इन कार्यक्रमों का आकलन इस प्रकार किया हैः ‘यद्यपि ऐसे कार्यक्रम अमरीका और यूरोप में बड़े पैमाने पर चलाए गए हैं परंतु गरीब श्रमिक की हालत पूर्ववत खस्ता है। वास्तव में इन योजनाओं पर किए गए खर्च ने परिस्थिति को और अधिक विकट बना दिया है। बेरोजगार श्रमिकों में परावलंबन की भावना बढ़ी है। वे वाणिज्यिक रोजगार हासिल करने में कम रुचि ले रहे हैं। उनकी कार्य करने की क्षमता का हृस हो रहा है। रोजगार देने वाले मालिक के प्रति श्रमिक की निष्ठा कम हो रही है।’ प्रो. फेलेप्स ने विकल्प इस प्रकार बताया हैः ‘उपाय है कि अकुशल श्रमिकों के वेतन पर सरकार द्वारा सबसिडी दी जाए। प्रत्येक कार्यरत अकुशल श्रमिक को रोजगार देने पर उद्यमी को कुछ रकम दी जाए। श्रम-सघन उद्योग को सबसिडी दी जाए। इससे उद्यमियों के लिए श्रम का अधिक उपयोग करना लाभप्रद हो जाएगा और बेरोजगारी पर अंकुश लगेगा। इस सबसिडी का लाभ उठाने के लिए श्रमिकों को उत्पादक कार्यों में लगना जरूरी हो जाएगा।’ प्रो. फेलेप्स द्वारा दिए गए सुझाव पर सरकार को विचार करना चाहिए।

प्रो. फेलेप्स द्वारा दिया गया सुझाव उद्यमियों और श्रमिकों दोनों के लिए लाभप्रद है। वर्तमान व्यवस्था में शहरी उद्यमी पर टैक्स लगाकर गांव में रोजगार गारंटी कार्यक्रम चलाया जाता है। टैक्स की अदायगी शहरी उद्यमियों को करनी पड़ती है जबकि इसका लाभ ग्रामीण क्षेत्रों में होता है। उद्योगों के लिए यह घाटे का सौदा है। वेतन में वृद्धि का उद्यमों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। रोजगार गारंटी कार्यक्रम के अंतर्गत न्यूनतम वेतन उपलब्ध होने से श्रमिकों की रोजगार की खोज में दूसरे स्थानों पर जाने की इच्छा कम हो जाती है जैसे बिहार के श्रमिक पंजाब जाने से कतरा रहे हैं। उन्हें रोजगार गारंटी के तहत कुछ रोजगार अपने गांव में ही उपलब्ध हो गए हैं, फलस्वरूप पंजाब के किसानों के वेतन बढ़ा कर देने पड़ रहे हैं। इस प्रकार उत्पादक अर्थव्यवस्था पर दोहरी मार पड़ती है और अंततः रोजगार घटते हैं। प्रो. फेलेप्स के सुझाव का प्रभाव ठीक विपरीत है। उत्पादक अर्थव्यवस्था चुस्त होती है, चूंकि श्रम का मूल्य कम हो जाता है। टैक्स के आकार में भी सुधार की सम्भावना है। वर्तमान व्यवस्था में सरकार सभी उद्योगों पर एक ही समान दर से टैक्स आरोपित कर रही है। दस श्रमिकों को रोजगार देने वाले रसवंती एवं एक हजार उद्योगों को रोजगार देने वाले बोतलबंद शीत पेय उद्योग पर सरकार एक ही समान दर से टैक्स आरोपित कर रही है। यदि बोतलबंद शीत पेय उद्योग मात्र से टैक्स वसूला जाए तो बोतलबंद पेय का दाम बढ़ेगा, तुलना में रसवंती सस्ती हो जाएगी, रसवंती की बिक्री बढ़ेगी और रोजगार में वृद्धि होगी। अतः सरकार को सभी व्यापारियों का श्रम अॅडिट कराना चाहिए। अधिक संख्या में श्रमिकों को रोजगार देने वाले करदाता पर टैक्स की दर कम कर देनी चाहिए। इससे श्रम सघन उद्योगों में वृद्धि होगी और बिना खर्च किए ही रोजगार का सृजन होगा। रोजगार सबसिडी का श्रमिकों की मानसिकता पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है।

उत्पादन के दौरान श्रमिक की क्षमता में सुधार होता है। जैसे स्कूटर रिपेयर करने वाला बालक समयक्रम में उस्ताद बन जाता है। यदि वह बालक रोजगार गारंटी के अंतर्गत सड़क और चैकडैम बनाता रहता तो उसकी क्षमता में यह सुधार नहीं होता। इसके अतिरिक्त रोजगार गारंटी में श्रमिकों की मानसिकता परावलंबन की बनती है। वे ग्राम प्रधान पर निर्भर हो जाते हैं और आस लगाए पूछते रहते हैं कि काम कब चालू होगा? वे दस कारखानों में जाकर काम ढ़ूंढना बंद कर देते हैं। उनके मन में विचार उठता है कि सरकार की जिम्मेदारी है कि वह रोजगार उपलब्ध कराए। उन्हें अपनी क्षमता पर भरोसा जाता रहता है और मुफ्त वेतन पाने की प्रवृत्ति पनपती है। निश्चित रूप से वेतन वृद्धि का श्रमिकों के जीवन स्तर पर सकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। परंतु इसके टिकाऊ होने में संदेह है। कारण यह कि ऊंचे वेतन के कारण मालिक का धंधा चौपट हो जाता है। याद करें कि सत्तर एवं अस्सी के दशक में दत्ता सामंत के नेतृत्व में मुंबई की कपड़ा मिलों के श्रमिकों ने ऊंचे वेतन मांगे थे। अंतिम परिणाम यह हुआ कि मुंबई की कपड़ा मिलें बंद हो गईं। यह उद्योग गुजरात एवं तमिलनाडु को पलायन कर गया। मुंबई के श्रमिक बेरोजगार हो गए। इसी प्रकार ऊंचे वेतन से त्रस्त होकर केरल में किसानों ने श्रम सघन फसलें जैसे धान एवं केले का उत्पादन कम कर दिया है और कॅफी एवं नारियल का उत्पादन बढ़ा दिया है। फलस्वरूप केरल के श्रमिकों को रोजगार कम मिल रहे हैं।

रोजगार गारंटी कार्यक्रमों का भी ऐसा ही प्रभाव पड़ा है। उद्यमों पर टैक्स लगाकर रोजगार गारंटी कार्यक्रम चलाया गया। इससे वेतन में वृद्धि हुई। टैक्स और ऊंचे वेतन के दबाव में रोजगार बंद होने लगे। नव-बेरोजगारों को रोजगार दिलाने के लिए रोजगार गारंटी कार्यक्रम का विस्तार करना पड़ा। बचे हुए उद्यमों से अधिक मात्रा में टैक्स की वसूली करनी पड़ी। इससे और उद्यम बंद हुए और बेरोजगारी में वृद्धि हुई। इस प्रकार भंवर स्थापित हो जाता है, जो उत्तरोत्तर रोजगार का भक्षण करता है। रोजगार गारंटी कार्यक्रम का उद्देश्य बेरोजगारों को रोजगार  उपलब्ध कराना था। परंतु इससे कार्यरत रोजगारों का ही क्षय होने लगा है। इन प्रभावों को देखते हुए सरकार को रोजगार सबसिडी योजना लागू करनी चाहिए। इस सुझाव को लागू करने में सरकारी नौकरशाही आड़े आती है। रोजगार गारंटी जैसी योजनाओं को लागू करने में सरकारी कर्मचारी भारी कमीशन पाते हैं। प्रधानों के अनुसार लगभग 20-30 प्रतिशत रकम सरकारी कर्मचारियों को घूस में दी जाती है। कार्य के लिए सप्लाई किए गए माल मे भी इन्हें कट मिलता है। रोजगार सबसिडी योजना में ऐसी आय के स्रोत कम हो जाते हैं। अतः सरकार रोजगार सबसिडी देने से कतरा रही है।

 ई-मेल : bharatjj@gmail.com


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