सियासी बहस के कंकाल

By: Mar 16th, 2018 12:05 am

सार्वजनिक उपक्रमों की वसीहत में बिकती राजनीति का मूल्य तय करना कठिन है, फिर भी हम हर सत्ता से उम्मीद करते हैं कि कभी तो मतदाता का संसार बदल जाएगा। जिक्र उसी एचआरटीसी का हो चला है, जो कमोबेश हर सरकार की तारीफ ढोते-ढोते इतनी कंगाल हो चुकी है कि हर जिरह में गोलमाल नजर आता है। जयराम सरकार अब श्वेत पत्र के जरिए यह बताएगी कि वीरभद्र की सत्ता में परिवहन की सरकारी खिचड़ी कैसे पकी और खजाने के कितने दांत टूटे। सरकार के तमाम उपक्रमों के घाटे जोड़ें तो करीब छत्तीस सौ करोड़ की लुटिया डुबो कर भी सियासी सफेद हाथी दौड़ रहे हैं। चर्चा के जिस बिंदु पर पिछली सरकार के परिवहन मंत्री का कौशल (?) खड़ा है, वहां भयावह दृश्य की अमानत में वज्रपात हो रहा है। सत्ता के सिक्कों की चमक इतनी भ्रष्ट कैसे हो सकती है यह श्वेत पत्र बताएगा, लेकिन हम तो निष्कर्षों की राह पर फैसला देखेंगे। सरकारी हमाम में सबसे अधिक नंगापन तो निगम-बोर्डों पर हुकूमत जमाती सियासत के इर्द गिर्द ही रहा है, तो क्या वर्तमान सरकार कठोर फैसले लेगी। कम से कम बजट की इत्तला में यह मालूम नहीं कि सत्ता के यही ऊंट अब किस करवट बैठेंगे। सरकारी लाभ की किश्तियां तो आर्थिक भंवर में नहीं डूबती, डूबते तो वे किनारे हैं जहां पर आशाएं निर्लिप्त और जनता आतुर हो कर बैठी रहती है। इसमें दो राय नहीं कि सरकारी परिवहन के हिमाचली दरवाजे से कई स्वार्थ चढ़ते रहे और प्रदेश के आर्थिक बोझ के बावजूद फैसलों की बादशाहत ने एचआरटीसी को गुलाम बना लिया। यहां कुछ सवाल निजी निवेश पर भी उठेंगे, क्योंकि नीतियों के विराम में सार्वजनिक संस्थानों की हेकड़ी भारी पड़ती है। यह सर्वविदित है कि पिछली सरकार के दौर में निजी बसों को कंकाल बनाने के लिए सार्वजनिक खजाने को खाली किया गया और इसी क्रम में लो फ्लोर बसें नाचती रहीं। विडंबना यह है कि सियासत की सत्ता में जब पारियां खेली जाती हैं, तो मुख्य उद्देश्य हारता है। जवाहर लाल मिशन की तरफ से बसों की पेशकश शहरी यातायात को सरल व सुविधाजनक बनाने का अनुदान था, जो हेकड़ी के कारण परिवहन की तानाशाही बन गया। इसका एक अंदाज वर्तमान सरकार भी पेश कर चुकी है और इसे इलेक्ट्रिक वाहनों के बंटवारे में समझना होगा। ये वाहन सर्वप्रथम ऐसे इलाकों में ही चलने चाहिएं थे, जहां एनजीटी टूरिज्म इंडस्ट्री की सांसें फुला चुका है, लेकिन यह तो सियासत की चरागाह है सो बांटना ही फर्ज है। श्वेत पत्र से पिछली सरकार के हजारों दाग सामने आ जाएं, लेकिन जनता तो जयराम सरकार की सफेद चादर पर अपनी खुशियां बटोरना चाहेगी। लिहाजा एक सशक्त परिवहन नीति चाहिए न कि परिवहन निगम के निदेशक बोर्ड के सदस्यों की नई खेप। प्रदेश में एचआरटीसी के उपडिपो या नए डिपो खोलना समाधान नहीं, बल्कि इनकी तथा ऊंचे पदों की संख्या घटाकर ही आर्थिक नुकसान कम होगा। इसी तरह निकम्मे साबित हो चुके बोर्ड-निगमों के अस्तित्व पर तनी सरकारी खजाने की छतरी हटाकर समझना होगा कि इनकी वास्तविक औकात है क्या। श्वेत पत्र अगर पूर्व सरकार के गलत फैसलों की मिसाल है, तो नई सरकार को खुद को सिद्ध करने के लिए कठोर फैसलों की आदत डालनी होगी। अगर मिल्क फेड को सफल बनाना है, तो इसके लक्ष्यों को सार्थक बनाना होगा। आम हिमाचली उपभोक्ता से पूछें कि उसके घर में पहुंचे दूध में क्या कभी मिल्क फेड का अक्स दिखाई दिया या बाहरी राज्यों से कभी दूध की खेप न आए तो हिमाचली बाजार की लाचारी में  नजर आएगी ऐसे संस्थानों की बीमारी। लब्बोलुआब यही कि सरकारी रंग और सरकारी ढंग से चलती मशीनरी का खिजाब पढ़ना मुश्किल है। टांडा मेडिकल कालेज के डाक्टरों की एसोसिएशन (टैमकोट) चीख रही है कि बिना औचित्य के चौदह चिकित्सक अन्य मेडिकल कालेजों की भेंट कर दिए गए, तो स्वास्थ्य सेवाओं का वारिस कौन होगा। सदन के बड़े पटल पर भले ही चिकित्सा सेवाओं के दुरुस्त होने का दावा हो, लेकिन नए मेडिकल कालेजों के चक्कर में जो अस्पताल पिछली सरकार में बर्बाद हुए, इसमें भी कंकाल हो रहे हैं। इसी तरह कई अन्य विभागों की फाइल पूर्व सरकारों की करतूतों से कितनी मोटी होगी किंचित असर नहीं पड़ेगा, लेकिन जहां व्यवस्था सुधरेगी इनाम मिलेगा। विभागीय कसरतों के जो आरंभिक पैगाम शिक्षा मंत्रालय से निकले हैं, वहां सरकार बदलने का अर्थ स्पष्ट हो रहा है। ऐसे में एचआरटीसी पर श्वेत पत्र से भी कहीं आगे परिवहन नीति की जरूरत को समझें, तो अंतर आएगा।


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