हर आंदोलन का जंजैहली होना

By: Mar 15th, 2018 12:05 am

जंजैहली आंदोलन की राख शांत हुई, तो इसके अंगारे भी बुझाने होंगे। जन आंदोलनों की वजह पूछने से पहले, परिदृश्य पर मरहम छिड़कने का अदब चाहिए और यही मुख्यमंत्री की संयमित भाषा के संयोग रहे, जो मचान पर बैठे आक्रोश को शांति की तहरीर मिल गई। शाब्दिक युद्ध का राजनीतिक अभ्यास जिस कद्र हो चुका है, वहां संबोधन के नए अर्थों को प्रस्तुत करना होगा। यह केवल सियासी गलियारों की औकात से जुड़ा प्रश्न नहीं, बल्कि आम जनमानस की अवधारणा में सियासी केंचुली की तरह है। हर पांच साल बाद यह केंचुली उतार कर जनता का एक समुदाय सत्ता का लाभार्थी हो जाता है। सरकार के भीतर जीत के सियासी पैमाने हो सकते हैं, लेकिन सुशासन हमेशा गैरराजनीतिक तरीके से आता है। हम किसी भी विवाद का हल ढूंढ सकते हैं, लेकिन विवाद की मूंछें नहीं पकड़ सकते। जंजैहली में बारह दिन का एसडीएम अगर उफनते संघर्ष को विराम लगा सकता है, तो इस अखाड़े में पस्त क्या हुआ। विवाद तो उन प्रश्नों में भी दर्ज है, जो विधानसभा सत्र में पूछे जा रहे हैं। क्यों नहीं उस आशय को पढ़ा जाता है, जो गैरराजनीतिक होकर भी सियासी समझा जाता है। जंजैहली संघर्ष ने अपना मकसद इसलिए भी हल किया, क्योंकि इस आक्रोश की आंच खतरनाक थी, तो क्या यह माना जाए कि अब हिमाचल की अशांति जीत जाएगी। ऐसा न होता तो जंजैहली से भी पहले का एक शांतिपूर्ण जनसंघर्ष अब तक हल हो जाता। कमोबेश पिछली सरकार के समय से ही धर्मशाला के मुख्य खेल मैदान को अनावश्यक निर्माण की जद से बचाने के लिए नागरिक प्रयास कर रहे हैं। हैरानी यह कि पूर्व सरकार ने जनभावना का संज्ञान लेते हुए खुदाई तक रोक दी, जबकि वर्तमान सुशासन की दहलीज पर जनता की निर्लिप्त भावना कुचली जा रही है। प्रदेश के सबसे बड़े खेल मैदान व राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं के आयोजन का मुख्य स्थल रहे मैदान पर जनता की चिंता का संज्ञान लेने के बजाय, सरकार की संवेदनशीलता असहयोग की दिशा में दिखाई देती है। शहर के प्रबुद्ध, युवा, व्यापारी, स्वयंसेवी समूह तथा गैरराजनीतिक संगठन शांतिपूर्ण ढंग से पिछले दो महीनों से संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन यह चीख जंजैहली प्रकरण के आगे कमजोर पड़ गई। यह इसलिए कि आंदोलन का गैरराजनीतिक होना शायद असर नहीं कर रहा या जिस तरह जनता स्थानीय प्रशासन, राज्यपाल, सरकार व केंद्र सरकार तक दरख्वास्त भेजती रही है, उसकी इबारत जंजैहली की तरह नहीं बन पाई। सरकार को गैर राजनीतिक संगठनों व उम्रदराज नागरिकों का लगातार धरने पर बैठना पसंद नहीं और न ही लोकतांत्रिक सीमा के भीतर खेल मैदान को बचाना गंवारा। क्या हर आंदोलन को जंजैहली बनना होगा या खेल के मैदानों की रक्षा करना जनता के जज्बात की पैरवी नहीं। आश्चर्य यह कि धर्मशाला खेल मैदान संघर्ष में न कोई खेल नीति की कसौटी और न ही मुख्यमंत्री की पाती। स्थानीय विधायक एवं सरकार के वरिष्ठ मंत्री को यह भी फुर्सत नहीं कि नागरिक समाज की चेतना को समझा जाए। आश्चर्य यह भी कि खेल मैदान के विस्तार को लेकर सत्तर के दशक में जो परियोजना बनी, उसे भी राजनीति चबा गई। पूर्व भाजपा सरकार ने धर्मशाला को खेल नगरी का खिताब दिया, लेकिन सुभाष चंद बोस के नाम को संबोधित करता यह मैदान केवल क्रिकेट मैचों के दौरान पार्किंग सुविधा देता रहा। आज भी मैदान की क्षमता राष्ट्रीय आयोजनों के लिए एक सुविधा संपन्न स्टेडियम का रूप ले सकती है, लेकिन पुलिस के आला अधिकारी की हुकूमत में बर्बादी का आलम वर्तमान सरकार गिन रही है, तो वह जनता दोषी है जो निस्वार्थ भाव से हर दिन कोई न कोई अपील करके मैदान को बचाने की जुगत बैठाती है। उसे भरोसा है कि मैदान के समीप एक बड़े होर्डिंग पर अंकित सरकार की भावना, ‘जनसहयोग, जनसहभागिता से बदलेंगे प्रदेश की तस्वीर’ एक दिन खेल मैदान को बचाने से पूर्ण होगी। जनसहयोग के बिना सुशासन नामुमकिन है, लेकिन जनता से दूर जनप्रतिनिधि बेकसूर नहीं हो सकता। जनता को सुशासन का संबल बनाना है, तो सरकार को अपनी दृष्टि गैरराजनीतिक करनी होगी। क्या धर्मशाला के नागरिक समाज से सरकार शीघ्रता से पूछेगी या जंजैहली संघर्ष का मार्ग ही प्रशस्त होगा। पिछली अनेक सरकारों के गलत फैसलों का दोष भले ही जयराम सरकार पर नहीं मढ़ा जा सकता, लेकिन आगे बढ़ने के लिए यह जरूरी है कि पिछले रास्तों को भी जोड़ा जाए। जंजैहली के आंसू पोंछने की नैतिक सफलता के साथ यह भी देखना होगा कि मसलों के कितने आंसू कहां-कहां बह रहे हैं। पौंग और भाखड़ा के जलाशयों को लबालब करने में जो आंसू भरे गए, वे आज भी जंजैहली जैसा सौहार्द चाहते हैं। ऐसे में सुशासन के लिए यह जरूरी होगा कि जीत के जश्न में विधायक यह न भूलें कि जनता ही सर्वोच्च अदालत है।


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