अब यह मोदी की भाजपा है!

By: Apr 16th, 2018 12:08 am

कुलदीप नैयर

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय जनता पार्टी में अब सर्वेसर्वा बन गए हैं। उन्होंने अपने नजदीकी साथी अमित शाह को पार्टी के अध्यक्ष पद पर प्रतिस्थापित कर दिया है। लेकिन चार साल के शासन के बाद भी यह पता नहीं चल पा रहा है कि वह देश को किस दिशा में ले जा रहे हैं। उनके काल में हिंदुत्व का संशोधित रूप पूरे देश में उभर रहा है, हालांकि दक्षिण के राज्यों में इसका प्रभाव नहीं दिख रहा है। अब हिंदी को लेकर नेहरू के शासनकाल जैसा विवाद हो गया है। देखना यह है कि मोदी इससे किस तरह निपेटेंगे, जबकि हिंदी भाषी राज्यों में भाजपा सत्तारूढ़ है…

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारतीय जनता पार्टी में अब सर्वेसर्वा बन गए हैं। उन्होंने अपने नजदीकी साथी अमित शाह को पार्टी के अध्यक्ष पद पर प्रतिस्थापित कर दिया है। हालांकि लोगों की याददाश्त छोटी है। संस्थापक अटल बिहारी वाजपेयी थे, जिन्होंने बाद में सात दलों के गठजोड़ से बने एनडीए अर्थात राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का नेतृत्व करते हुए प्रधानमंत्री के पद पर अधिकार जमा लिया। गांधीवादी समाजवादी जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व के समय कांग्रेस का चमत्कार खत्म हो गया। उस समय देश में इतना सशक्त आंदोलन चला कि सभी गैर कांग्रेसी दल एक मंच पर इकट्ठे हो गए। पुराने ेजनसंघ के सदस्यों ने विशेष रूप से राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ से संपर्क स्थापित कर लिया। इसका मतलब था कि हिंदुत्व की विचारधारा पार्टी के सांप्रदायिक एजेंडे को परिभाषित करती रहेगी। जेपी का पंथनिरपेक्षतावादी लबादा हिंदू समर्थक जनसंघ के अनुकूल नहीं था। उस समय पार्टी को जनसंघ कहा गया। यह जेपी थे जिन्होंने इसे उस विपक्षी गठबंधन में शामिल करवा लिया जो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के एकछत्र राज से लड़ रहा था। जेपी इस बात को लेकर सचेत थे कि जनसंघ, आरएसएस का राजनीतिक संगठन था। लेकिन उन्हें ऐसा दायित्व सौंपा गया था जिसमें उन्हें संभल कर चलना था। जब जनता पार्टी अस्तित्व में आई तो जेपी ने जनसंघ के उन सदस्यों को लेकर हठ पकड़ लिया जो जनता पार्टी के संगठन व सरकार में मुख्य पदों पर थे।

आरएसएस से अलग होने के लिए ऐसा किया गया। जेपी जानते थे कि उन्होंने एक ऐसा वातावरण बना लिया था कि एक हिंदू ने महात्मा गांधी की हत्या कर दी थी। नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी के पांव छुए तथा उन्हें नजदीक से गोली मार दी। बाद में यह बात सामने आई कि इसके लिए बाकायदा योजना बनाई गई थी। इसके बाद आरएसएस पर पाबंदी लगा दी गई। संगठन के प्रमुख एमएस गोलवलकर को गिरफ्तार कर लिया गया था। लेकिन एक साल बाद उन्हें इस आश्वासन पर रिहा कर दिया गया कि आरएसएस चुनावी राजनीति में प्रवेश नहीं करेगा। यह अलग मामला है कि उन्होंने इस तथ्य को छिपा लिया कि वे ही गाइडिंग फोर्स हैं। आज यह संगठन राज्य विधानसभा चुनावों के लिए भाजपा उम्मीदवारों का चयन करता है। लोकसभा चुनाव में भी ऐसी ही प्रवृत्ति देखने को मिलती है। जनसंघ के नेताओं को वादे पर अच्छा बनने संबंधी जेपी का रिमाइंडर कोई प्रभाव नहीं डाल पाया। वे कैसे बन सकते थे जबकि जनसंघ स्वयं आरएसएस की रचना थी। उनका स्वीकृत लक्ष्य हिंदू राष्ट्र की रचना करना था। आरंभ में जनसंघ के सदस्यों ने जेपी को यह व्याख्या की कि आरएसएस वह नहीं है जो यह बना है। जब यह संगठन ताकत के साथ उभर कर सामने आया तो उन्होंने आरएसएस से संबंध तोड़ने से इनकार कर दिया। जेपी को महसूस हुआ कि उनके साथ धोखा हुआ है। लेकिन तब तक वह इतने कमजोर हो चुके थे कि जनता के बीच जाकर जनसंघ की कलई खोलने की उनकी हिम्मत नहीं रह गई थी।

उन्होंने यह सार्वजनिक किया कि उनका विश्वास तोड़ा गया है, किंतु वह अपनी बीमारी की वजह से निस्सहाय हो गए थे। जब जनता पार्टी ने सदस्यता के मसले को उठाया तो जनसंघ के सदस्यों ने बहिर्गमन को प्राथमिकता दी। वास्तविकता यह है कि उस समय तक उन्होंने इतनी विश्वसनीयता हासिल कर ली थी जितनी जनसंघ (अब भाजपा) ने गांधी जी की हत्या के कुछ दशकों बाद भी हासिल नहीं की थी। वे दो साल तक जनता पार्टी संगठन तथा केंद्रीय मंत्रिमंडल में रहे, जिसने काफी हद तक भाजपा की मदद की। एक ओर नए सदस्यों का केसरियाकरण हुआ, दूसरी ओर उन्होंने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय जैसे महत्त्वपूर्ण मंत्रालयों के लिए पदाधिकारियों का चयन किया। आज लगता है कि आरएसएस का दैनिक प्रशासन में भी हस्तक्षेप है। भाजपा ने भी समय आने पर सकारात्मक मुद्रा धारण कर ली जिसने हिंदू बुद्धिजीवियों को उलझा कर रख दिया। जब अटल बिहारी वाजपेयी उभर कर सामने आए तो उन्होंने संतुलित रुख अपनाया। अयोध्या बनाम बाबरी मस्जिद मामले से वह बखूबी निपटे तथा भाजपा, जिसकी कभी लोकसभा में दहाई के आंकड़े से भी कम सीटें थीं, उसे 1998 में 181 सीटें मिल गईं। इसके बाद जेपी के निकट साथियों ने एनडीए में ड्राइविंग सीट पर रहने के लिए भाजपा से हाथ मिलाने का तरीका ढूंढ लिया। लेकिन तब यह प्रमाणित हो गया कि भाजपा अपने आधार को बढ़ाने के मामले में निराश थी। उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने राजनीतिक भाजपा व सर्वसत्तावादी आरएसएस में दूरियां कम कर दीं। उन्होंने हिंदुओं को जोड़ने के लिए काफी कुछ किया। सबसे खतरनाक कारनामा उनकी रथ यात्रा थी, जो उत्तर भारत से गुजरी। इस यात्रा ने सदियों से साथ-साथ रहे हिंदू-मुसलमानों को आपस में बांट दिया। इस यात्रा के परिणाम से आडवाणी काफी खुश थे। उनकी यात्रा की तुलना गांधी जी के दांडी मार्च से की गई। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर वक्त यह एहसास दिला रहे हैं कि वह पार्टी से भी ऊपर हैं।

चार साल के शासन के बाद भी यह पता नहीं चल पा रहा है कि वह देश को किस दिशा में ले जा रहे हैं। उनके काल में हिंदुत्व का संशोधित रूप पूरे देश में उभर रहा है, हालांकि दक्षिण के राज्यों में इसका प्रभाव नहीं दिख रहा है। अंत में यह कहना चाहूंगा कि हिंदी की इंट्रोडक्शन उसी तरह की समस्या खड़ी कर रही है जिस तरह नेहरू के अंतिम दिनों में हुआ था। उस समय नेहरू के उत्तराधिकारी लाल बहादुर शास्त्री को संसद में यह आश्वासन देना पड़ा था कि गैर हिंदी भाषी लोगों पर जबरन हिंदी नहीं लादी जाएगी। अब देखना यह है कि वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भाषायी मसले पर किस तरह निपटते हैं, खासकर उस स्थिति में जबकि हिंदी भाषी राज्यों में उनके दल की पैठ है।

ई-मेल : kuldipnayar09@gmail.com

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