अर्थव्यवस्था की विरोधाभासी चाल

By: Apr 24th, 2018 12:05 am

डा. भरत झुनझुनवाला

लेखक, आर्थिक विश्लेषक  एवं टिप्पणीकार हैं

गहराई से पड़ताल करने पर पता लगता है कि देश में आने वाला विदेशी निवेश संकटग्रस्त घरेलू कंपनियों को खरीदने के लिए अधिक और नए निवेश करने के लिए कम आ रहा है। जैसे यदि मान लीजिए भारत की कोई कंपनी संकट में है, तो विदेशी निवेशक उसको कम दाम में खरीद लेते हैं। ऐसा समझें कि परिवार संकट में है। परिवार के लोग बीमार हैं। उन्हें देखने के लिए कई डाक्टर टैक्सी से आ रहे हैं, तो दूर से ऐसा दिखेगा कि परिवार में बड़ी चहल-पहल है और इसे कोई शुभ संकेत भी मान सकता है, इस प्रकार की परिस्थिति है…

इस समय अर्थव्यवस्था में दो प्रकार के विपरीत संकेत मिल रहे हैं, तीन शुभ संकेत हैं। पहला शुभ संकेत है कि जीडीपी यानी सकल घरेलू उत्पाद यानी देश की आय की विकास दर पुनः पटरी पर आ रही है। बीते समय में यह 6 प्रतिशत से नीचे चली गई थी, जो अब पुनः 6 से 7 प्रतिशत के बीच में पुरानी चाल पर आ गई है। दूसरा शुभ संकेत है कि वर्ष 2016-17 में 60 अरब डालर सीधा विदेशी निवेश भारत में आया था, जो ऐतिहासिक अधिकतम है, जिससे संकेत मिलता है कि विदेशी निवेशकों को भारतीय अर्थव्यवस्था पर भरोसा बन रहा है। तीसरा शुभ संकेत है कि डालर के सामने रुपया 65 रुपए प्रति डालर के इर्द-गिर्द टिका हुआ है। इसके विपरीत तीन ऐसे संकेत भी मिलते हैं, जो अर्थव्यवस्था की खस्ता हालत को बयान करते हैं। पहला संकेत है कि बैंकों द्वारा दिए जाने वाले लोन में वर्ष 2016-17 में मात्र 5.1 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी, जो पिछले 60 वर्षों की न्यूनतम वृद्धि है। यानी हर वर्ष बैंकों द्वारा दिए गए लोन में जो बढ़त होती है, वह इस समय गिर रही है। खस्ता हालत का दूसरा संकेत है कि संगठित क्षेत्र में रोजगार उत्पन्न होने में भारी गिरावट आई है। वर्ष 2011 तक अर्थव्यवस्था में आठ लाख रोजगार प्रति वर्ष बन रहे थे, जो वर्तमान में दो लाख पर आ टिका है। खस्ता हालत का तीसरा संकेत है कि बैंकों द्वारा दिए गए ऋण में नॉन परफार्मिंग एसेट यानी खटाई में पड़े ऋण की मात्रा लगातार बढ़ रही है। इन दोनों विरोधाभासी संकेतों को समझने के लिए हम प्रयास करेंगे। मेरे आकलन में अर्थव्यवस्था में मूलतः मंदी छाई हुई है। प्रमाण यह है कि बैंकों द्वारा दिए जा रहे लोन में गिरावट आई है, रोजगार सृजन में गिरावट आई है तथा बैंकों के नॉन परफार्मिंग एसेट बढ़ रहे हैं।

मैंने देश के कुछ बड़े उद्यमियों से बात की तो उनमें मैंने निराशा की झलक पाई है। जैसे एयरटेल कंपनी के मालिक सुनील भारती मित्तल ने एक सार्वजनिक समारोह में कहा कि विदेशी निवेशक 60 अरब डालर सीधा विदेशी निवेश भारत में हर वर्ष ला रहे हैं, यह दिखाता है कि वे भारत को निवेश का एक अच्छा स्थान मान रहे हैं। फिर उन्होंने कहा ः तब भारतीय उद्यमियों में उत्साह क्यों नहीं है, यह हमें पूछने की जरूरत है! इसका अर्थ यह हुआ कि कहीं न कहीं जो विदेशी निवेश आ रहा है, उसमें कुछ समस्या है। गहराई से पड़ताल करने पर पता लगता है कि देश में आने वाला विदेशी निवेश संकटग्रस्त घरेलू कंपनियों को खरीदने के लिए अधिक और नए निवेश करने के लिए कम आ रहा है। जैसे यदि मान लीजिए भारत की कोई कंपनी संकट में है, तो विदेशी निवेशक उसको कम दाम में खरीद लेते हैं और इसके लिए वे विदेशी निवेश ला रहे हैं। वे इसलिए विदेशी निवेश नहीं ला रहे हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था में तेजी है और यहां आने वाले समय में माल की बिक्री बढ़ेगी और कारोबार करने का अवसर बढ़ेगा। बल्कि जैसे अस्पताल में भर्ती परिजन को देखने के लिए लोग यात्रा करते हैं, उसी तरह विदेशी निवेश आ रहा है। इसलिए नहीं कि परिवार के लोग पर्यटन के लिए आए हैं और उनसे मिलने जाएं। दी वायर नामक न्यूज पोर्टल के अनुसार अमरीकी कंपनी अपोलो ग्लोबल मैनेजमेंट और दूसरी कनेडियन कंपनियों ने विशेष फंड बनाए हैं, जो कि भारत की संकटग्रस्त कंपनियों को खरीदने में निवेश कर रही हैं।

एक और संकेत इस बात से मिल रहा है कि वर्ष 2015 में देश में आने वाले विदेशी निवेश का केवल 25 प्रतिशत वर्तमान कंपनियों को खरीदने में लगा था। वर्ष 2016 में यह हिस्सा बढ़कर 45 प्रतिशत हो गया। यानी विदेशी निवेश नई कंपनियों को स्थापित करने में कम और पुरानी कंपनियों को खरीदने में ज्यादा आ रहा है। दूसरा कथित सकारात्मक संकेत सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि का था। यह बात सही है कि जीडीपी की ग्रोथ रेट 6 प्रतिशत से बढ़कर वर्तमान में 7 प्रतिशत के करीब पुनः आ गई है। लेकिन यह प्रसन्न होने की बात नहीं है।

वर्तमान सरकार ईमानदार है। बुनियादी संरचना में निवेश तेजी से हुआ है। अतः देश की ग्रोथ रेट को बीते समय के 7 प्रतिशत से बढ़कर वर्तमान में 9, 10 या 12 प्रतिशत होना चाहिए था। सरकार की कार्यकुशलता के कारण अर्थव्यवस्था में जो तेजी आनी थी, वह तेजी नहीं आई है। यही संकट है। सरकार की कार्यकुशलता के कारण जो सुधार होना था, वह सरकार की ही दूसरी नकारात्मक पालिसियों के कारण कट गया है। इन नकारात्मक पालिसियों  मे मैं नोटबंदी ओर जीएसटी को गिनता हूं।

अतः ग्रोथ रेट का पुनः 6 से 7 प्रतिशत पर आ जाना वास्तव में डफली बजाने वाली बात नहीं है। इसको मंदी के बने रहने के रूप में देखा जाना चाहिए। तीसरा कथित सकारात्मक बिंदु रुपए के मूल्य का टिका रहना है। इसका कारण यह है कि हमारे निर्यात दबाव में हैं और निर्यातों से डालर हम कम मात्रा में अर्जित कर रहे हैं। परंतु हमारी संकटग्रस्त कंपनियों को खरीदने के लिए विदेशी निवेश ज्यादा मात्रा में आ रहा है और डालरों की उस आवक के कारण हमारा बाहरी मुद्रा खाता बराबर हो गया है। ऐसा समझें कि परिवार संकट में है। परिवार के लोग बीमार हैं। उन्हें देखने के लिए कई डाक्टर टैक्सी से आ रहे हैं, तो दूर से ऐसा दिखेगा कि परिवार में बड़ी चहल-पहल है और इसे कोई शुभ संकेत भी मान सकता है, इस प्रकार की परिस्थिति है।

सारांश यह है कि मूल रूप से देश की अर्थव्यवस्था संकट में है। ग्रोथ रेट न्यून है और सरकार की ईमानदारी का दोहरा प्रभाव पड़ रहा है। एक तरफ  सड़क आदि बनाने में प्रगति हुई है, तो दूसरी तरफ  आधार, जीएसटी और नोटबंदी ने उन शुभ प्रभावों को काट दिया है। लेकिन अर्थव्यवस्था का यह संकट पूरी तरह दिख नहीं रहा है, क्योंकि संकटग्रस्त कंपनियों को खरीदने के लिए विदेशी निवेशक भारी मात्रा में आ रहे हैं, जिससे कि हमारा रुपए का मूल्य टिका हुआ है। हमें गलत एहसास हो रहा है कि अर्थव्यवस्था में सब कुछ ठीक है, जबकि अर्थव्यवस्था मूल रूप से गड़बड़ दिशा में चल रही है।

ई-मेल : bharatjj@gmail.com

 

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