अष्टदल में निहित है अष्टार वासना

By: Apr 28th, 2018 12:05 am

बिंदुचक्र शिव की मूल प्रकृति होने से प्रकृति-स्वरूप है, शेष आठ चक्र प्रकृति-विकृति उभयात्मक है। बिंदु, त्रिकोण, अष्टार और अष्टदल आग्नेय खंड प्रमातृपुर है। दशारद्वय और चतुरस्त्र रूप सौर-खंड प्रमाणपुर है तथा चतुर्दशार एवं षोडशदल व चांद्रखंड प्रमेयपुर हैं। इस प्रकार श्रीचक्र माता, मान व मेयात्मक एवं सोम-सूर्यानलतात्मक है। जब परा-महेश्वरी चक्राकार में परिणत हो जाती है, तब उसके शरीर के अवयव आवरण देवताओं के रूप में परिणत हो जाते हैं। पराशक्ति की विद्याकला श्रीचक्ररूपिणी है…

-गतांक से आगे…

इसे लिंग शरीर कहते हैं, जिसे जीवात्मा कहते हैं, जिसका वाचक मैं है। हृदयेश दहराकाश में अंगुष्ठ-प्रमाण था अणु परमाणुमय लिंग शरीर है) का कारण शरीर है। अंतर्दशार इंद्रिय-वासना अथवा लिंग शरीर है। बहिर्दशार इंद्रिय विषय, तन्मात्रा तथा पंचभूत (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी) है। चतुर्दशार जागृत स्थूल शरीर है। अष्टदल में अष्टार वासना तथा षोडशदल में दशारद्वय वासना है। भूपुर में पशुपद की प्रकृति-मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार तथा शिवपद की प्रकृति शुद्धविद्यादि-तत्त्व, चतुष्टय का सामरस्य है। बिंदु, त्रिकोण, अष्टार सृष्टिचक्र है। दशारद्वय और चतुर्दशार स्थितिचक्र है तथा अष्टदल और षोडशदल तथा भूपुर संहारचक्र हैं। बिंदु से लेकर भूपुर तक सृष्टिक्रम है और भूपुर से लेकर बिंदु तक संहारक्रम है। इस प्रकार श्रीयंत्र सृष्टि-स्थिति-प्रलयात्मक है। चक्रराज में प्रतिष्ठित मूलशक्ति चराचर जगत का लालन-पालन और शासन करती है। बिंदुचक्र शिव की मूल प्रकृति होने से प्रकृति-स्वरूप है, शेष आठ चक्र प्रकृति-विकृति उभयात्मक है। बिंदु, त्रिकोण, अष्टार और अष्टदल आग्नेय खंड प्रमातृपुर है। दशारद्वय और चतुरस्त्र रूप सौर-खंड प्रमाणपुर है तथा चतुर्दशार एवं षोडशदल व चांद्रखंड प्रमेयपुर हैं। इस प्रकार श्रीचक्र माता, मान व मेयात्मक एवं सोम-सूर्यानलतात्मक है। जब परा-महेश्वरी चक्राकार में परिणत हो जाती है, तब उसके शरीर के अवयव आवरण देवताओं के रूप में परिणत हो जाते हैं। पराशक्ति की विद्याकला श्रीचक्ररूपिणी है।

सेयं परामहेशी चक्राकारेण परिणमेत यदा

तद्देहाववयवानां परिणतिरावरणदेवताः सर्वाः।

तथा- कला विद्या पराशक्तेः श्रीचक्राकार रूपिणी।

ऐसा माना जाता है कि जब उस विश्वशक्ति में इच्छा का स्फुरण हुआ तो पराशक्ति श्रीयंत्राकार हो गई-

यदा सा परमा शक्तिः स्वेच्छया विश्वरूपिणी।

स्फुरतामात्मनः पश्येत्तदा चक्रश्य संभवः।।

भगवती को श्रीललितासहस्रनाम में चक्रराज-निकेतना, चक्रराजरथारूढ़ा, त्रिकोणांतर दीपिका, श्रीकंठार्धशरीरिणी, बिंदुतर्पणसंतुष्टा, त्रिकोणगा, श्रीचक्रराजनिलया या योनिनिलया कहा गया है। भगवान श्री शंकराचार्य ने श्रीचक्र के तैंतालीस शरणकोणों के परिणमन का उल्लेख किया है।

चतुर्भि श्रीकंठैः शिवयुवतिभिः पंचभिरपि

प्रभिन्नाभिः शंभोर्नवभिरपि मूलप्रकृतिभिः।

त्रयश्चत्वारिंशद् वसुदल कलाश्र वलय

त्त्रिरेखाभिः सार्धं तव शरणकोणा परिणताः।।       

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