आठवीं अनुसूची की दौड़ में ‘हिमाचली भाषा’एक कदम और चली

By: Apr 1st, 2018 12:06 am

भाषा किसी भी व्यक्ति एवं समाज की पहचान का एक प्रमुख घटक तथा उसकी संस्कृति की सजीव संवाहिका होती है। देश में प्रचलित भाषाएं, बोलियां ही हमारी संस्कृति, उत्कृष्ट ज्ञान, परंपराओं व साहित्य को अक्षुण्ण बनाए रखती हैं। भिन्न-भिन्न भाषाओं में उपलब्ध लिखित साहित्य की अपेक्षा कई गुणा ज्ञान लोकगीतों, लोक कथाओं, मुहावरों व लोकोक्तियों की परंपरा में आता है। लेकिन दुख की बात है विविध भाषाओं व बोलियों के चलन तथा उपयोग में आ रही कमी, उनके शब्दों का विलोपन व विदेशी भाषाओं के शब्दों से प्रतिस्थापन भाषाओं व बोलियों के लिए एक गंभीर चुनौती बन गई है। भले ही लोगों को समाज, शिक्षा, व्यवसाय और तकनीकी संसार से जुड़ी विभिन्न भाषाओं के साथ जीने का आदी बना दिया गया है, पर हमारे अवचेतन की भाषा एक ही होती है जिसे हम मातृ भाषा कहते हैं। अफसोस की बात है कि आज भारत में अनेक बोलियां व भाषाएं विलुप्त होने के कगार पर हैं क्योंकि भाषाओं को लेकर अभी भी अस्पष्ट नीतियां हैं। कुछ भाषाओं को अनुसूचीबद्ध कर लिया गया है और कुछ को छोड़ दिया गया है। इन बोलियों और भाषाओं के लिए जन आंदोलन व आक्रोशों का सहारा लेना पड़ रहा है। ‘हिमाचली भाषा’ को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की वकालत करने से पहले यह समझना आवश्यक है कि ‘भाषा’ और ‘बोली’ में अंतर क्या है? भाषा वह साधन है जिसके द्वारा हम अपने विचारों को व्यक्त करते हैं और इसके लिए वाचिक ध्वनियों का उपयोग करते हैं। किसी भी भाषा में बीसियों बोलियां व उपबोलियां होती हैं जो हर दस-बीस किलोमीटर की दूरी पर बदल जाती हैं। एक प्रचलित कहावत है-चार कोस पर पानी बदले, आठ कोस पर बानी। बोली किसी भी भाषा का क्षेत्रीय रूप होती है। ‘बोली’ का क्षेत्र भाषा की अपेक्षा सीमित होता है। सबसे मुख्य बात किसी भी भाषा के निर्माण के लिए व्याकरण की अत्यधिक आवश्यकता होती है। भाषा के लिए व्याकरण वह रीढ़ की हड्डी है जिसके बिना भाषा खड़ी नहीं हो सकती, पर बोली के साथ ऐसी बाध्यता नहीं। नाम से ही स्पष्ट हो जाता है कि लोग अपने विचार व्यक्त करने के लिए जो बोल रहे हैं, वह ‘बोली’ है। ‘बोली’ में लगभग वही व्याकरण होता है, जो भाषा में है, लेकिन क्षेत्र विशेष के कारण उच्चारण कुछ भिन्न हो जाता है। बोली के विकास से भाषा और उसका साहित्य समृद्ध होता है। इस तरह भाषा और बोली परस्पर सहयोग से ही आगे बढ़ती हैं। हिंदी की ही बात करें तो भारत और अन्य देशों में हिंदी करोड़ों लोगों द्वारा भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में बोली जाती है तो उसमें सैकड़ों बोलियों व उपबोलियों का होना स्वाभाविक है। यही हिंदी भाषा के धनवान होने का परिचायक है। ऐसे ही किसी भी राज्य की भाषा में दर्जनों बोलियों का होना उसकी समृद्धि का प्रतीक है। बात करते हैं हिमाचल प्रदेश की तो हिमाचल में अनेक बोलियां बोली जाती हैं। भिन्न भौगौलिक क्षेत्रों में बोले जाने पर भी हिमाचल के किसी भी क्षेत्र का नागरिक दूसरे क्षेत्र की बोली आसानी से समझ लेता है।

लेकिन दुख की बात है कि अभी तक न तो हमारी हिमाचल की कोई भाषा बोलियों से मिलकर गठित हुई है और न ही कोई भी बोली रजिस्टर्ड है। इससे हिमाचल के साहित्यकारों व फिल्मकारों को भाषा से मिलने वाले लाभ से वंचित रहना पड़ रहा है। लाभ से बढ़कर अपनी बोलियों को संरक्षित करना पहले स्थान पर आता है। इससे हमारे प्रदेश की संस्कृति समृद्ध होगी। बोलियों को संरक्षित करने के लिए हिमाचली भाषा का आठवीं अनुसूची में शामिल होना अति आवश्यक है। यही नहीं, हमारी भाषा अनुसूचीबद्ध न होने से हमारी बोलियों पर भी संकट की स्थिति आ सकती है। हालांकि हिमाचली भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए पहले भी कई बार स्वर उभरे हैं, लेकिन हाल में इस दिशा में एक और प्रयास हुआ। इस वर्ष 4 मार्च को हिमाचल के फिल्मकारों व साहित्यकारों को भाषा के आठवीं अनुसूची में न होने के कारण आई कठिनाइयों को लेकर मौजूदा सरकार के समक्ष आवाज उठाई गई। सरकार ने त्वरित गति से भाषा एवं संस्कृति अकादमी तथा विभाग को ‘हिमाचली भाषा’ को रजिस्टर्ड करने के लिए प्रारंभिक कार्यशाला के आयोजन व हिमाचली फिल्मों का आकलन करने के लिए हिमाचली फिल्मों को दिखाने के निर्देश दिए। इस पर तुरंत कार्रवाई करते हुए दोनों विभागों ने कमेटियों का गठन किया। पर हैरत के साथ लिख रही हूं कि हिमाचली बोलियों के लिए बनाई गई कमेटी में एक भी महिला का नाम शुमार नहीं किया गया जबकि महिला अपनी बोली को अपने बच्चे तक पहुंचाने वाली प्रथम व्यक्ति होती है। खैर भाषा संस्कृति विभाग व अकादमी ने हिमाचल के सभी साहित्यकारों, आकाशवाणी, दूरदर्शन, सिनेमा से जुड़े कलाकारों के साथ सात दिन की कार्यशाला करके हिमाचली भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए मंथन किया है जिसके सुपरिणाम शीघ्र देखने को मिलेंगे। प्रश्न यह भी उठता है कि हिमाचल में इतनी ज्यादा बोलियां बोली जाती हैं तो ‘हिमाचली भाषा’ का स्वरूप क्या होगा, कैसे निकलकर आएगा व उसकी लिपि क्या होगी? पर यह काम इतना मुश्किल नहीं है। कुछ तो मेहनत सभी भाषाविदों व विभाग को करनी ही होगी, तभी तो बात आगे बढ़ेगी। लिपि की अगर बात करते हैं तो प्राचीन हिमाचल में लिपियां भी बहुत रही हैं जिसमें टांकरी लिपि का नाम सबसे ज्यादा आता है। पर इस लिपि को लिखने व समझने वाले लोग बहुत कम रह गए हैं। हां, टांकरी लिपि को संरक्षित करने का कार्य तो अवश्य किया जाना चाहिए लेकिन हिमाचली भाषा को व्यापकता देने के लिए देवनागरी लिपि अत्यधिक लाभकारी होगी। वैसे अपनी लिपि इजाद करना भी कोई बड़ी बात नहीं। जब नेत्रहीनों के लिए एक ‘लुई ब्रेल’ नामक नेत्रहीन व्यक्ति ब्रेल लिपि बना सकते हैं तो हम सब एकजुट होकर क्यों नहीं। आज तक हिमाचल में बोलियों के संरक्षण के लिए आकाशवाणी शिमला के प्रयास सराहनीय रहे हैं, इसके साथ एक लंबे अरसे से कुछ पत्रिकाएं व साप्ताहिक पत्र भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। वर्तमान में दिव्य हिमाचल की हमारी बोलियों के प्रश्न में भागीदारी चल रही है। और सबसे सुखद प्रयास भाषा अकादमी द्वारा पहाड़ी बोलियों के शब्दकोश का है जो कि हमारी विलुप्त होती बोलियों को संरक्षित रखने में अहम भ्ूमिका निभाएगा। अब मौजूदा प्रदेश सरकार भाषा व संस्कृति विभाग तथा हिमाचल अकादमी के साथ मिलकर हिमाचली भाषा को अनुसूचीबद्ध करने में प्रयासरत हुई है।

-कंचन शर्मा, शिमला


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