आत्म पुराण

By: Apr 21st, 2018 12:05 am

समाधान– हे जनक! जैसे महाराजा अपनी पुरी को छोड़कर किसी दूसरे नगर को जाने की इच्छा करता है, तभी महाराजा के अभिप्राय को समझकर रक्षक तथा अन्य सेवक साथ जाते हैं। इसी प्रकार जब यह जीवात्मा रूपी महाराजा इस स्थूल शरीर रूपी पुरी को छोड़कर परलोक जाने की इच्छा करता है, तब वाक आदि दस इंद्रिय, पंच प्राण तथा अंतकरण यह सब उस महाराजा के साथ जाते हैं।अब साधनों सहित संसार और मोक्ष की अवस्था का संक्षेप में निरूपण किया जाता है। हे जनक? जब मृत्युकाल में अत्यंत निर्बल होकर यह जीवात्मा वाक आदि किसी इंद्रिय को नहीं जानता तब यह उन सब इंद्रियों सहित हृदय-आकाश में पहुंच जाता है। हे जनक! जैसे सुषुप्ति अवस्था में यह जीवात्मा वाक आदि इंद्रियों को लेकर हृदय-देश में माया  विशिष्ट परमात्मा के साथ अभेद भाव को प्राप्त होता है, वैसे ही मरण काल में भी यह सब इंद्रियों को ग्रहण करके परमात्मा के साथ अभेद को प्राप्त हो जाता है। उस समय यह जीवात्मा सब इंद्रियों के व्यापार से रहित हो जाता है। यह बात केवल शास्त्रों में ही नहीं कही गई है, किंतु सभी सांसारिक मनुष्य भी इसी प्रकार का कथन करते हैं। जब किसी पुरुष का जीवन समाप्त होने लगता है, उस समय उसके पुत्र, भाई-बंधु, स्त्री आदि सब उसे भूमि पर शयन कराके आपस में इस प्रकार बातें करने लगते हैं कि अब यह हमारा पिता हम लोगों की तरफ देखता भी नहीं। यह हमारे वचनों को नहीं सुनता, अपने गले में पड़ी पुष्प माला की गंध भी उसे मालूम नहीं पड़ती। यह अपने मुख से दधि के रस को भी ग्रहण नहीं कर सकता, हमसे बोलता भी नहीं और न हमारा स्पर्श करता है। इससे विदित होता है कि हमारा पिता मन तथा बुद्धि द्वारा किसी पदार्थ को जानता नहीं। अब इसकी वाक  आदि सब इंद्रियां इकट्ठी होकर हृदय देश में पहुंच गई हैं। हे जनक! इस प्रकार यह जीवात्मा यद्यपि सभी विशेष ज्ञानों से वंचित हो जाता है, पर परलोक गमन के लिए जो ज्ञान आवश्यक होता है, वह उसे बना रहता है। जैसे कोई महाराजा अपने नगर को छोड़कर किसी दूसरे नगर को जाने का आयोजन करता है, तो उसके चलने के राजमार्ग पर नाना प्रकार के दीपक जलाए जाते हैं, वैसे ही जीवात्मा के परलोक प्रयाण के अवसर पर चिताभास वृत्ति रूपी दीपक मार्ग को प्रकाशित कर देता है। इसके अनंतर यह जीवात्मा अपनी पुरी के 11 मार्गों से बाहर निकलती है। वे 11 मार्ग ये हैं दो चक्षु, दो श्रोत्र, दो नासिका, उर्द्धद्वार, मुख, नाभि, उपस्य, पायु। इस 11 दरवाजों में से किसी एक से निकल कर यह जीवात्मा जिन स्थानों को प्राप्त होती है, उनका वर्णन करते हैं। जब यह वायु मार्ग से निकलती है, तो यह नरक को प्राप्त होती है। जब उपस्थ से निकलती है, तो अत्यंत कपोतादिक योनियों में जाती है। नाभि से निकलने पर प्रेत की ओर मुख से निकलने पर अन्न में आसक्त प्राणियों का जन्म प्राप्त होता। जब नाक से निकलती है, तो गंध में आसक्त प्राणियों का शरीर, कान से निकलने पर गंधर्व लोक और नेत्र से निकलने पर सूर्य-चंद्रलोक आदि की प्राप्ति होती है। जब यह ऊर्द्धद्वार से निकलती है, तो ब्रह्म लोक को जाती है। इस प्रकार अपने पुण्य-पाप कर्मों के अनुसार यह उसी प्रकार के मार्ग से निकल श्रेष्ठ या निकृष्ट गति को प्राप्त होती है। हे जनक! बुद्धि रूप ज्ञान शक्ति वाली यह जीवात्मा पुरुष जब स्थूल शरीर के बाहर निकलता है, उसी समय वाक आदि इंद्रियां भी उस प्राण के साथ बाहर चली आती हैं। हे जनक! जैसे सुषुप्ति अवस्था में यह जीवात्मा हृदय में परामात्मा के साथ तादात्म्य को प्राप्त होकर समस्त ज्ञान से रहित हो जाता है, वैसे ही मरणकाल में भी यह परमात्मा से तादात्म्य होकर सर्व ज्ञान से रहित हो जाता है।

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