आत्म शक्ति सबसे बड़ी

By: Apr 28th, 2018 12:05 am

श्रीराम शर्मा

आत्म शक्ति संसार की सबसे बड़ी शक्ति है। भौतिक संपदा एवं सामर्थ्य के सहारे मनुष्य को भाव निर्वाह तथा सुविधा की साधन सामग्री प्राप्त होती है, जबकि आत्म शक्ति प्रसुप्त चेतना को जगाती, अतींद्रिय क्षमताओं को उभारती तथा मनुष्य में देवत्व का उदय-उद्भव कर दिखाती है। महामानव, ऋषि एवं देवदूत बनने का अवसर नर-पशुओं को इसी आधार पर उपलब्ध होता है। अपना और दूसरों का भला करने की एक सीमित सामर्थ्य ही बुद्धि वैभव में पाई जाती है, किंतु आत्मबल के सहारे ऊंचा उठने, आगे बढ़ने की ऐसी प्रखरता प्राप्त की जा सकती है, जिसके सहारे अपना ही नहीं अन्य असंख्यों का भी उत्थान, अभ्युदय संभव हो सके। शरीर और प्राण के मध्य जो अंतर है वही भौतिक संपदाओं और आत्मिक विभूतियों के बीच पाया जाता है। साधन संपन्न सुख भोगते है, किंतु आत्मबल से समर्थ व्यक्ति इसी जीवन में स्वर्ग मुक्ति का परमानंद प्राप्त करता और परब्रह्म के साथ तादात्म्यता का जीवन लक्ष्य प्राप्त करता है। आत्म शक्ति प्राप्त करने के लिए जो साधना करनी पड़ती है उसके दो पक्ष हैं। योग भावना प्रधान है उसमें समर्पण स्तर की भाव श्रद्धा जगानी पड़ती है। भक्ति का, प्रेम का अभ्यास करना और स्वभाव बनाना पड़ता है। आदर्शों के प्रति समर्पित व्यक्तित्व को योगी कहते हैं जबकि मात्र कर्म-कांडों में ही निरत रहने वाले भाव शून्यों को अधिक से अधिक पुजारी की संज्ञा दी जा सकती है। उपचारों को तीर और योग एकात्म्य को धनुष कहते हैं। तीर उतनी ही दूर जाता, उतनी ही चोट करता है, जितना कि प्रत्यंचा का खिचाव उसे प्रेरणा देता है। धनुष के बिना तीर की कोई चमत्कृति नहीं, किंतु अकेला धनुष किसी छोटे से कंकड़ को फेंककर लगभग तीर लगने जैसा परिणाम उत्पन्न कर सकता है। उपचार का कोई महत्त्व नहीं, सो बात नहीं। लेखक को कलम, दर्जी को सूई, चित्रकार को तूलिका, वादक को वीणा जैसे उपकरणों का सहारा लेना पड़ता है। इतने पर भी उनकी अंतःचेतना का प्रखर प्रवीण होना आवश्यक है अन्यथा वे उपकरण हाथ में रहते हुए भी किसी सफलता का श्रेय प्रदान न कर सकेंगे। पूजा परक उपचारों के संबंध में भी यही बात है। वे अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं। उनकी उपेक्षा करने से काम नहीं चलेगा। बीज की महत्ता सर्वविदित है। उसके बिना न खेती होती है और न बागीचा लगता है। इतने पर भी मात्र बीज को ही सब कुछ मान बैठने वाले न फसल काट सकते हैं और न फल संपदा के सहारे धनवान बन सकते हैं। बीज बोने की तरह ही खाद पानी का प्रबंध करना भी आवश्यक हैं। बीज को उपासना उपचार कह सकते हैं, किंतु उसे लहलहाते पौधे का रूप देने के लिए भाव श्रद्धा का खाद पानी अनिवार्यतः चाहिए। अन्यथा बीज बोने में जो परिश्रम एवं धन खर्चा गया, वह भी बेकार चला जाएगा। साधना को सिद्धि के रूप में परिणित होते देखने के इच्छुक प्रत्येक विचारशील को जहां निर्धारित पूजा नियमित रूप से करने चाहिए वहां यह भी ध्यान रखना चाहिए कि इष्ट के लक्ष्य के प्रति श्रद्धा का क्रमिक विकास हो रहा है या नहीं। प्राण विहीन शरीर को लाश कहते हैं और आस्था रहित पूजा उपक्रम को विडंबना। दोनों को बाह्य स्वरूप तो सही दिखता है, पर आंतरिक खोखलेपन के कारण उनके सहारे किसी उपलब्धि की आशा नहीं की जा सकती। भाव श्रद्धा से रहित पूजा को परिश्रम से इतना ही लाभ हो सकता है कि वह समय किसी दुष्ट कर्म में न लगाकर सत्प्रयोजन के अभ्यास में व्यतीत हुआ।

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