ईश्वर की पूजा

By: Apr 28th, 2018 12:05 am

स्वामी विवेकानंद

गतांक से आगे… 

हिंदू ऐसा नहीं करता, वह ईश्वर को प्रेम स्वरूप देखता है, हिंदू धर्म ईश्वर के मातृत्व और पितृत्व, दोनों को मानता है, इसलिए कि मातृत्व में प्रेम की भावना की परिणति अधिक उन्मत्ता से होती है। पश्चिमी ईसाई पूरे सप्ताह भर डालर के लिए काम करता है और जब सफल होता है, तो प्रार्थना करता है, ‘हे ईश्वर, यह अभीष्ट देने के लिए हम तुझे धन्यवाद देते हैं और इसके बाद वह उस सब धन को अपनी जेब में डाल लेगा। हिंदू धनोपाजन करता है और उसे दरिद्र अथवा कम भाग्यशाली लोगों की सहायता के लिए ईश्वर को अर्पित कर देता है और इस प्रकार पश्चिम के विचारों और पूर्व के विचारों की तुलना की गई। ईश्वर की बात करते हुए विवेकानंद ने कहा, ‘तुम पश्चिम के लोग सोचते हो कि तुम्हारे पास ईश्वर है। ईश्वर पास होने से क्या हुआ? यदि वह तुम्हारे पास है, तो अपराध इतना व्यापक क्यों है कि दस व्यक्तियों में से नौ पाखंडी हैं। जहां ईश्वर है, वहां पाखंड नहीं रह सकता। तुम्हारे पास ईश्वर की पूजा के लिए महल हैं और तुम अंशतः सप्ताह में एक बार वहां जाते हो, पर बहुत कम लोग ईश्वर की उपासना करने के लिए जाते हैं। पश्चिम में चर्च जाना एक फैशन है और तुम में से बहुत से केवल इसी कारण वहां जाते हैं। तो ऐसी दशा में तुम पश्चिम के लोगों का यह दावा कि ईश्वर केवल हमारे ही पास है, कैसे उचित है?’

मुक्त करतल ध्वनि के कारण यहां वक्ता को रुकना पड़ा। उन्होंने फिर कहना आरंभ किया  ‘हम हिंदू धर्मावलंबी प्रेम के लिए ईश्वर की पूजा में विश्वास करते हैं, वह हमें जो देता है, उसके लिए नहीं, वरना इसलिए कि ईश्वर नहीं हो सकता, जब तक कि वह उसे प्रेम के कारण पूजने को तैयार न हो। तुम पश्चिम के लोग व्यवसाय में व्यावहारिक हैं। तुमने वाणिज्य को अपना व्यवसाय बनाया है और हमने धर्म को अपना व्यवसाय बनाया है। यदि तुम भारत आओ और खेत में काम करने वालों से बातें करो, तो तुम पाओगे कि राज्य शासन के बारे में उसकी कोई राय नहीं है। राजनीति का उसे कोई ज्ञान नहीं है। पर यदि तुम उससे धर्म के विषय में बात करोगे, तो पाओगे कि नीच से नीच व्यक्ति को भी एकेश्वरवाद, द्वैतवाद और धर्म के सब वादों का ज्ञान है। तुम पूछो केवल कुछ धर्मों को छोड़कर सगुण ईश्वर की कल्पना प्रायः सभी धर्मों में प्रचलित रही है। जैन और बौद्धों को छोड़कर संसार के सभी धर्मों ने सगुण परमेश्वर की कल्पना स्वीकार की है और उसी कल्पना से भक्ति और उपासना का उदय हुआ है। यद्यपि बौद्ध और जैन सगुण परमेश्वर को नहीं मानते, तथापि वे अपने धर्म संस्थापकों की ठीक वैसी ही पूजा करते हैं, जिस प्रकार इतर धर्मोंपासक सगुण ईश्वर की। किसी एक ऐसे उच्चतर व्यक्ति की पूजा और भक्ति, जो मनुष्य को उसके प्रेम का प्रतिदान प्रेम से दे सके, सर्वत्र दिखाई देती है। विभिन्न धर्मों में यह प्रेम और भक्ति भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में विभिन्न परिमाण से प्रकट होती आई है। निम्नतम अवस्था है ‘बाह्य उपचार’ अथवा कर्मकांड, इस अवस्था में सूक्ष्म कल्पनाओं की धारणा असंभव प्राय होती है। इसलिए वे निम्नतम भूमिका पर जाकर फिर स्थूल रूप में परिणत की जाती है। फलतः अनेक प्रकार के रूपाकारों तथा उनके साथ अनेक प्रतीकों का उदय होता है। विश्व के समस्त इतिहास से प्रकट होता है कि इन मूर्त विचारों तथा प्रतीकों द्वारा ही मनुष्य ने निर्गुण को ग्रहण करने का प्रयत्न किया है।

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