कठुआ-जज लोया में एक ही स्क्रिप्ट

By: Apr 21st, 2018 12:10 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

मुख्य मीडिया घरानों ने सभी को बताया कि ध्यान रखना चाहिए लड़की मुसलमान थी। उन्होंने लड़की का नाम भी बता दिया। अब मामला सीधा-साधा हिंदू  मुसलमान का बन सकता था। यह ठीक है कि उच्चतम न्यायालय ने इन मीडिया घरानों को दस-दस लाख रुपए का जुर्माना लगा दिया है, लेकिन इन मीडिया घरानों की सेहत पर क्या असर पड़ने वाला है। दस लाख रुपए उनके हाथ की मैल है। उन्होंने उन शक्तियों को जो उस मासूम बच्ची की हत्या पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकना चाहती थीं, करोड़ों रुपयों की पटकथा उपलब्ध करवा दी है…

कठुआ में दस साल की एक बच्ची की निर्मम हत्या कर दी गई। जम्मू-कश्मीर सरकार ने जांच का काम अपराध शाखा को सौंप दिया। यह अलग बात है कि कुछ लोगों का यह कहना है कि जिस अधिकारी को यह काम सौंपा गया, उस पर पहले ही बलात्कार के आरोप लगे हुए हैं। जांच शाखा अपना काम शुरू कर पाती, उससे पहले ही कुछ संगठित समूहों ने कहना शुरू कर दिया कि हत्या से पहले बच्ची से बलात्कार भी किया गया। अब समाचारपत्रों में यह भी छपा है कि पोस्टमार्टम की रपट में बलात्कार का जिक्र कहीं नहीं है और रपट भी एक नहीं, दो उपलब्ध करवाई गई हैं। लेकिन अब इन रपटों का कोई महत्त्व नहीं रहा, क्योंकि इस घिनौनी हत्या से जिन्होंने अपना उल्लू सीधा करना था, उनका काम पूरा हो गया। दिल्ली से लेकर लंदन तक कठुआ की टी शर्ट बांट दी गई हैं। मामला संयुक्त राष्ट्र संघ और ब्रिटेन की संसद तक पहुंच गया है। इस घिनौने हत्याकांड में केवल एक मुद्दा छूट रहा था। यह मामला हिंदू-मुसलमान का नहीं बन पा रहा था। सीधा हत्या का निंदनीय केस था, जिसके असली अपराधी पकड़े जाने थे, लेकिन इस मामले में मीडिया ने अपनी भूमिका निभा दी। सभी मुख्य मीडिया घरानों ने सभी को बताया कि ध्यान रखना चाहिए लड़की मुसलमान थी। इतने से ही शायद उनकी भूमिका पूरी नहीं हुई। उन्होंने लड़की का नाम भी बता दिया। अब मामला सीधा-साधा हिंदू -मुसलमान का बन सकता था। यह ठीक है कि उच्चतम न्यायालय ने इन मीडिया घरानों को दस-दस लाख रुपए का जुर्माना लगा दिया है, लेकिन इन मीडिया घरानों की सेहत पर क्या असर पड़ने वाला है। दस लाख रुपए उनके हाथ की मैल है।

उन्होंने उन शक्तियों को जो उस मासूम बच्ची की हत्या पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकना चाहती थीं, करोड़ों रुपयों की पटकथा उपलब्ध करवा दी है। खोजी पत्रकारों ने यह कहीं नहीं लिखा कि उस गांव के कुछ वजनदार लोग बकरवालों से वह जमीन खाली करवाना चाहते थे, जहां वे लंबे समय से रहते हैं। इस घटना से डर कर बकरवाल भाग जाएं और वह जमीन उनके कब्जे में आ जाएगी। जमीन वाली यह कथा उस इलाके में सुनी जा सकती है, लेकिन तब हत्या का यह मामला मीडिया की टीपीआर और लंदन में टी शर्ट वालों के किसी काम का न रह पाता। आशा की जानी चाहिए, इस बच्ची के हत्यारे पकड़े जाएंगे और उनको सजा मिलेगी। ऐसा ही किस्सा जज लोया का नजर आ रहा है। जज लोया की तीन साल पहले हृदयघात से मृत्यु हो गई थी। यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना एकांत में नहीं, बल्कि कुछ अन्य मित्रों के साथ गपशप करते हुई थी। जज लोया ने अमित शाह के किसी मामले में कभी एक निर्णय दिया था। यद्यपि इन दोनों घटनाओं में कोई सीधा संबंध दिखाई नहीं देता, लेकिन फिर भी कोई अच्छा पटकथा लेखक मिल जाए, तो कहानी हिट हो सकती है। क्योंकि जज ने कभी अमित शाह के खिलाफ निर्णय दिया था, इसलिए शाह ने जज की हत्या करवा दी।

यह कहानी चल सकती थी। अबकी बार भी एक मीडिया घराना ही काम आया। उसने यह पटकथा मार्केट में उतार दी, लेकिन जिनको इस उर्वरा कहानी से लाभ लेना था, उन्हें यह कहानी केवल 2019 तक ही नहीं चलानी थी, बल्कि निरंतर बहस में भी रखनी थी। उसके लिए व्यापक फलक की जरूरत थी। यह फलक न्यायपालिका ही हो सकती थी, लेकिन आखिर उच्चतम न्यायालय में केस जाए कैसे? उसका भी कोई आधार तो होना चाहिए। इसका एक रास्ता तो सदा खुला ही है, पब्लिक इंट्रेस्ट लिटिगेशन यानी ‘पीआईएल’। इस रास्ते से कोई भी उच्चतम न्यायालय में दाखिल हो सकता है। मामला भी सीधा था। जज लोया की मृत्यु की जांच के लिए एसआईटी का गठन किया जाए। एसआईटी यानी स्पेशल इन्वेस्टिगेशन टीम। यदि न्यायालय इस मांग को स्वीकार कर लेता है, तो मामला 2019 तक खिंच ही जाएगा। यदि अस्वीकार करता है, तो संदेह के बल पर भी चर्चा जारी रखी जा सकती है, लेकिन इसके लिए पहले संदेह पैदा किया जाना जरूरी है। कुछ दिन पहले उच्चतम न्यायालय में एक ऐतिहासिक धमाका हुआ था। न्यायालय के चार न्यायाधीश, जो डेंट आफ ज्वाइनिंग के आधार पर वरिष्ठ गिने जाते हैं, न्यायालय के बाहर एकत्रित हुए और उन्होंने एक सांझा प्रेस कान्फ्रेंस की। यह कान्फे्रंस न्यायालय के कामकाज को लेकर थी। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। तब भी नहीं जब इंदिरा गांधी के शासन काल में न्यायाधीशों को सुपरसीड किया गया था। तब भी नहीं जब उच्चतम न्यायालय के ही कुछ न्यायाधीशों ने निर्णय दिया था कि आपात काल में नागरिकों के जीने के अधिकार भी समाप्त हो गए हैं। संदेह का अंकुर पैदा हो सकता था।

पटकथा लेखकों को इसी की सबसे ज्यादा जरूरत थी। एक न्यायाधीश अब बाकायदा मीडिया को साक्षात्कार देते घूम रहे हैं। वे सुप्रीम कोर्ट के कामकाज से दुखी हैं। उनका कहना है कि डा. भीमराव रामजी अंबेडकर ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि कभी सुप्रीम कोर्ट की यह हालत हो जाएगी। लेकिन शायद अंबेडकर ने यह कल्पना भी नहीं की होगी कि न्यायाधीश प्रेस कान्फ्रेंस भी करेंगे। अब उच्चतम न्यायालय ने जज लोया की मौत को लेकर पीआईएल खारिज ही नहीं की, बल्कि इसे आपराधिक भी बताया है। परंतु संदेह के बीज तो पहले ही बो दिए गए हैं। इसलिए बहस जारी रहेगी। 2019 तक इसे चलाए रखना जरूरी है। हो सकता है कल लोया के नाम की टी शर्ट भी मार्केट में आ जाए।

ई-मेलःkuldeepagnihotri@gmail.com

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