कमाल की कृति है ‘कूड़ा-धन’

By: Apr 29th, 2018 12:10 am

पुस्तक समीक्षा

* पुस्तक का नाम : कूड़ा-धन

* लेखक : दीपक चौरसिया

* प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन, दिल्ली-2

* मूल्य : पांच सौ रुपए

भारत के लगभग हर छोटे-बड़े शहर या गांव-कस्बे के आसपास ऊंचे उठते कचरे के ढेर, नालियों में बिलबिलाती गंदगी और सड़ांध उगलते सीवर क्या हमारी कभी न बदलने वाली तकदीर बन चुके हैं? या प्रधानमंत्री की ओर से छेड़ा गया स्वच्छ भारत अभियान इसलिए देश को जगाने में सक्षम है, क्योंकि उन्होंने इसे राष्ट्रीय सम्मान का प्रश्न बनाकर समाज को झकझोरा और जागृत किया है। अभियान का असर दिख रहा है। आम आदमी साफ-सफाई को लेकर जागरूक हुआ है। यहां तक कि बच्चे किसी को गंदगी फैलाते देख टोकने लगे हैं। इस स्वच्छता संग्राम को यहां तक पूरे अंक दिए जा सकते हैं, लेकिन समस्या इसके बाद शुरू होती है। सुलभ अधोसंरचना के अभाव में कूड़े-कचरे को इकट्ठा करने के बाद सलीके से ठिकाने लगाने के माकूल इंतजाम देश में कम ही हैं। नतीजतन, साफ गलियों-सड़कों की नुक्कड़ के पास या गांव-शहर से सटी खाली जमीन पर कचरे के ढेर सेहतमंद दिखने लगे हैं। जनता, और काफी हद तक निकायों के सामने यक्ष प्रश्न यह कि अब इस समस्या से कैसे निपटें? बहुत से लोग इस अनजान-अंधेरे चौराहे पर आकर आगे का रास्ता तलाश रहे हैं और शुक्र है कि इंतजार लंबा होने से पहले राह दिखाने वाला चमकदार मशाल लेकर सामने आ पहुंचा है। मशाल धारक हैं दीपक चौरसिया, जो हिंदी टीवी पत्रकारिता में देश का नामचीन चेहरा हैं और मशाल है उनकी हिंदी पुस्तक ‘कूड़ा-धन।’ पुस्तक का शीर्षक पहली नजर में चौंकाता है और तुरंत दिमाग में सवाल की घंटी भी बजा देता है। भला वह कचरा, जिससे हर कोई किसी भी तरह मुक्ति पाना चाहता है, वह धन कैसे हो सकता है? कूड़े से छुटकारा पाने की होड़ में उलटा पैसे खर्चने के बाद भी वांछित परिणाम नहीं मिलते। बस, यहीं से पुस्तक बिना खुले जागरूक पाठक के लिए आकर्षण पैदा कर देती है। दस अध्यायों में विभक्त पुस्तक पढ़ने के बाद लगता है कि इसे लिखने से पूर्व न केवल भरपूर शोध किया गया है, बल्कि ऐसी शब्दावली और शैली भी उपयोग में लाई गई है कि किसी भी पाठक को विषयवस्तु की गहराई में उतरने में कोई कठिनाई न हो। यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि ‘कूड़ा-धन’ कोई उपदेशग्रंथ न होकर प्रेरक कर्मगाथा है, क्योंकि यह वाकई कूड़े को धन में बदलने के आसान उपाय उदाहरणों व चित्रों सहित सरलता से प्रस्तुत करता है। लेखक दीपक चौरसिया देश में कचरे को ठिकाने लगाने की समस्या का सटीक चित्रण कर पाठक के मन में रुचि उत्पन्न करते हैं और फिर बढ़ चलते हैं उस ओर जहां उन्होंने पढ़ने वाले को प्रभावित और सहमत करने का पूरा इंतजाम कर रखा है। किसे पता था कि जनता के जी का जंजाल बना प्लास्टिक कचरा जरा सा परिश्रम और थोड़ी पूंजी लगाकर पेट्रोल-डीजल में बदला जा सकता है? या फिर यह हमारी सड़कों को किस कदर उम्रदराज बना सकता है? ‘कूड़ा-धन’ में इसे तथ्यों व चित्रों सहित बखूबी बताया गया है। दमघोंटू धुआं उगलने वाली धान की पराली बढि़या बायोइथेनॉल में बदल सकती है। सड़ांध उगलते सीवर से बायोगैस बनाने का सफल प्रयोग भी पुस्तक में बखूबी समाहित है। घर में रोज पैदा होने वाला गीला कचरा किस तरह हमारी बगिया को हरा-भरा बना सकता है, यह जानना भी रोचक है। इसके अतिरिक्त ई-कचरे और अन्य प्रकार के कूड़े को किस तरह कमाई का जरिया बनाया जा सकता है, पुस्तक सफलतापूर्वक बताती है। पुस्तक की भाषा सरल और विषयवस्तु का प्रस्तुतिकरण रोचक है। सवाल यह है कि क्या इस किताब या इसके सुझावों को स्वच्छ भारत अभियान से जोड़ने की गुंजाइश तलाशी जा सकती है? प्रभात प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित पुस्तक में बढि़या क्वालिटी का कागज प्रयोग किया गया है, भाषा एवं तथ्य संबंधी त्रुटि नहीं है। स्पष्ट चित्रों ने विवरण को और अधिक रोचक बना दिया है। विषयवस्तु, प्रस्तुतिकरण और प्रेरणा की संप्रेषणीयता के चलते किताब का मूल्य पांच सौ रुपए उचित कहा जा सकता है।

-अनिल अग्निहोत्री

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