क्या कानून से रुकेगा दलित उत्पीड़न ?

By: Apr 11th, 2018 12:05 am

प्रभुनाथ शुक्ल

लेखक स्वतंत्र चिंतक  हैं

अब तक जितने भी कानून बने हैं, क्या वे अपराध रोकने में सक्षम हैं? अनूसूचित जाति / जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम अरसे से बना है, फिर ऊना जैसी घटनाएं क्यों होती हैं? सिर्फ कानून और संविधान से किसी के अधिकारों की रक्षा नहीं हो सकती, जब तक लोगों में जागरूकता नहीं आएगी। दलित हों या आम नागरिक, सभी के अधिकारों की रक्षा होनी चाहिए। सामाजिक सुरक्षा और कानूनी आड़ में किसी कानून का गलत उपयोग किया जाए, तो यह गलत है। सभी के हितों की रक्षा होनी चाहिए, चाहे वह दलित हों या अन्य उच्च जाति के लोग…

सर्वोच्च अदालत की तरफ से अनुसूचित जाति एवं जनजाति अधिनियम पर एक फैसला आया है, लेकिन फैसले पर राजनीति शुरू हो गई है। आखिर क्यों? फैसले में बुराई क्या है? लेकिन कथित दलित हिमायती और राजनेताओं को अपच होने लगा है। उन्हें ऊना तो दिखता है, लेकिन भीमा कोरेगांव नहीं। दलितों और आदिवासियों को समाज की अगड़ी और समर्थ जातियों के प्रकोप से बचाने के लिए आज से लगभग तीस साल पहले यह कानून बनाया गया था। दलितों और आदिवासियों को सार्वजनिक अपमान और मारपीट से बचाने के लिए 1989 में यह कानून बनाया गया। सुप्रीम कोर्ट का यह ताजा फैसला डाक्टर सुभाष काशीनाथ महाजन बनाम महाराष्ट्र राज्य और एएनआर मामले में आया है। मामला महाराष्ट्र का है जहां अनुसूचित जाति के एक व्यक्ति ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ इस कानून के अंतर्गत मामला दर्ज करवाया था। हमारे समाज में दलित और आरक्षण बेहद संवेदनशील मसला है। इस पर जुबान खुली नहीं कि सियासतदां राजनीतिक नेता रोटियां सेंकनी शुरू कर देते हैं और पूरी कोशिश रहती है कि आग लगा किसी तरह समाज को बांट सत्ता हथियाई जाए। यानी आरक्षण और दलित आंदोलन एक तरह से सत्ता की चाबी भी हैं। ऐसा लगता है कि दलितों और आदिवासियों की चिंता सिर्फ राजनीतिक दलों और राजनेताओं को है, बाकि समाज इस पर मौन है। राजनीति के लिए दलित विमर्श बेहद खास है, लेकिन यह खोखला और बनावटी है। स्थिति यहां तक है कि आरक्षण और दलित जैसे विषयों पर चर्चा करना भी गुनाह है। दलितों की सामाजिक एवं आर्थिक सुरक्षा के साथ संवैधानिक अधिकारों के संरक्षण के लिए तमाम कानून बने और बनाए गए।

इसके अलावा आजादी के बाद संविधान में कई संशोधन कर अनगिनत कड़े कानून भी बनाए गए हैं, लेकिन वह कितने असरकारक हैं, कहना मुश्किल है। इस तरह के कानून दलितों को सामाजिक सुरक्षा और समानता का अधिकार भले न दिला पाए हों, लेकिन ये लोगों में कानूनी भय पैदा करने में सफल रहे हैं। हालांकि इसका व्यापक दुरुपयोग भी हुआ है और सियासी लाभ के लिए इसे हथियार के रूप में इस्तेमाल किया गया, जिसकी वजह से समाज में खाई बढ़ रही है। यही वजह है कि सुप्रीमकोर्ट को समाज की वर्तमान जरूरत को देखते हुए फैसला सुनाना पड़ा है। कांग्रेस और दूसरे दल इस पर राजनीति शुरू कर चुके हैं। ऐसा लगने लगा है कि इस कानून के बाद दलित अब देश में रह नहीं पाएंगे। उनका उत्पीड़न और तीखा हो जाएगा। अफसोस अदालत अगर एससी / एसटी एक्ट पर फांसी की सजा मुकर्रर करती, तो भी इस पर राजनीति होती, क्योंकि सवाल राजनीति का है। अब तक जितने भी कानून बने हैं, क्या वे अपराध रोकने में सक्षम हैं? क्या तमाम कानूनों के बाद विभिन्न जाति, धर्म, संप्रदाय के खिलाफ अपराध कम हुए हैं? देश के कई राज्यों में बलात्कार के खिलाफ फांसी की सजा का कानून है, फिर भी क्या इस तरह की घटनाएं रुक पाई हैं? अनूसूचित जाति / जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम अरसे से बना है, फिर ऊना जैसी घटनाएं क्यों होती हैं?

सिर्फ कानून और संविधान से किसी के अधिकारों की रक्षा नहीं हो सकती, जब तक लोगों में सामाजिक जागरूकता नहीं आएगी। दलित हों या पिछड़ा ब्राह्मण अथवा आम नागरिक, सभी के अधिकारों की रक्षा होनी चाहिए। संविधान के दायरे में सामाजिक सुरक्षा, रीति-रिवाज और परंपरा के साथ जीने की पूरी आजादी है, लेकिन सामाजिक सुरक्षा और कानूनी आड़ में किसी कानून का गलत उपयोग किया जाए, तो यह गलत है। अदालत ने फैसले में यह तो नहीं कहा है कि इस अधिनियम को ही खत्म कर दिया जाए या फिर दलित उत्पीड़न के केस दर्ज न किए जाएं। उसने तो इस कानून के गलत उपयोग पर चिंता जताते हुए फैसला सुनाया है। अदालत ने जो आदेश दिया है वह संवैधानिक अधिकारों के तहत है। यह व्यक्ति के हितों की रक्षा करने वाला है। इससे दलितों को भला क्या नुकसान होगा? जस्टिस एके गोयल और यूयू ललित की बेंच ने कहा कि दलित उत्पीड़न का केस दर्ज होने के बाद सात दिनों के भीतर शुरुआती जांच जरूर पूरी हो जानी चाहिए। यह भी साफ किया है कि आरोपी की गिरफ्तारी जरूरी नहीं है। आरोपी अगर  सरकारी कर्मचारी है, तो उसकी गिरफ्तारी के लिए उसे नियुक्त करने वाले अधिकारी की सहमति जरूरी होगी। दूसरी बात सरकारी कर्मचारी नहीं है, तो गिरफ्तारी के लिए सक्षम अधिकारी एसएसपी की सहमति जरूरी होगी। हालांकि अभी तक इस कानून में अग्रिम जमानत की सुविधा नहीं थी, लेकिन अदालत ने अपने आदेश में अग्रिम जमानत की इजाजत दे दी है। अदालत ने कहा कि पहली नजर में अगर ऐसा लगता है कि कोई मामला नहीं है या जहां न्यायिक समीक्षा के बाद लगता है कि कानून के अंतर्गत शिकायत में बदनीयती की भावना है, वहां अग्रिम जमानत पर कोई रोक नहीं है। फैसले में अदालत ने एक बड़ी बात कही है कि एससी और एसटी कानून का यह मतलब नहीं कि जाति व्यवस्था जारी रहे, क्योंकि ऐसा होने पर समाज में सभी को एक साथ लाने में और संवैधानिक मूल्यों पर असर पड़ सकता है। अदालत ने कहा कि संविधान बिना जाति या धर्म भेदभाव के सभी की बराबरी की बात करता है। यह संविधान में निहित भावना के साथ अन्याय होगा। ऐसी व्यवस्था में सामाजिक एवं जातीय असमानता और बढ़ेगी। उस स्थिति में कानून और संविधान का कोई मतलब नहीं रह जाता। एनसीआरबी की एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2015 में एसी / एसटी एक्ट में 15-16 प्रतिशत मामलों में पुलिस ने जांच के बाद क्लोजर रिपोर्ट फाइल कर दी। इसके अलावा अदालत में गए 75 प्रतिशत मामलों को या तो खत्म कर दिया गया, या उनमें अभियुक्त बरी हो गए। फिर इस तरह के आरोपों में कितनी सच्चाई है।

अनुसूचित जाति / जनजाति कानून को और मजबूत करने की मांग के लिए बनाए गए दलित संगठनों के एक राष्ट्रीय गठबंधन का कहना है कि देश में औसतन हर 15 मिनट में चार दलितों और आदिवासियों के साथ ज्यादती की जाती है। रोजाना तीन दलित महिलाओं के साथ बलात्कार किया जाता है, 11 दलितों की पिटाई होती है। हर हफ्ते 13 दलितों की हत्या की जाती है और पांच दलित घरों को आग लगा दी जाती है, जबकि छह दलितों का अपहरण कर लिया जाता है। संगठन के मुताबिक पिछले 15 वर्षों में दलितों के खिलाफ ज्यादती के साढ़े पांच लाख से ज्यादा मामले दर्ज किए गए। इस तरह देखें तो डेढ़ करोड़ दलित और आदिवासी प्रभावित हुए हैं। 2013 में दलितों पर ज्यादती के 39346 मुकदमे दर्ज हुए थे। अगले साल ये आंकड़ा बढ़कर 40300 तक पहुंचा।

अन्याय किसी के साथ नहीं होना चाहिए। सभी के हितों की कानूनी रक्षा होनी चाहिए, चाहे वह दलित हों या अन्य उच्च जाति के लोग हों। तभी हम समता मूलक समाज की स्थापना में अपनी सामाजिक भूमिका निभा सकते हैं। संविधान पीठ को स्वतंत्र रूप से अपना कार्य करने दिया जाना चाहिए। अदालती फैसलों पर राजनीति नहीं होनी चाहिए।

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