डा. पीयूष ने हिमाचली भाषा को दिया नया कलेवर

By: Apr 1st, 2018 12:10 am

डा. पीयूष गुलेरी हिंदी तथा हिमाचली भाषा के प्रसिद्ध साहित्यकार हैं। डॉ. गुलेरी ने आधुनिक हिमाचली भाषा को साहित्यिक स्वरूप देने में अहम भूमिका निभाई है। उन्होंने सन् 1969 में ‘मेरा देश म्हाचल’ शीर्षक से काव्य-संग्रह प्रकाशित करवाकर राज्य में साहित्यिक प्रसरण में अनुकरणीय योगदान दिया। पीयूष गुलेरी का मूल नाम कृष्ण गोपाल हैं। उनके साहित्यिक गुरु सोमनाथ सिंह ने उन्हें पीयूष उपनाम दिया। पीयूष गुलेरी का जन्म 14 अप्रैल 1940 में साहित्य एवं चित्रकला के लिए विख्यात कांगड़ा के गुलेर गांव में हुआ। राजपुरोहित पिता पंडित कीर्तिधर शर्मा गुलेरी एवं माता सत्यवती गुलेरी के घर में जन्मे पीयूष गुलेरी ने राजा हरिश्चंद्र सनातन धर्म हाई स्कूल में दसवीं की परीक्षा सन् 1955 में पास की। इसके बाद व्यक्तिगत रूप से अध्ययन करके भूषण, प्रभाकर, बीए, एमए और बीएड तक की उपाधियां पंजाब से प्राप्त की। प्रसिद्ध साहित्यकार शिक्षक डा. हजारी प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा एवं पद्म सिंह शर्मा के कुशल निर्देशन में कुरुक्षेत्र महाविद्यालय में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की।

पीयूष गुलेरी ने राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय धर्मशाला में अपनी सेवाएं प्रदान कीं। इसके अलावा उन्होंने चंद्रधर शर्मा गुलेरी महाविद्यालय तथा हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के क्षेत्रीय अध्ययन केंद्र धर्मशाला सहित अन्य शैक्षणिक संस्थानों में भी अपनी सेवाएं प्रदान की। डॉ. गुलेरी ने हिंदी, संस्कृत, हिमाचली, डोगरी, पंजाबी, उर्दू एवं अंग्रेजी सहित कई भाषाओं में साहित्य कार्य किया। उन्होंने पांचवीं कक्षा के छात्र रहते हुए ही कविता, गीत, संगीत, नृत्य, अभिनय सहित अन्य विधाओं में भाग लेना आरंभ कर दिया था। इसी दौरान कविता और लेखन में हुई रचना को शिक्षक सोमनाथ सिंह सोम ने निखारने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इसके बाद क्षेत्रीय भाषा पंजाबी होने के कारण हजारी प्रसाद द्विवेदी, इलाचंद्र जोशी, उपेंद्र, गणपति चंद्र गुप्त, शाबर मल, धीरेंद्र शर्मा, नर्मदेश्वर चतुर्वेदी, त्रिलोचन शास्त्री, परशुराम चतुर्वेदी, कृष्णानंद, डॉ. रमेश कुंतल मेघ, रघुवंश, रायकृष्ण दास, डा. राम कुमार सहित अन्य से मेल-जोल होने पर साहित्य में और अधिक निखार देखने को मिला। आरंभिक दौर में हिमाचली भाषा में लेखन में प्रवत्त होने के बावजूद हिमाचली रचनाओं के प्रकाशन के लिए कोई समुचित पत्र-पत्रिका उपलब्ध न होना मुख्य बाधा रही। 1962 में जम्मू से डोगरी भाषा में प्रकाशित होने वाली पत्रिका शीराज़ा की सूचना मिली, तब उनकी हिमाचली रचनाएं शीराज़ा डोगरी में प्रकाशित होने लगी। इसके अलावा अन्य हिमाचली लेखक भी शीराजा में प्रकाशित होने लगे। सन् 1964 में चित्रकला तथा लोकसाहित्य के डा. एमएस रंधावा के प्रयासों से आकाशवाणी जालंधर से जय पर्वत की गूंज कार्यक्रम प्रारंभ हुआ, तो नियमित रूप से पीयूष की हिमाचली रचनाएं प्रसारित होने लगी। पीयूष गुलेरी धौलाधार को विषय बनाकर कविताएं लिखने वाले प्रारंभिक कवियों में हैं। इनकी कविताओं में लोकरंग के मुहावरे और हिमाचली ठेठ शब्दों के ठाठ की बानगियां आकर्षित करती हैं। डा. पीयूष गुलेरी की पहली किताब 1969 में प्रकाशित हुई जिसका नाम है मेरा देश म्हाचल। इसके अलावा छौंटे, मेरियां, गज़लां सहित अन्य संकलन प्रकाशित हुए। इन्होंने नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया की ओर से ‘किरनी झुल्लां दी’ शीर्षक से कहानी-संकलन का सपांदन भी किया। हिमाचली भाषा में प्रदेश एवं प्रदेश के बाहर की अनेक पत्र-पत्रिकाओं व स्मारिकाओं में इन्होंने कतिवाएं, निबंध, कहानियां, संस्मरण और शोध समीक्षाएं करवाइर्ं। साथ ही हिमाचल में चंद्रधर शर्मा गुलेरी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व शोध-प्रबंध प्रकाशित करवाया। साहित्य, शिक्षा एवं सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय योगदान के लिए उन्हें दर्जनों अवार्डों से नवाजा जा चुका है। इन्हें मिलने वाले सम्मान व पुरस्कारों में 1972 में राज्य स्तरीय सम्मान (साहित्य अकादमी हिमाचल प्रदेश), हिम हम्मीर, संध्यापुरी, हिमाचल केसरी, फ्रैंड्स यूनिवर्सल अवार्ड, हिंदी-साहित्य सम्मेलन ताशकंद सम्मान, पुरोहित चंद्रशेखर राष्ट्रीय पुरस्कार, यशवंत सिंह परमार सम्मान आदि शामिल हैं।         -विनोद कुमार

धरती का साहित्यकार ही हिमाचली भाषा का सर्जक

किताब के संदर्भ  में लेखक

* कुल पुस्तकें : 5 मौलिक, 6 सह संपादित

* शोध गंथ  :  एक

* शोध पत्र : 45

* कुल पुरस्कार : 5

* साहित्य सेवा : करीब 65 साल

हिमाचल का लेखक जगत अपने साहित्यिक परिवेश में जो जोड़ चुका है, उससे आगे निकलती जुस्तजू को समझने की कोशिश। समाज को बुनती इच्छाएं और टूटती सीमाओं के बंधन से मुक्त होती अभिव्यक्ति को समझने की कोशिश। जब शब्द दरगाह के मानिंद नजर आते हैं, तो किताब के दर्पण में लेखक से रू-ब-रू होने की इबादत की तरह, इस सीरीज को स्वीकार करें। इस क्रम में जब हमने डा. पीयूष गुलेरी के कविता संग्रह ‘गूंगा हृदय बहरी पीर’ की पड़ताल की तो साहित्य के कई पहलू सामने आए…

दिव्य हिमाचल के साथ

दिहिः-आपके लिए सृजन का बसंत या पतझड़ की खुराक में रचना की ऊर्जा बटोरना कब किस परिपाटी से अलग होकर भी तरोताजा है?

पीयूषः- सृजन मेरे लिए वासंतिक जीवन की ऊर्जा लेकर आता है और पतझड़ भी पुनः नए सृजन की आहट देता हुआ वसंत के आगमन की प्रेरणा में नई रचना के लिए सदैव तत्पर रखता है। पतझड़ और वसंत जीवन के दो ऐेसे पहलू हैं जो साहित्यकार के मन को पृथक-पृथक ढंग से सदैव नई-नई ऊर्जा से संपन्न करके हमेशा तरोताजा रखते हैं। मैं अपने ढंग से अपनी रचनाओं में नई सोच की नई परिपाटी को बनाए रखने का राहगीर हूं। जैसे हिमाचली भाषा के आरंभिक साहित्यिक सृजन के नए-नए कोण उजागर करके नई लीक और नई परिपाटी की स्थापना की।

दिहिः-वर्षों से तप रहे संकल्पन, संज्ञेय और संदर्शन ने जहां आपके व्यक्तित्व को प्रभावित किया, फिर भी जो हासिल नहीं हुआ, उसकी परिभाषा में सृजन का महत्त्व?

पीयूषः- मुझे लगता है कि संसार के इस महान यज्ञ में जीवन एक तप है, जो तपते-तपते नए नए संदर्भों में साहित्यकार को उसकी संकल्पनाओं से पुष्ट करता हुआ एक संपुष्ट जीवन दर्शन को जन्म देता है। मुझे इस जीवन में अपनी साहित्यिक रचनाओं से पूर्णतया संतुष्टि है और जो भी हासिल किया, उस पर मान है। किंतु सृजन की परिभाषा में मौलिक सृजन के अतिरिक्त उसका प्रकाशित होना उससे भी कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है। उम्र के इस पड़ाव में आकर मुझे लगता है कि मुझे प्रकाशन के इस महत्त्व को परिभाषित करना अभी तक शेष है।

दिहिः-कवि हृदय से समाज को झांकने की सजा मिली या यूं ही मिट्टी से मिलने का सबब बनता गया?

पीयूषः– मेरा कवि हृदय ग्रामीण जनपदीय मिट्टी की सौंधी सुगंध से निर्मित हुआ है। इस मिट्टी से मैं खेला हूं, पला हूं, लिपटा हूं, इसे खोद-खोद कर नए सृजन के अंकुर पनपाए हैं और इसका मीठा फल मिला है, सजा नहीं। यह मीठे फल न केवल मेरे कवि जीवन को सदैव हरा-भरा रखते हैं, बल्कि नित्य नई संकल्पनाओं से परिपूर्ण करते रहते हैं। अस्तु मिट्टी में मिलने के बाद भी जीवन जीने की संभावनाएं बनी रहेंगी।

दिहिः-सृजन की साधना में शब्द चेतन की समाधि और स्व सिद्धि का आत्मसंतोष कब पूरा हो जाता है या हर रचना आत्म संतुष्टि तक ही परिमार्जित है आपके लिए?

पीयूषः– प्रत्येक रचना के पूर्व सर्जक एक प्रसव पीड़ा की वेदना से गुजरता है। और यह पीड़ा साधना की तड़प पैदा करती है। जब-जब यह तड़प स्थिर बुद्धि की सीमा तक पहुंचकर समाधिस्थ होने का भाव जागृत करती है तो जिस रचना का शब्द रूप साकार होता है, वह एक अलग अस्तित्व में उपस्थित होकर लेखक को जिस आत्मसंतोष और अव्यक्त आनंद का अनुभव मिलता है, वह सृजन साधना की पूर्णता है। प्रत्येक रचनाकार के लिए रचना प्रथमतः आत्मतोष का साधन है और तत्पश्चात वह उसकी न रहकर सामाजिकता में परिमार्जित होती रहती है।

दिहिः-हिमाचल में साहित्य के आंदोलन कहां देखते हैं। क्या कहीं प्रासंगिकता के दर्पण में झांकने की जरूरत नहीं?

पीयूषः-हिमाचल प्रदेश में 1966 के पश्चात जो साहित्यिक गतिविधियों ने करवट ली है, वह सराहनीय है। किंतु साहित्यकार अधिकतर आत्मकेंद्रित होकर स्वयं को स्थापित करने, दलगत दलदल में फंसने और वादों की वादी से ग्रस्त होकर अधिकतर जुगाड़ू संस्कृति के पक्षधर दिखने लगे हैं। स्वयं को बड़ा आंकने व दूसरों को नीचा दिखाने के कारण किसी सार्थक साहित्यिक आंदोलन की कमी जरूर देखने में आती है। देश की मुख्यधारा में यद्यपि साहित्यकारों ने हिंदी साहित्य में प्रारंभ से इसके आंदोलन में बढ़चढ़ कर भाग लिया है, फिर भी आज की भौतिकवादी प्रसिद्धि पाने के लिए अवश्य ही प्रासंगिकता के दर्पण में झांकने की जरूरत है।

दिहिः-आपने पहाड़ की अस्मिता में बोली को भाषा का रूप देने में जो प्रयास किया, वह मार्ग ठहर सा क्यों गया है?

पीयूषः-मुझे रचना धर्म में प्रवेश करने के साथ ही अंतरात्मा ने झकझोरा कि हिमाचली बोली साहित्यिक भाषा बनने की अधिकारिणी है। इस धरती का साहित्यकार ही अपनी भाषा को देश की अन्य भाषाओं के अनुरूप साहित्यिक पंक्ति में खड़ा कर सकता है। हिमाचली भाषा में बाहर से आयातित लोग थोड़े ही इसको इसका हक दिला सकेंगे। इसलिए मैंने हिमाचली भाषा में ठेठ शब्दों के ठाठ में नए-नए रूप और छंदों से इसको अपनी ओर से पुष्ट करने का प्रयास किया। यह मेरी ओर से हिमाचली भाषा के इस महान यज्ञ में एक छोटी सी आहुति है।

दिहिः- क्या अभी कोई दौर बाकी है, जो हिमाचली परिवेश की जुबान से निकलते अमृत को किसी हिमाचली भाषा की समग्रता में बरसा दे?

पीयूषः-जिंदगी और आंदोलन दो दौरों से गुजरने की एक सतत प्रक्रिया है। 1965 में लालचंद प्रार्थी से मिलने के पश्चात हिमाचली भाषा के साहित्यिक रूप की जो रूपरेखा चंडीगढ़ में बनी, वह उनके हिमाचल में मंत्री बनने के पश्चात साकार रूप में प्रकट हुई। हिमाचली भाषा के उत्थान के लिए जिस भाषा सलाहकार समिति का गठन हुआ, उसमें काफी  वर्षों तक मैं सदस्य रहा और उसके तहत हिमाचली भाषा अकादमी, भाषा विभाग और हिम भारती आदि पत्रिकाओं का संपादन प्रारंभ हुआ। लेकिन जिस जोर-शोर से प्रार्थी जी जैसे साहित्यकार राजनीतिज्ञों ने इस भाषा को पहाड़ी कवि सम्मेलनों के माध्यमों से मेलों और त्योहार के अवसर पर लोगों के साथ पहाड़ी कवि सम्मेलनों के द्वारा जोड़ा, वह अब देखने में नहीं मिलता। हिमाचली और हिमाचल से बाहरी साहित्यकारों के लिए जिन साहित्यिक लेखक गृहों की शुरुआत हुई थी वह अब लगभग मर चुकी है। यथा धर्मशाला के बाबा कांशीराम साहित्य लेखक गृह पर पिछले दस वर्षों से सेंट्रल यूनिवर्सिटी अपनी कुंडली मारकर बैठी हुई है। साहित्यकार चुप हैं, सरकारी आदेश फल-फूल रहे हैं। अब मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर जी के नेतृत्व में जो हिमाचली भाषा को पहचान देने के कदम उठाए गए हैं और उसे आठवीं अनुसूची में दर्ज कराने की जो पहल की गई है, उससे लगता है कि दूध गंगा से हिमाचली भाषा के पिपासुओं को अमृत की रसधारा मिले।

दिहिः-हिमाचली भाषा के प्रति कितने आशान्वित हैं। क्या कहीं वह दौर पीछे छूट गया जिसे कभी लालचंद प्रार्थी या प्रो. नारायण चंद पराशर ने दिशा व पहचान देने का भरपूर प्रयत्न किया?

पीयूषः-हिमाचली भाषा के सृजन का जो दौर शुरू हो चुका है, वह उसे आठवीं अनुसूची में शामिल करवाने और हिमाचल प्रदेश की प्रादेशिक भाषा बनने तक जारी रहेगा, ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है। उतार-चढ़ाव और सार्थक एवं निरर्थक लहरों का उत्थान-पतन कितने ही भंवर क्यों न खड़ा करता रहे, किंतु अंततः हिमाचली भाषा प्रादेशिक भाषा बनकर रहेगी। हम रहें न रहें या किसी और जन्म के माध्यम से इसके स्वरूप को देखें, मैं चाहता हूं कि मैं बार-बार हिमाचल में जन्मूं और हिमाचली भाषा के इस यज्ञ में अपनी ओर से आहुतियां डालता रहूं। हां, लालचंद प्रार्थी और प्रो. नारायण चंद पराशर ने हिमाचली भाषा आंदोलन को जो नेतृत्व दिया, उसी के अनुरूप राजनीतिक दूरदृष्टि वाले मुख्यमंत्री को पुनः दिशा देने की आवश्यकता है क्योंकि हिमाचल का राजनीतिक अस्तित्व ही हिमाचली भाषा और संस्कृति से बना था और हिमाचली भाषा के सृदृढ़ होने से इसका अस्तित्व बरकरार रह सकेगा।

दिहिः- राष्ट्रीय स्तर पर जो डोगरी को हासिल है, उसमें हिमाचल क्यों पिछड़ गया, क्या लेखक समाज भी अपने हिस्से के क्षेत्रवाद में फंसा है या जिरह की दीवारों के भीतर कहीं मातृ बोलियां मर रही हैं?

पीयूषः- डोगरी को राष्ट्रीय स्तर पर साहित्यिक मान्यता और फिर आठवीं अनुसूची दिलाने में डा. कर्ण सिंह जैसे दूरदर्शी राजनीतिज्ञ और डोगरी संस्था जैसी अनेक संस्थाएं दसियों वर्ष जुटने के बाद ही उसे हासिल कर सकीं जिसके लिए हिमाचल प्रदेश अभी भी संघर्षरत है। हां, लेखक समाज भी कांगड़ा क्षेत्र की भाषा ही क्षेत्रीय भाषा बन जाएगी, इस व्यर्थ चिंता के कारण प्रारंभ से ही जिरह की अनेक दीवारें खड़ी करते रहे हैं। किंतु जिस चीज का एक बार नाम रख दिया जाता है, वह कभी न कभी अपना हक हासिल करके ही रहती है। मेरा मानना है कि मातृ बोलियां मर नहीं रही हैं, बल्कि अनेक माहबोलियों के शब्द, मुहावरे, लोकोक्तियां और अन्य समृद्ध संपदा सार्वभौम हिमाचली भाषा को समृद्ध कर रही हैं।

दिहिः-एक समय था जब हिमाचल का लेखक वर्ग अग्रिम पंक्ति का चेहरा होता था, अब ऐसा क्या है कि सृजन समाज अपने लिए कोकून की तलाश में है?

पीयूषः-जी हां, मैं सहमत हूं कि 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी और तत्त्पश्चात योगेश्वर गुलेरी, क्षेमेंद्र गुलेरी एवं यशपाल जैसे चेहरे हिमाचल प्रदेश को देश की प्रमुख धारा की अग्र पंक्ति में खड़ा करते हैं। लेकिन अबके भौतिकवादी युग में साहित्य सृजन जुगाडू़ संस्कृति के कारण स्वयं को स्थापित करने के सिवा कुछ नहीं देखता, इसलिए हर लेखक अपने दल, पंथवाद और कोकून की तलाश में तत्पर है।

दिहिः-क्या साहित्य में चुग्गा संभव है या चुग्गा ही अब साहित्य है। कम से कम हिमाचली संदर्भों में कमोबेश हर लेखक के साथ सरकार या सत्ता का पक्ष क्यों हावी रहता है?

पीयूषः-साहित्य और चुग्गा एक दूसरे के पूरक हैं, लेकिन साहित्य से फलित चुग्गा स्वयं सिद्ध अमृत जैसा है। चुग्गा पे्ररित रचित साहित्य स्वयं और साहित्य के साथ बड़ी धोखाधड़ी है जो बहुत हद तक फल-फूल रही है। एक खास टारगेट के तहत साहित्य रचना होती है और उसमें चोरी-चुकारी का माल भी चलता है। सरकारी साथ या सत्ता पक्ष हिमाचली संदर्भों में ही लेखक को रेखांकित नहीं करता, बल्कि आज के युग में देश की मुख्यधारा के अनेक लेखक गुटबंदी और मठवाद से पे्ररित होकर सत्ता का दोहन करते हैं। वह जमाने लद गए जब साहित्यकारों की पहचान सत्ता करती थी।

दिहिः- आप अपने भीतर या बाहर कितना अनकहा-अनसुना समेटे हुए हैं। आखिर लिखना आपके लिए है क्या और पूरी प्रक्रिया में स्व कितना महत्त्वपूर्ण व प्रभावी रहता है?

पीयूषः- जितनी अब तक अभिव्यक्ति हो चुकी है, उससे कहीं अधिक भीतर और बाहर अनसुनी और अनकही को अभी भी समेटे हुए है, क्योंकि जीवन का नैरंतर्य नए-नए अनुभवों और व्यथा-कथाओं को पुनः अनकहा और अनसुना बनने की सामर्थ्य रखता है। लिखना मेरे लिए मेरी भूख के समान है जो बार-बार लगती है और मिटती नहीं। भूख का लगना और न मिटना नए-नए शब्दों का कारण बनता है जो रचना के प्रकट होने के पश्चात अनकहा संतोष और आनंद देता है। पूरी रचना प्रक्रिया में जीवन के पके हुए अनुभव और निर्मित पुष्ट जीवन दर्शन स्व केंद्रित होकर जब-जब रचना के होने का कारण बनता है तो रचना मैं नहीं कोई अन्य ही करता है। वह अन्य ही सर्वस्व है, जिसका कारण स्व में बंधित है/संवेष्टित है।

दिहिः- लेखकीय ईमानदारी में भाषा और विधा के किस स्वरूप में देश का वर्तमान अभिव्यक्त हो रहा है। क्या रचना प्रक्रिया अपने प्रश्नों के गुंबद पर सवार होकर माटी की गंध खो रही है?

पीयूषः- रचना प्रक्रिया में स्वांत-सुखाय की भावना मुख्य भूमिका का निर्वाह करती है। ईमानदारी से कहें तो सशक्त  साहित्यिक अभिव्यक्ति मातृभाषा में ही संभव है। हां, हिंदी भाषा भी मातृभाषा के अनुरूप अभिव्यक्ति का मुख्य साधन है जिसमें हिंदी भाषा भाषियों के समकक्ष रचना करने के लिए लेखक को घोर परिश्रम और सतत अभ्यास की आवश्यकता है। देश की वर्तमान दशा को प्रत्येक विधा में अभिव्यक्त किया जा सकता है। यह समय और लेखक की अभिव्यक्ति क्रम के दबाव व महारत पर निर्भर करता है कि वह देश के किस स्वरूप को किस विधा में साकार करे। जी हां, रचना प्रक्रिया में बहुत अधिक जटिलता, बनावटीपन, ऊहात्मकता और अहमदोष के गुंबद प्रश्नों को गुंजाते रहते हैं। निश्चय ही माटी की गंध ढूंढकर इसलिए भी नहीं मिलती क्योंकि कई लोगों ने जनपदीय जीवन के यथार्थ को भोगा ही नहीं।

दिहिः- कम से कम सोशल मीडिया के उच्चारण में जिस तरह जीवन का संघर्ष सामने आ रहा है, उससे जन विद्रोह की परंपरा कहीं मनुष्य की आजादी और समाज की नाकेबंदी में फंस चुकी है। ऐसे में लेखक भी पाले बदलकर कहीं असमंजस में तो नहीं?

पीयूषः-प्रत्येक युग में साहित्यकार और सत्ता के आपसी संबंध में सामंजस्य और अंतर्विरोध देखने में आता है। सत्ता मीडिया का उपयोग करने में पीछे नहीं है और मीडिया सत्ता का दोहन करने में जुटा है। जो तटस्थ मीडिया है उसे अपने होने की भरकम कीमत चुकानी पड़ती है। लेखक तो पहले ही से खेमेबाजी और वादों की संकीर्ण सीमाओं में बंधे हैं। अधिकतर लेखक पाले बदलते देखे गए हैं और कुछ ही लेखक तटस्थ होकर आत्मतोष ओर स्वांत-सुखाय के लिए रचना करने की कुव्वत रखते हैं।

दिहिः- आपके रचनामय संसार में कल्पना और यथार्थ के बीच जो सुकून रहा, उसे कितना बांट पाए?

पीयूषः- मैं समझता हूं जब लेखक से उसकी रचना उससे अलग होकर अपने अस्तित्व में आती है तो वह कल्पना और यथार्थ में आवेष्टित होकर अपना अर्थ स्वयं ढूंढने लग जाती है। हां, मैंने जो लेखन किया और उसका रू-ब-रू होकर वाचन किया तथा लिखित रूप से जो समाज में बांटा, वह मुझे पूर्ण संतुष्टि नहीं दे पाया। अभी बहुत कुछ बांटकर शायद मुझे यथेष्ट सुकून और संतोष मिल पाए।


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