देश के सामने नए वित्त वर्ष की चुनौतियां

By: Apr 10th, 2018 12:10 am

डा. भरत झुनझुनवाला

लेखक, आर्थिक विश्लेषक  एवं टिप्पणीकार हैं

हमें एक करोड़ नए रोजगार हर वर्ष बनाने होंगे। सरकारी बैंकों का विलय प्राफिट में चल रहे बैंकों में करने से बैंक कर्मियों के स्वभाव में कोई अंतर नहीं पड़ता है। इसलिए सरकारी इकाइयों को विनिवेश अथवा विलय का पेन किलर देने के स्थान पर इनकी सर्जरी करने की जरूरत है। इनका निजीकरण कर देना चाहिए। संकेत मिलते हैं कि वर्तमान केंद्रीय सरकार ने ऊंचे यानी मंत्री एवं सचिव के स्तर पर भ्रष्टाचार पर नियंत्रण किया है, परंतु जमीनी स्तर पर यह पूर्ववत फल-फूल ही नहीं रहा है, बल्कि इसमें वृद्धि हुई है…

इस माह हम नए वित्त वर्ष के साथ-साथ वर्तमान सरकार के आखिरी वर्ष में प्रवेश कर गए हैं। सरकार के सामने प्रमुख चुनौती रोजगार सृजन की है। देश के श्रम बाजार में हर वर्ष लगभग एक करोड़ युवा प्रवेश कर रहे हैं। इन्हें रोजगार नहीं मिला, तो ये क्राइम एवं आतंकवाद की तरफ झुकेंगे। सरकार का मानना है कि मैन्युफेक्चरिंग में नए रोजगार बनेंगे। रोजगार के लिए ‘मेक इन इंडिया’ को बढ़ावा दिया जा रहा है। बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भारत में मैन्युफेक्चर करने को आकर्षित किया जा रहा है। इतना सही है कि इस निवेश से लाख-दो-लाख रोजगार बन सकते हैं, परंतु यह केवल सीधा प्रभाव है। इसी निवेश के अप्रत्यक्ष प्रभाव से 20 लाख रोजगारों का हनन हो सकता है। जैसे किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी ने बिस्कुट बनाने का बड़ा कारखाना लगाया, जिसमें 10,000 श्रमिकों को रोजगार मिला। ये बिस्कुट बाजार में छा गए। इस कारण बिस्कुट बनाने वाले लाखों कुटीर उद्योग बंद हो गए। इनमें कार्यरत दो लाख श्रमिक बेरोजगार हो गए। इस प्रकार मेक इन इंडिया से बेरोजगारी बढ़ रही है।

सरकार को चाहिए कि मेक इन इंडिया को उच्च तकनीकों वाले क्षेत्रों तक सीमित करे, जैसे हेलिकाप्टर एवं कंप्यूटर चिप बनाने तक। ये कदम भी पर्याप्त नहीं होंगे। केवल पुराने रोजगारों को बचाने से काम नहीं चलेगा। हमें एक करोड़ नए रोजगार हर वर्ष बनाने होंगे। मैन्युफेक्चर में मूल रूप से संभावनाएं कम हैं, चूंकि उद्यमियों द्वारा आटोमेटिक मशीनों तथा रोबोटों से उत्पादन किया जा रहा है। आने वाले समय में सेवा क्षेत्र जैसे पर्यटन, ब्यूटी पार्लर, कंप्यूटर गेम्स आदि का प्रचलन बढ़ेगा। हमें भारत को इन सेवाओं का वैश्विक केंद्र बनाना होगा। इसके लिए सेंट्रल इंडस्ट्रियल सिक्योरिटी फोर्स की तर्ज पर एक केंद्रीय पर्यटन पुलिस स्थापित करनी चाहिए। स्वास्थ पर्यटन में अपार संभावनाएं हैं। विदेशों में आपरेशन महंगा पड़ता है। लेकिन भारत में डाक्टरों की मनमर्जी तथा पुलिस की मिलीभगत से विदेशी कम आ रहे हैं। यही हाल शिक्षा का है। हमें चाहिए कि अफ्रीका तथा दक्षिण अमरीका से बड़ी संख्या में छात्रों को आकर्षित करें। अपने युवाओं को कंप्यूटर गेम्स एवं मोबाइल एप्स बनाने को प्रेरित करने के लिए छोटे शहरों में मुफ्त वाईफाई उपलब्ध करवाना चाहिए। देश के सामने दूसरी चुनौती सार्वजनिक इकाइयों एवं बैंकों का सुधार करना है। इन इकाइयों की दो मूल समस्याएं हैं। एक समस्या राजनीतिक हस्तक्षेप की है, जैसे मंत्री जी के चुनाव क्षेत्र से रेल गाडि़यां चलाने के आदेश दिए जाते हैं, यद्यपि वहां से यात्रियों की संख्या कम होती है। अथवा सार्वजनिक बैंकों को संदिग्ध उद्यमियों को ऋण देने के लिए कह दिया जाता है। अथवा नेताजी के नजदीकी लोगों की सार्वजनिक इकाइयों में नियुक्ति करने के आदेश दिए जाते हैं।

इस राजनीतिक हस्तक्षेप से सार्वजनिक इकाइयां घाटा खाती हैं। दूसरी मूल समस्या है कि सरकारी कर्मियों एवं उद्यमियों के स्वभाव में मौलिक अंतर होता है। सरकारी कर्मी का उद्देश्य होता है कि वे घूस ज्यादा मात्रा में वसूल कर सकें अथवा अपने वेतन एवं पेंशन में वृद्धि हासिल करें। इसके विपरीत उद्यमी का उद्देश्य होता है कि वेतन एवं पेंशन कम दे और अधिकाधिक लाभ कमाए। जब किसी सप्लायर को ठेका देना होता है, तो सरकारी कर्मी उसमें कमीशन खोजता है, जबकि उद्यमी उसमे डिक्काउंट खोजता है। इन दोनों समस्याओं के कारण सार्वजनिक इकाइयां एवं बैंक घाटा खाते हैं। इस घाटे की पूर्ति के लिए आम आदमी से टैक्स वसूल करके इनकी दुर्व्यवस्था को पोषित किया जाता है, जैसे सरकार द्वारा घाटे में चल रहे सार्वजनिक बैंकों की पूंजी में लगातार निवेश किया जा रहा है। सार्वजनिक इकाइयों की इस समस्या का समाधान सरकार विनिवेश के माध्यम से खोजने का प्रयास कर रही है। विनिवेश में इकाई के कुछ शेयरों को शेयर बाजार में लिस्ट किया जाता है। इससे इनके कार्यों पर निवेशकों की नजर रहती है।

सार्वजनिक इकाई के शेयर के मूल्य में गिरावट आती है, तो खतरे की घंटी बजने लगती है। परंतु शेयर बाजार में लिस्ट होने से मंत्री तथा सरकारी कर्मी के स्वभाव में तनिक भी अंतर नहीं आता है। मूल समस्या पूर्ववत बनी रहती है, यद्यपि उसकी गहराई कुछ कम हो जाती है। इसी प्रकार घाटे में चल रहे सरकारी बैंकों का विलय प्राफिट में चल रहे बैंकों मेें करने से बैंक कर्मियों के स्वभाव में कोई अंतर नहीं पड़ता है। इसलिए सरकारी इकाइयों को विनिवेश अथवा विलय का पेन किलर देने के स्थान पर इनकी सर्जरी करने की जरूरत है। इनका निजीकरण कर देना चाहिए। विनिवेश में अल्प संख्या में शेयरों को निजी निवेशकों को बेचा जाता है, जबकि निजीकरण में बहुसंख्या में शेयरों को किसी विशेष निवेशक को बेचा जाता है और इकाई का मैनेजमेंट निजी निवेशक को सौंप दिया जाता है। निजीकरण के बाद इकाई के संचालन में नेताओं की भूमिका समाप्त हो जाती है। निजी उद्यमी द्वारा इकाई का संचालन प्राफिट कमाने के लिए किया जाता है, न कि घूस कमाने के लिए। तीसरी चुनौती धरातल पर सुशासन स्थापित करने की है। संकेत मिलते हैं कि वर्तमान केंद्रीय सरकार ने ऊंचे यानी मंत्री एवं सचिव के स्तर पर भ्रष्टाचार पर नियंत्रण किया है, परंतु जमीनी स्तर पर यह पूर्ववत फल-फूल ही नहीं रहा है, बल्कि इसमें वृद्धि हुई है।

जीएसटी लागू होने के पहले नोयडा के एक उद्यमी ने बताया कि एक्साइज इंस्पेक्टर को वे पूर्व में 5000 रुपए सुविधा शुल्क देते थे। मोदी सरकार के आने के बाद उसे 20,000 रुपए प्रतिमाह देने पड़े, चूंकि इंस्पेक्टर के अनुसार ‘अब सख्ती ज्यादा है।’ यही कहानी चारों तरफ  दिखती है। मोदी का इस समस्या से निपटने का फार्मूला है कि शीर्ष स्तर पर ईमानदार अधिकारियों को बैठाओ तथा जनता से संपर्क को अधिकाधिक इलेक्ट्रानिक माध्यम से करवाओ, जैसे एलपीजी सबसिडी को खरीददार के खाते में सीधे डाला जा रहा है। इस स्ट्रेटजी में सरकारी कर्मियों के भ्रष्टाचारी चरित्र को स्वीकार किया जाता है। ऊंचे स्तर पर विशेष व्यक्तियों को नियुक्त करके इस पर नियंत्रण किया जाता है।

निचले स्तर पर सरकारी कर्मियों एवं जनता के बीच सीधे लेन-देन को सीमित किया जाता है, लेकिन सरकारी कर्मियों एवं जनता के बीच संपर्क तो होगा ही। इसी संपर्क के लिए देश में डेढ़ करोड़ सरकारी कर्मी नियुक्त किए गए हैं। पुलिस, शिक्षा, पटवारी आदि जनता से पूर्ववत संपर्क में रहेंगे ही। अतः जरूरत जमीनी स्तर पर सरकारी कर्मचारियों पर नकेल कसने की है। सरकार को चाहिए कि सभी सरकारी कर्मियों का जनता से गुप्त मूल्यांकन करवाए। सबसे घटिया पांच प्रतिशत कर्मियों को हर साल मुअत्तल कर दिया जाए। सबसे अच्छे पांच प्रतिशत को ही बढ़े हुए डीए एवं प्रोमोशन दिए जाएं। सरकारी कर्मियों पर निगरानी के लिए एक अलग खुफिया एजेंसी बनानी चाहिए, जो इन्हें ट्रेस करे। देश की अर्थव्यवस्था में शासन की भूमिका मोबिलायल की होती है। शासन ठीक होगा तो देश आगे बढ़ेगा।

ई-मेल : bharatjj@gmail.com

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