धर्मगुरुओं से मिले मुक्ति

By: Apr 6th, 2018 12:05 am

ललित गर्ग

लेखक, दिल्ली से हैं

आज धर्म एवं धर्मगुरुओं का व्यवहार और जीवनशैली न केवल विवादास्पद, बल्कि धर्म के सिद्धांतों के विपरीत हो गई है। नैतिक एवं चरित्रसंपन्न समाज बनाने का नारा देकर तथाकथित धर्मगुरुओं ने अपने भौतिक एवं आर्थिक साम्राज्य के विस्तार के लिए अशांति, अपवित्रता, असंतुलन एवं अंधकार को फैलाया है। राजनीति की ओर उनकी रवानगी, उनका व्यवसायी हो जाना, उनके सेक्स स्कैंडल का उछलना, उनके द्वारा महिलाओं का शोषण किया जाना गहरी सामाजिक बहस की मांग करता है। हाल में हमारे देश में ऐसे ही अनेक धर्मगुरुओं का उभार हुआ है। अंधविश्वास के कारण उनके प्रशंसकों की संख्या अब करोड़ों में है, उनका करोडों-अरबों का साम्राज्य है। इन विडंबनापूर्ण स्थितियों ने अनेक प्रश्न खड़े किए हैं। मुख्य प्रश्न है कि कब तक इन धर्मगुरुओं एवं बाबाओं के स्वार्थों के चलते जनजीवन गुमराह होता रहेगा? कब तक इनकी विकृतियों से राष्ट्रीय अस्मिता घायल होती रहेगी? कब तक सरकारें इनके सामने नतमस्तक बनी रहेंगी? कब तक कानून को ये अंगूठा दिखाते रहेंगे? कब तक जनता सही-गलत का विवेक खोती रहेगी? हैरानी की बात है कि इसके बावजूद ऐसे धर्मगुरुओं के पास भी लाखों लोग अंधभक्ति के साथ जाते हैं। इस तरह के लाखों अंधभक्त आज मौजूद हैं, जिनसे तार्किक बहस करना लगभग असंभव है। जो धर्मगुरु अपराधों के आरोप से मुक्त हैं, वे भी अपने संस्थानों के लिए तेजी से संपत्ति व भूमि जमा करने की प्रवृत्ति से मुक्त नहीं हो सके हैं। उनमें भी वैभव प्रदर्शन एवं अपनी ताकत दिखाने की होड़ लगी है। उनके आयोजन एवं संस्थाएं कानून को सरेआम नजरअंदाज करती हैं। अब चूंकि ये धर्मगुरु राजनीति में असरदार भूमिका भी निभाना चाहते हैं। न केवल सरकारें बल्कि प्रशासन भी इन धर्मगुरुओं के आभामंडल में जी रहा है और इनके समर्थकों की नाराजगी से बचना चाहता है। इन मामलों में हमारे राजनीतिक नेतृत्व के नकारेपन एवं वोट की राजनीति भी उभरती हुई देखी जा रही है। हमारे नेतागण किसी समुदाय विशेष का समर्थन हासिल करने के लिए उसका सहयोग लेते हैं और बदले में उसे अपना संरक्षण देते हैं। इसी के बलबूते ऐसे समुदायों के प्रमुख अपना प्रभाव बढ़ाते चले जाते हैं। प्रभाव ही नहीं अपना पूरा साम्राज्य बनाते जाते हैं। बात चाहे रामपाल, आसाराम बापू या फिर राम रहीम की हो। ऐसे धर्मगुरुओं की एक बड़ी जमात हमारे देश में खड़ी है। धर्म के नाम पर इस देश में जो हो रहा है, वह गैरकानूनी होने के साथ-साथ अमानवीय एवं अनैतिक भी है। इन धर्मगरुओं के मामलों में जहां कानून-व्यवस्था की भयानक दुर्गति और सरकार की घोर नाकामी आदि के अलावा भी अनेक सवाल हमें सोचने को विवश करते हैं। यह धर्म या अध्यात्म का कौन सा रूप विकसित हो रहा है, जिसमें बेशुमार दौलत, तरह-तरह के धंधे, अपराध, प्रचार की चकाचौंध और सांगठनिक विस्तार का मेल दिखाई देता है। इसमें सब कुछ है, बस धर्म या अध्यात्म का चरित्र नहीं है। इस तरह के धार्मिक समूह अपने अनुयायियों या समर्थकों और साधनों के सहारे चुनाव को भी प्रभावित कर सकने की डींग हांकते हैं और विडंबना यह है कि कुछ राजनीतिक नेता उनके प्रभाव में आ भी गए हैं। यह धर्म और राजनीति के घिनौने रूप का मेल है। स्वार्थांध लोगों ने धर्म का कितना भयानक दुरुपयोग किया है, राम रहीम का प्र्रकरण इसका ज्वलंत उदाहरण है। इस बात पर जोरदार बहस की जरूरत है कि धर्मगुरुओं और राजनीति का गठबंधन देश के हितों के अनुकूल है या नहीं? दूसरा सवाल यह है कि कहीं इस गठबंधन से कुछ संवैधानिक सिद्धांतों जैसे धर्मनिरपेक्षता का उल्लंघन होने का खतरा तो नहीं है? जब धर्मगुरु राजनीति की ओर आने की बात करते हैं, तो उनका सबसे बड़ा संदेश भ्रष्टाचार विरोध और नैतिकता का होता है। वे कहते हैं कि मौजूदा राजनीति की मुख्य समस्या भ्रष्टाचार है और वे उसे दूर करेंगे। राष्ट्र निर्माण के लिए यह बहुत अच्छा कार्य है, पर क्यों न इसकी शुरुआत स्वयं धर्मगुरुओं के भ्रष्टाचार, धांधली एवं अन्य आपराधिक गतिविधियों को दूर करके ही की जाए। ऐसा होने पर ही इन धर्मगरुओं की बातों पर लोगों को यकीन होगा। यह कैसी धार्मिकता है? यह कैसा समाज निर्मित हो रहा है, जिसमें अपराधी महिमामंडित होते हैं और निर्दोष सजा एवं तिरस्कार पाते हैं। धर्म के ठेकेदारों का राष्ट्र में कैसा घिनौना नजारा निर्मित हुआ है। धर्म की आड़ में अपराध का साथ देने, दोषी को बचाने की यह मुहिम संपूर्ण मानवता एवं धार्मिकता पर भी एक कलंक है। धर्मगुरुओं का कोरा नकारात्मक प्र्रभाव ही नहीं है। कुछ संतुलित एवं वास्तविक धर्मगुरुओं का अच्छा असर भी देखा गया है। उनके प्रयासों से बहुत से लोगों ने योग को अपनाया है। स्वास्थ्य व जड़ी-बूटियों संबंधी बहुत से अमूल्य परंपरागत ज्ञान को भी करोड़ों लोगों तक पहुंचाया गया है। नशामुक्ति की प्रेरणा एवं सकारात्मक वातावरण भी बना है। सामाजिक कुरीतियों एवं रूढि़यों के खिलाफ भी जनजागृति का माहौल बना है। लेकिन धर्म की आड़ में जितनी बुराइयां फैल रही हैं, उनकी तुलना में यह बहुत कम है। जरूरत धर्मगुरुओं को वास्तविक धर्मगुरु बनने की है। एक संतुलित, आदर्श एवं व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाने की है। धर्मगुरुओं की बढ़ती आकांक्षाएं भौतिक साम्राज्य स्थापित करने एवं देश-दुनिया में अपनी यश-कीर्ति बढ़ाने की अतिशयोक्तिपूर्ण इच्छाएं कई बार इस संतुलन को बिगाड़ देती हैं और लोग भ्रमित हो जाते हैं। इतना ही नहीं, कुछ धर्मगुरुओं ने अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाने के लिए चमत्कारों का सहारा भी लिया है। हालांकि छोटे-मोटे जादूगर भी यह बता देते हैं कि ये चमत्कार वास्तव में हाथ की सफाई भर होते हैं। अंधविश्वासों व अंधभक्ति का सहारा लेकर लोकप्रियता प्राप्त करना अनुचित है। इन धर्मगुरुओं के बढ़ते पाखंड एवं आपराधिक गतिविधियों को समय रहते नहीं रोका गया, तो यह ऐसा अंधेरा फैलाएगा, जिसमें बहुत कुछ स्वाह हो जाएगा।


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