नारद जयंती

By: Apr 28th, 2018 12:05 am

नारद मुनि हिंदू शास्त्रों के अनुसार ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक माने गए हैं। ये भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक माने जाते है। ये स्वयं वैष्णव हैं और वैष्णवों के परमाचार्य तथा मार्गदर्शक हैं। ये प्रत्येक युग में भगवान की भक्ति और उनकी महिमा का विस्तार करते हुए लोक कल्याण के लिए सर्वदा सर्वत्र विचरण किया करते हैं। भक्ति तथा संकीर्तन के ये आद्य आचार्य हैं। इनकी वीणा भगवन जप ‘महती’ के नाम से विख्यात है। उससे नारायण-नारायण की ध्वनि निकलती रहती है। इनकी गति अव्याहत है। ये ब्रह्म मुहूर्त में सभी जीवों की गति देखते हैं और अजर-अमर हैं। भगवद भक्ति की स्थापना तथा प्रचार के लिए ही इनका आविर्भाव हुआ है। उन्होंने कठिन तपस्या से ब्रह्मर्षि पद प्राप्त किया है। देवर्षि नारद धर्म के प्रचार तथा लोक कल्याण हेतु सदैव प्रयत्नशील रहते हैं। इसी कारण सभी युगों में, सब लोकों में, समस्त विद्याओं में, समाज के सभी वर्गो में नारद जी का सदा से प्रवेश रहा है। मात्र देवताओं ने ही नहीं, वरन् दानवों ने भी उन्हें सदैव आदर दिया है। समय-समय पर सभी ने उनसे परामर्श लिया है।

पौराणिक उल्लेख- खड़ी शिखा, हाथ में वीणा, मुख से नारायण शब्द का जाप, पवन पादुका पर मनचाहे वहां विचरण करने वाले नारद से सभी परिचित हैं। श्रीकृष्ण देवर्षियों में नारद को अपनी विभूति बताते हैं । वैदिक साहित्य, रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृतियां सभी शास्त्रों में कहीं न कहीं नारद का निर्देश निश्चित रूप से होता ही है। ऋग्वेद मंडल में 8-9 के कई सूक्तों के दृष्टा नारद हैं। अथर्ववेद, ऐतरेय ब्राह्मण, मैत्रायणी संहिता आदि में नारद का उल्लेख है। जन्म कथा- पूर्व कल्प में नारद उपबर्हण नाम के गंधर्व थे। उन्हें अपने रूप पर अभिमान था। एक बार जब ब्रह्मा की सेवा में अप्सराएं और गंधर्व गीत और नृत्य से जगत्स्रष्टा की आराधना कर रहे थे, उपबर्हण स्त्रियों के साथ शृंगार भाव से वहां आया। उपबर्हण का यह अशिष्ट आचरण देख कर ब्रह्मा कुपित हो गए और उन्होंने उसे शूद्र योनि में जन्म लेने का श्राप दे दिया। श्राप के फलस्वरूप वह शूद्रा दासी का पुत्र हुआ। माता पुत्र साधु संतों की निष्ठा के साथ सेवा करते थे। पांच वर्ष का बालक संतों के पात्र में बचा हुआ झूठा अन्न खाता था, जिससे उसके हृदय के सभी पाप धुल गए। बालक की सेवा से प्रसन्न हो कर साधुओं ने उसे नाम जाप और ध्यान का उपदेश दिया। शूद्रा दासी की सर्पदंश से मृत्यु हो गई। अब नारद जी इस संसार में अकेले रह गए। उस समय इनकी अवस्था मात्र पांच वर्ष की थी। माता के वियोग को भी भगवान का परम अनुग्रह मानकर ये अनाथों के नाथ दीनानाथ का भजन करने के लिए चल पड़े। एक दिन वह बालक एक पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान लगा कर बैठा था कि उसके हृदय में भगवान की एक झलक विद्युत रेखा की भांति दिखाई दी और तत्काल अदृश्य हो गई। उसके मन में भगवान के दर्शन की व्याकुलता बढ़ गई, जिसे देख कर आकाशवाणी हुई, हे दासीपुत्र! अब इस जन्म में फिर तुम्हें मेरा दर्शन नहीं होगा। अगले जन्म में तुम मेरे पार्षद रूप में मुझे पुनः प्राप्त करोगे। समय बीतने पर बालक का शरीर छूट गया और कल्प के अंत में वह ब्रह्म में लीन हो गया। समय आने पर नारद जी का पांचभौतिक शरीर छूट गया और कल्प के अंत में ये ब्रह्मा जी के मानस पुत्र के रूप में अवतीर्ण हुए। ये भगवान के विशेष कृपापात्र और लीला सहचर हैं। जब-जब भगवान का आविर्भाव होता है, ये उनकी लीला के लिए भूमिका तैयार करते हैं। लीलापयोगी उपकरणों का संग्रह करते हैं और अन्य प्रकार की सहायता करते हैं इनका जीवन मंगल के लिए ही है। देवर्षि नारद व्यास, बाल्मीकि तथा महाज्ञानी शुकदेव आदि के गुरु हैं। श्रीमद्भागवत जो भक्ति, ज्ञान एवं वैराग्य का परमोपदेशक ग्रंथ रत्न है तथा रामायण, जो मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के पावन, आदर्श चरित्र से परिपूर्ण है, देवर्षि नारदजी की कृपा से ही हमें प्राप्त हो सके हैं। इन्होंने ही प्रह्लाद, धु्रव, राजा अंबरीष आदि महान भक्तों को भक्ति मार्ग में प्रवृत्त किया। ये भागवत धर्म के परम गूढ़ रहस्य को जानने वाले, ब्रह्मा, शंकर, सनत्कुमार, महर्षि कपिल, स्वयंभुव मनु आदि बारह आचार्यों में अन्यतम हैं। देवर्षि नारद द्वारा विरचित भक्तिसूत्र बहुत महत्त्वपूर्ण है। देवर्षि नारद भगवान के भक्तों में सर्वश्रेष्ठ हैं। ये भगवान की भक्ति और माहात्म्य के विस्तार के लिए अपनी वीणा की मधुर तान पर भगवद गुणों का गान करते हुए निरंतर विचरण किया करते हैं। इनके द्वारा प्रणीत भक्तिसूत्र में भक्ति की बड़ी ही संुदर व्याख्या है। अब भी ये अप्रत्यक्षरूप से भक्तों की सहायता करते रहते हैं।

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