पर्यावरण के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण की जरूरत

By: Apr 19th, 2018 12:05 am

प्रताप सिंह पटियाल

लेखक, बिलासपुर से हैं

यह बात काफी हद तक सही है कि देश की उन्नति के लिए सड़कें, बिजली व बड़े उद्योग लगाने जरूरी हैं, मगर इस अनियंत्रित विकास के नाम पर हजारों की संख्या में अंधाधुंध पेड़ों का कटान व बड़ी मशीनों द्वारा खनन करके प्रकृति के साथ जो खिलवाड़ किया जा रहा है, वास्तव में हम विकास के साथ-साथ विनाश को भी अंजाम देते जा रहे हैं…

आज के औद्योगिक युग में पर्यावरण को बचाना दुनिया के सामने एक बड़ी चुनौती है, जिसके लिए हर साल 22 अप्रैल का दिन ‘पृथ्वी दिवस’ के रूप में भी मनाया जाता है। इस दिन को मनाने की प्रेरणा का श्रेय अमरीकी सीनेटर ‘गेलार्ड नेलसन’ को जाता है, उन्हीं के प्रयास से 22 अप्रैल, 1970 से इस दिन की शुरुआत हुई, जिसका उद्देश्य लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक और सचेत करना है। 2009 से संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी इस दिन को मनाने की घोषणा कर दी है और अब यह दिवस लगभग दुनिया के हर कोने में मनाया जाता है। मगर यह एक विडंबना है कि जिस अमरीकी देश से इस दिवस को मनाने की शुरुआत हुई, वही अमरीका दुनिया भर के विकसित देशों में सबसे ज्यादा ‘ग्रीन हाउस गैस’ का उत्सर्जक देश है, लगभग 25 प्रतिशत से भी अधिक और उसी ने ‘क्योटो प्रोटोकॉल’ नामक संधि की शर्तों को इसलिए मानने से इनकार कर दिया कि इससे उसकी अर्थव्यवस्था को नुकसान होगा। 1997 में जापान के क्योटो शहर में पर्यावरण संबंधी सम्मेलन हुआ था, जिसमें पर्यावरण के बचाव के लिए कुछ शर्तें रखी थीं, जिसे क्योटो प्रोटोकॉल का नाम दिया गया था और इसके बाद भी पर्यावरण से संबंधी जितने सम्मेलन हुए अमरीका का रवैया अलगाववादी ही रहा। मगर भारतवर्ष के प्राचीनतम ग्रंथों में पर्यावरण और ‘अरण्य संस्कृति’ की घनिष्ठता तथा पर्यावरण संरक्षण के कई उल्लेख मिलते हैं।

पर्यावरण के लिए सबसे बड़ी चुनौती वनों में लगने वाली आग से है और देवभूमि का कुल वन क्षेत्र 37033 वर्ग किलोमीटर है, जिसमें लगभग 8820 वर्ग किलोमीटर का इलाका संवेदनशील क्षेत्र माना जाता है। वनों की आग के कारण जहां करोड़ों रुपए की वन संपदा जलकर राख होती है, जिसे आंकना मुश्किल है, वहीं कई दुर्लभ जीव आग की चपेट में आते हैं तथा कुछ वन्य जीव प्रजातियां विलुप्त भी हो रही हैं, जिनमें से गिद्घों का अस्तित्व तो लगभग लुप्त होने की कगार पर ही है। इन्हीं वनों की आग के कारण कुछ जानवर कस्बों का रुख कर लेते हैं, जिसका सीधा नुकसान किसानों और बागबानों को उठाना पड़ता है। इस बार साल के शुरुआत में ही वनों की आग की कुछ घटनाएं सामने आ चुकी हैं, मगर ये घटनाएं मानवीय हस्तक्षेप के कारण ही घटित होती हैं, जबकि भारतीय वन अधिनियम 1927 के तहत वनों में आग लगाना जुर्म है। ‘ग्लोबल वार्मिंग’ की समस्या का गंभीर होना इन्हीें वनों की आग का एक मुख्य नतीजा है, जिसका प्रभाव देश के कृषि व बागबानी क्षेत्र पर देखने को मिल रहा है। इसके साथ ही देश के कई राज्यों में किसानों द्वारा धान की पराली को जलाना, जो कि पर्यावरण के लिए बहुत ही घातक है, जिसके लिए देश के प्रधानमंत्री से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक किसानों से इसे न जलाने की अपील की जा चुकी है, साथ ही ‘नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल’ ने भी पराली जलाने पर प्रतिबंध लगा रखा है, मगर इसके लिए बनाई गई नीतियों का धरातल पर कोई असर नहीं दिखता।

इसके अलावा कई देशों द्वारा परमाणु शक्ति बनाने की होड़ में आए दिन घातक मिसाइलों तथा परमाणु परीक्षण करने से परमाणु विकिरिण का निकलता प्रभाव और आतंक को मिटाने के नाम पर कई देशों पर बरसती बमबारी के जलते बारूद के उठते धुएं से तापमान में लगातार हो रही वृद्धि पर्यावरण के लिए सीधी चुनौती है, जिसके असर से ग्लेशियरों का पिघलना पर्यावरण संतुलन के लिए किसी खतरे से कम नहीं है। इसके साथ उद्योगों से उठ रहा धुआं भी शामिल है। जनसंख्या विस्फोट भी पर्यावरण के लिए कोई कम खतरा नहीं है। कचरा जहां पर्यावरण को दूषित करने का एक बड़ा कारण है, जिसके लिए हाई कोर्ट की तरफ से भी प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को इसके ठोस विकल्प ढूंढने के लिए कहा जा चुका है, जबकि राज्य में पोलिथीन पर पूर्ण प्रतिबंध है, मगर इस पर अभी तक अंकुश लगाने के लिए प्रभावी कार्य योजना की जरूरत है। मगर दुर्भाग्य से हमारे देश में कई बार कचरा भी सियासत को चमकाने के ज्यादा काम आता है।

यह बात काफी हद तक सही है कि देश की उन्नति के लिए सड़कें, बिजली व बड़े उद्योग लगाने जरूरी हैं, मगर इस अनियंत्रित विकास के नाम पर हजारों की संख्या में अंधाधुंध पेड़ों का कटान व बड़ी मशीनों द्वारा खनन करके प्रकृति के साथ जो खिलवाड़ किया जा रहा है, वास्तव में हम विकास के साथ-साथ विनाश को भी अंजाम देते जा रहे हैं। इसका आकलन असंभव है, क्योंकि इसके अनुरूप पर्यावरण की रक्षा नहीं हो रही और पर्यावरण को बचाने के लिए विकास और विनाश में संतुलन जरूरी है, ताकि प्राकृतिक संसाधनों को लगातार दोहन से बचाया जा सके। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर के प्रयासों की जरूरत है। पर्यावरण के नाम पर हर साल सरकारों द्वारा पौधारोपण जैसी योजनाओं पर करोड़ों रुपए खर्च करने के बाद भी जमीनी स्तर पर इसके सार्थक परिणाम नहीं निकलते। अमरीकी ‘वर्ल्ड वाच’ नामक संस्था की मानें तो आने वाले तीस सालों तक पृथ्वी का तापमान तीन डिग्री बढ़ने का अनुमान है, जो कि एक ताप युग की धीमी आहट है तथा अंटार्कटिका जैसे हिमखंडों के लिए खतरे की घंटी है। विश्व आर्थिक मंच और यूरोपीय संघ के संयुक्त शोध केंद्र के पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक 2018 की रिपोर्ट के अनुसार पर्यावरण की अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग में शामिल 180 देशों की सूची में भारत 177वें स्थान पर है जो चिंता की बात है।

 


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