प्रारंभिक पहाड़ी बोलियों में समानता और चुनौतियां

By: Apr 22nd, 2018 12:05 am

बोली का ज्ञान माता-पिता से मिलता है। बालक जीवन में जो कुछ बड़ा बनता है, वह माता-पिता द्वारा सिखाई गई बातों पर निर्भर करता है। ज्ञान के छोटे-छोटे टुकड़ों से जीवन का निर्माण होता है। मौलिकता और रचनात्मकता संयोजन के विवेकपूर्ण प्रबंधन का परिणाम है। रचनात्मक प्रतिभा चीजों का संयोजन करती है। उसमें यह भावना रहती है कि किस चीज को छोड़ दिया जाए, किसे बचाकर रखा जाए। कविता, आलेख, साहित्य भावनाओं के साथ-साथ भाषा का विषय है। भाषा ही भावनाओं को प्रकट करती है। साहित्य पढ़ने व विश्वास करने की ही नहीं, बल्कि पड़ताल किए जाने की चीज है, जब हम बात को पढ़ते हैं तो हमें सवाल करना चाहिए कि यह किताब क्या कहती है। इसे सुधारा जाना चाहिए। इसी प्रकार हमारी प्रारंभिक शिक्षा, ज्ञान, जानकारी हमें अपनी बोली में मिलती है। बालक जन्म के पश्चात बोलना शुरू करता है। वह प्रयास करता है कि कुछ न कुछ बोले, यहां से ही बोली का श्रीगणेश होता है। हमें जिस भाषा में बोलने का अवसर मिलता है, वहीं बोली का विकास प्रारंभ हो जाता है और यह निरंतर बढ़ता जाता है, विकास की सीढ़ी पर अग्रसर होता जाता है। बोली में जो ज्ञान है, सादापन और सच्चाई है, वह पुस्तक में नहीं। बोलियों में अपनापन, सौहार्द व दुःख-सुख निहित होता है, जो मनुष्य को अच्छे-बुरे दिनों में सुकून देता है। प्रसिद्ध साहित्यकार ग्रियर्सन ने बोलियों का अध्ययन व शोध किया था। उनके अनुसार पहाड़ी इलाकों में कई बोलियां प्रचलित थीं, जिनका प्रयोग अपनी-अपनी रियासत में सीमित था। वर्ष 1947 से पहले भारत अंग्रेजों के अधीन था। छोटी-छोटी रियासतों में राजाओं का राज था। इस कारण राजा व क्षेत्र की बोली इसी के नाम से प्रचलित हो गई। उदाहरण के तौर पर शिमला से ऊपर का इलाका महासू कहलाता था, जिसमें रामपुर, जुब्बल, घूंड, थरोच, मतियाना, कोटी, सुन्नी, कुमारसेन, कोटगढ़ आदि छोटी-बड़ी रियासतें थीं। इस क्षेत्र की बोली महासुवी-शौरसेनी प्रचलित हो गई। सिरमौर में जानसार बावर बोली प्रचलित होती रही। निचले क्षेत्र में बघाट, हंडूर (नालागढ़), अर्की रियासत, जो लोअर महासू कहलाता था, यहां की बोलियां रियासत के नाम पर प्रचलित हो गइर्ं। अर्की के साथ लगते क्षेत्र बाघल व दौंई में बघल्याली और जुखाला, ब्रह्मपुखर, भराड़ीघाट तक मिश्रित कहलूरी-बघल्याली प्रचलित हो गई। मंडी-सुकेत रियासत में मंडयाली बोली प्रचलित रही। कुल्लू जिला के साथ लगते सिराज में सिराजी, सैंज में सैंजी प्रचलित रही। कुल्लू की बोली कुल्लवी है, कई जगह पर कांगड़ी बोली किरती का भी प्रचलन है। ग्रियर्सन ने कांगड़ी बोली का ज्यादा वर्णन नहीं किया है, क्योंकि यह बोली मुख्य तौर पर कांगड़ा क्षेत्र की बोली है और यह क्षेत्र पंजाब रियासत में था। मंडी के साथ कुल्लू व लाहुल-स्पीति क्षेत्र जिला है। पंजाब सरकार भाषा विभाग ने वर्ष 1964 में भाषा विकास पर कार्य करते हुए कांगड़ी शब्दकोष बनाया व प्रकाशित किया। इस शब्दकोष के अनुसार कांगड़ा, हमीरपुर, ऊना में कांगड़ी बोली लोगों में प्रचलित रही है। इसी शब्दकोष के मुताबिक बड़ा भंगाल व छोटा भंगाल की बोली भंगाली है। लाहुल-स्पीति जिला की बोली किरती है। लाहुल व स्पीति उपमंडलों में किरती, स्पीति व भोटी उपबोली हैं।

तिब्बती भाषा का भी प्रभाव इस क्षेत्र में है। डा. बंसीराम शर्मा ने किन्नौर के लोक साहित्य पर शोध कर इस तथ्य की पुष्टि की है। किन्नौर जिला की बोली किन्नौरी है। इसमें तिब्बती बोली व भोटी उपभाषा का प्रभाव देखने व पढ़ने को मिलता है। चंबा जिला की बोली चंबयाली, पंगवाली व भटियात उपमंडल की बोली कांगड़ी मिश्रित है। चंबा की बोली का वर्णन ग्रियर्सन ने भी शोध प्रबंध में किया है। चंबा की रियासत दूर पंजाब से सटी थी, परंतु रियासत स्वयं राजकाज करती थी। इसलिए यह बोली अपने क्षेत्र में सक्षम व समृद्ध रही और बाहरी राज्यों, रियासतों के प्रभाव से बची रही और अपनी अलग पहचान बनाए रखी। कांगड़ा पंजाब में था, इसलिए पंजाबी बोली का प्रभाव बना रहा और पंजाब के कर्मचारी, अधिकारी कांगड़ी बोली पर असर डालते रहे। इसी कारण नूरपुर, इंदौरा, तलवाड़ा, ऊना क्षेत्रों में बोली मिश्रित पंजाबी प्रचलित हो गई। हमारी बोलियों में धार्मिक स्थानों की कहानियां, जनश्रुतियां व गीत समाहित हैं। इन बातों से शिक्षा व ज्ञान प्राप्त होता है। कई मंदिरों की गाथाएं ऐतिहासिक दस्तावेज हैं। समाज विकास व धार्मिक श्रद्धा को बनाए रखने के लिए बोलियों व उप बोलियों का अध्ययन, शोध व संरक्षण बहुत ही आवश्यक है।

भाषा विभाग व हिमाचल प्रदेश सरकार को निर्णय लेकर बोलियों के विकास व प्रचार-प्रसार के लिए जिला स्तर पर समितियां बनानी चाहिए, जिनमें लेखक व शोधकर्ता नियुक्त किए जाएं और सारे तथ्य प्रमाण सहित संकलित किए जाएं, ताकि हिमाचली पहाड़ी भाषा बनाने में सहायता मिले। इसके अलावा शब्दकोष बनाया जाए। वर्ष 1964 का शब्दकोष बहुत पुराना है। अब नया शब्दकोष बनाना चाहिए। पहाड़ी भाषा को लोकप्रिय बनाने के लिए बोलियों पर आधारित शैक्षणिक संस्थाओं में प्रतियोगिताएं की जाएं, अध्यापकों को विद्यालय व महाविद्यालयों की स्मारिका में बोलियों में आलेख, कविता लेखन करना जरूरी शर्त रखी जाए। कर्मचारियों के लिए भाषा की परीक्षा शुरू की जाए। नौवीं, दसवीं, 11वीं, 12वीं में हिमाचली भाषा की पढ़ाई करा कर परीक्षा ली जाए। शैक्षणिक संस्थाओं में काव्य पाठ प्रतियोगिता करा कर भाषा को लोकप्रिय बनाया जाए।

-डा. ओपी शर्मा, नादौन

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