बंगाल में पंचायत चुनाव ममता स्टाइल

By: Apr 14th, 2018 12:10 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

शायद आम जनता के इसी दबाव के चलते प्रदेश के चुनाव आयोग ने नामांकन पत्र दाखिल करने की तारीख बढ़ा दी। उसके बाद सरकार का दबाव बढ़ा होगा तो अगले दिन आयोग ने वह अधिसूचना वापस भी ले ली। भाजपा इस धांधली के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में गई। न्यायालय ने आयोग के इस रवैए पर आश्चर्य प्रकट किया और पार्टी को मामला कलकत्ता हाई कोर्ट में ले जाने के लिए कहा। अब कलकत्ता हाईकोर्ट ने 16 अप्रैल तक चुनाव संबंधी सभी कार्यवाही पर रोक लगा दी है। लेकिन चुनावों को लेकर मारपीट बदस्तूर जारी है…

ममता बनर्जी की तारीफ इसलिए की जाती है कि उसने पश्चिमी बंगाल में तीस साल से राज कर रही सीपीएम को अकेले अपने बलबूते धूल चटा दी। लेकिन बंगाल में साम्यवादियों को सिंहासन से गिरा कर जो सिंहासन ममता बनर्जी ने संभाला, उसे बचाए रखने के लिए दुर्भाग्य से वह भी वही सारे सूत्र आजमा रही हैं जो तीस साल तक साम्यवादी आजमाते रहे थे। वे पशुबल से अपने विरोधियों को डराते थे और उन्हें सामान्य लोकतांत्रिक गतिविधियों का हिस्सा नहीं बनने देते थे। ममता भी उसी राह पर चली हुई हैं। अभी बंगाल में पंचायत चुनावों का दौर चल रहा है। पश्चिमी बंगाल में ग्राम पंचायतों में 48650 पंचों-सरपंचों, 9217 पंचायत समिति सदस्यों और  825 जिला परिषद सदस्यों के पदों के लिए 1 मई से 5 मई तक चुनाव होंगे। उसके लिए नामांकन प्रक्रिया शुरू हो गई है। तृणमूल कांग्रेस के लोग अपने विरोधियों को नामांकन तक नहीं करने दे रहे हैं। कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों ही न्यायालयों में गुहार लगा रहे हैं कि उनके प्रत्याशियों को नामांकन पत्र नहीं भरने दिए जा रहे। जब विरोधियों को नामांकन पत्र ही नहीं भरने दिए जाएंगे तो धरातल पर लोकतंत्र कहां बचेगा? इस तरह तो लोकतंत्र धराशायी हो जाएगा।

शायद आम जनता के इसी दबाव के चलते प्रदेश के चुनाव आयोग ने नामांकन पत्र दाखिल करने की तारीख बढ़ा दी। उसके बाद सरकार का दबाव बढ़ा होगा तो अगले दिन आयोग ने वह अधिसूचना वापस भी ले ली। भाजपा इस धांधली के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में गई। न्यायालय ने आयोग के इस रवैए पर आश्चर्य प्रकट किया और पार्टी को मामला कलकत्ता हाई कोर्ट में ले जाने के लिए कहा। अब कलकत्ता हाईकोर्ट ने 16 अप्रैल तक चुनाव संबंधी सभी कार्यवाही पर रोक लगा दी है। लेकिन चुनावों को लेकर मारपीट बदस्तूर जारी है। मारपीट में रोज अनेक लोग घायल हो रहे हैं। लेकिन कहीं गहराई में लोकतंत्र भी घायल हो रहा है। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि एक जिला की जिला परिषद की 42 सीटों में से 41 सीटें तृणमूल कांग्रेस ने निर्विरोध जीत ली हैं। परोक्ष रूप से इसका अर्थ हुआ कि किसी भी विरोधी को नामांकन पत्र ही नहीं भरने दिए।

उधर तृणमूल का कहना है कि जिले का विकास ही इतना हो गया है कि विरोधी पक्ष भी गदगद है और चुनाव लड़ने में कोई लाभ नहीं देखता। यदि ममता की पार्टी का यह तर्क विधानसभा चुनावों तक चलता रहा तो उनकी पार्टी कह सकती है कि सरकार ने राज्य में इतना विकास करवा दिया है कि अब चुनाव करवाने की जरूरत ही नहीं है। ममता की इस निर्ममता का सबसे ज्यादा शिकार भारतीय जनता पार्टी हो रही है। ममता का क्रोध उतना सोनिया कांग्रेस और सीपीएम पर नहीं है जितना भाजपा पर। इसका कारण शायद यही है कि ममता भविष्य में इन दलों के साथ चुनावी समझौता कर सकती हैं। अतः उन पर प्रहार करने से बच रही हैं।

लेकिन प्रश्न उठता है कि विरोधी दलों, खासकर भाजपा के कार्यकर्ताओं को पशुबल का निशाना बनाने वाली हमला ब्रिगेड ममता बनर्जी के पास कहां से आई। बंगाल में सभी जानते हैं कि यह वही ब्रिगेड है जो कुछ साल पहले साम्यवादियों की सरकार के लिए काम करती थी। आज जब वहां से तम्बू उखाड़ दिए गए हैं तो वे अपना पुराना दरबार छोड़कर नए दरबार में हाजिर हो गए हैं। लेकिन ममता के इस क्रोध की कुछ सीमा तक शिकार सीपीएम और कांग्रेस भी हो रही हैं। उनके प्रत्याशियों को भी नामांकन पत्र नहीं भरने दिए जा रहे। जो गुंडे कल तक सीपीएम के कहने पर तृणमूल के कार्यकर्ताओं की पिटाई करते थे, वही गुंडे अब तृणमूल के कहने पर सीपीएम के कारकूनों को सबक सिखा रहे हैं।

इसलिए भाजपा, कांग्रेस और सीपीएम तीनों ही तृणमूल के इस तानाशाही पूर्ण व्यवहार का विरोध कर रहे हैं। चाहे आपस में मिल कर नहीं कर रहे, बेशक अलग-अलग ही कर रहे हैं। लेकिन प्रश्न उठता है कि एक ओर तो ममता बनर्जी कांग्रेस और सीपीएम को साथ लेकर देशभर में भाजपा के खिलाफ सांझा मोर्चा बनाने के लिए दिन-रात एक कर रही हैं, दूसरी ओर वह अपने राज्य में इन दोनों की पिटाई भी कर रही हैं। ममता ये दोनों परस्पर विरोधी कार्य एक साथ कैसे कर सकती हैं? ममता के इस काम में ऊपर से विरोधाभास दिखाई दे रहा है। दरअसल है नहीं। बंगाल के बाहर ममता या उसके तृणमूल का तो कोई आधार या काम नहीं है। यदि उसको देश की राजनीति में कोई भूमिका निभानी है तो उसके पास तीस-पैंतीस लोकसभा की सीटें होनी चाहिएं। वह उसे केवल अपने प्रदेश से ही मिल सकती हैं।

उसे इतना भी पता है कि चाहे वह बंगाल में कांग्रेस, सीपीएम और भाजपा को अलग-अलग कितना भी क्यों न पीट ले, ये तीनों उसे हराने के लिए बंगाल में कभी इकठ्ठे नहीं हो सकते। अन्य प्रदेशों में बनने वाले मोर्चों में ममता की अपनी कोई भूमिका नहीं है। वह केवल फैसिलिटेटर हैं। फैसिलिटेशन का काम करने के एवज में यदि उसे कुछ मिल जाता है तो उसे क्या नुकसान है? ममता इतना तो जानती हैं कि पंचायतों के चुनाव लोकतंत्र में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं। जिस पार्टी की ग्रामीण नेतृत्व पर पकड़ हो जाती है, वह देर-सवेर राज्य की राजनीति में जड़ जमा सकती है। ममता जानती हैं कि बंगाल में कांग्रेस और सीपीएम भूतकाल की पार्टियां हैं और भाजपा भविष्य की पार्टी है।

इसलिए उसके निशाने पर सबसे ज्यादा भाजपा ही है। इसका परिणाम क्या होगा, इसके लिए पंचायत चुनावों के परिणामों का इंतजार करना होगा। इस प्रदेश में अगर लोकतंत्र को बचाना है तो चुनाव आयोग को सख्ती करके तृणमूल की गुंडागर्दी पर रोक लगानी होगी। अगर सभी दल चुनाव ही नहीं लड़ पाएंगे, तो काहे का लोकतंत्र। लोकतंत्र तो वास्तव में तब होगा, जब सभी दलों को चुनाव लड़ने की इजाजत होगी।

ई-मेलःkuldeepagnihotri@gmail.com

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