बिना विजन के विपक्ष का क्या औचित्य

By: Apr 26th, 2018 12:10 am

पीके खुराना

लेखक, वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं

विपक्ष के पास रचनात्मक विपक्ष की भूमिका को लेकर कोई ‘विजन’ नहीं है। यदि कहीं दंगा हो जाए तो विपक्ष का नेता सहानुभूति जताने के लिए वहां पहुंच जाता है, लेकिन क्या विपक्ष ऐसी कोई कोशिश करता है कि भविष्य में वहां दंगा न हो? यदि जनता किसी समस्या से दो-चार हो रही हो, तो विपक्ष के नेता सरकार की आलोचना करते हैं, लेकिन क्या वह खुद आगे बढ़कर समस्या के समाधान के लिए कुछ नहीं कर सकते? क्या केवल सरकारी मशीनरी ही सब कुछ कर सकती है। क्या विपक्ष की भूमिका इतनी सी है…

चुनाव होते हैं, कोई राजनीतिक दल जीत जाता है, कोई हार जाता है। विजयी दल का नेता इसे जनता की जीत बताता है और वायदा करता है कि उनका दल महंगाई पर काबू पाएगा, भ्रष्टाचार पर रोक लगाएगा और साफ-सुथरा प्रशासन देगा। इसी तरह पराजित दल का नेता जनता की इच्छा को विनम्रता से स्वीकार करने की बात कहते हुए रचनात्मक विपक्ष की भूमिका निभाने का आश्वासन देता है। दरअसल, दोनों ही नेता झूठ बोल रहे होते हैं। विजयी दल के नेता के पास महंगाई घटाने का कोई फार्मूला नहीं होता और भ्रष्टाचार पर रोक लगाने की तो इच्छा भी नहीं होती। यही हाल विपक्षी दल का भी है। जनता की इच्छा को स्वीकार करने के अलावा उनके पास चारा भी क्या है? और रचनात्मक विपक्ष की अवधारणा से भी उनका दूर का रिश्ता नहीं है। आइए, जरा इस बात पर गौर करें कि रचनात्मक विपक्ष की भूमिका क्या है, उसमें क्या अड़चनें हैं और उन्हें दूर करने के लिए क्या किया जा सकता है। सबसे पहले तो हमें यह समझना होगा कि रचनात्मक विपक्ष की भूमिका में खुद हमारा संविधान एक बहुत बड़ी अड़चन है। सत्ताधारी दल सत्ता में इसलिए आया क्योंकि उसके पास बहुमत था। हमारे संविधान में यह प्रावधान है कि केंद्र सरकार क ी मंत्रिपरिषद में किसी व्यक्ति को तभी शामिल किया जा सकता है अगर वह संसद के किसी सदन का सदस्य हो, या फिर उसे छह माह के अंदर चुनाव जीत कर किसी एक सदन का सदस्य बनना होगा। इसके परिणाम को समझने से पहले हमें यह समझना होगा कि सरकार के तीनों अंगों यानी विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के कार्य और शक्तियां अलग-

अलग हैं।

विधायिका यानी संसद देश के लिए नए कानून बनाती है, आवश्यक होने पर पुराने कानूनों की समीक्षा करके उनमें संशोधन करती है या उन्हें रद्द करती है। संसद के बनाए कानूनों को कार्यपालिका, यानी सरकार लागू करती है और न्यायपालिका देश में प्रचलित कानूनों की व्याख्या करती है, विवादों का निपटारा करती है और न्याय देती है। दिखने में तीनों अंग स्वतंत्र हैं, लेकिन व्यवहार में बड़ा फर्क है क्योंकि कार्यपालिका में शामिल लोगों का संसद के किसी सदन यानी विधायिका का सदस्य होना आवश्यक है। इसका परिणाम यह है कि कार्यपालिका कानून बनाती भी है, उन्हें लागू भी करती है और शासन भी चलाती है। कार्यपालिका, यानी सरकार के पास सिर्फ कानून बनाने और शासन करने की दोहरी शक्तियां ही नहीं हैं, बल्कि व्यवहार में ये शक्तियां लगभग असीमित हैं। संसद में विपक्ष का लाया कोई बिल पास नहीं होता, अतः संसद के आधे सदस्य तो विधायिका में होते हुए भी अप्रासंगिक हो जाते हैं। सरकार को संसद में किसी परेशानी का सामना न करना पड़े, इसके लिए सत्तारूढ़ दल अथवा गठबंधन अपने सांसदों को व्हिप जारी करता है। दलबदल कानून के कारण सांसद अपने दल की नीति के अनुसार बिल के पक्ष या विरोध में वोट देने के लिए विवश है, चाहे वे उस बिल से सहमत हों या नहीं।

संख्या बल न होने के कारण विपक्ष का विरोध धरा रह जाता है, सरकार की मनमानी चलती है और हर सरकारी बिल पास हो जाता है। दरअसल, कानून बनाने का काम संसद नहीं बल्कि सरकार करती है, इससे संसद की शक्तियां सिमट कर सरकार के हाथ में आ जाती हैं। यही नहीं, यदि विपक्ष चुनाव के लिए तैयार न हो तो विपक्षी सांसद, अल्पसंख्यक सत्तासीन दल को बचाने के लिए वाकआउट कर जाते हैं, ताकि सरकार न गिरे और वे दोबारा चुनाव की जहमत से बच सकें। सन् 1991 में सत्ता में आई नरसिंह राव की अल्पमत सरकार इसी प्रकार पूरे पांच साल चल सकी क्योंकि आवश्यक होने पर विपक्ष वाकआउट कर जाता था। एक और तथ्य यह है कि चूंकि प्रधानमंत्री सदन का कार्यकाल समाप्त होने से पहले भी सदन को भंग करवा सकते हैं, अतः सदन सरकार के नियंत्रण में रहता है। सब जानते हैं कि सरकार चलाने का असली काम दल के दो-तीन बड़े नेता ही करते हैं। इसका अर्थ यह है कि कुछ लोगों का छोटा सा गुट पूरी संसद को नियंत्रित करता है। जब किसी एक व्यक्ति या गुट के हाथ में सारी शक्तियां आ जाएं, तो उस व्यक्ति या गुट की तानाशाही चलती है। इस प्रकार लोकतांत्रिक ढंग से चुना गया व्यक्ति भी तानाशाह की तरह व्यवहार करने लगता है। एक मजबूत प्रधानमंत्री कैबिनेट की सहमति के बिना भी शासन चला सकता है, अध्यादेशों के सहारे शासन चला सकता है और संसद को बाईपास कर सकता है। ऐसे में यह धारणा कि संसद कानून बनाती है, असल में गलत है। सच्चाई यह है कि सरकार ही कानून बनाती है और सरकार ही कानून लागू भी करती है। चूंकि संसद में विपक्ष की कोई सार्थक भूमिका नहीं है, इसलिए मीडिया और जनता का ध्यान आकर्षित करने के लिए विपक्ष वाकआउट करता है, सदन में शोर मचाता है और अव्यवस्था पैदा करता है। क्या यह सही है, क्या विपक्ष की भूमिका इतनी सी

ही है?

सत्तापक्ष और विपक्ष, दोनों ही खूब नारे लगाते हैं, लेकिन जनता को असल में कुछ नहीं देते। विपक्ष के पास रचनात्मक विपक्ष की भूमिका को लेकर कोई ‘विजन’ नहीं है। यदि कहीं दंगा हो जाए तो विपक्ष के नेता सहानुभूति जताने के लिए वहां पहुंच जाते हैं, लेकिन क्या वे ऐसी कोई कोशिश करते हैं कि भविष्य में वहां दंगा न हो? यदि जनता किसी समस्या से दो-चार हो रही हो, तो विपक्ष सरकार की आलोचना करता है, लेकिन क्या वह खुद आगे बढ़कर समस्या के समाधान के लिए कुछ नहीं कर सकता? क्या केवल सरकारी मशीनरी ही सब कुछ कर सकती है? किसी प्राकृतिक आपदा के समय क्या विपक्ष कुछ नहीं कर सकता? फसल नष्ट हो जाने की स्थिति में क्या विपक्ष किसी सामाजिक सहायता का जुगाड़ नहीं कर सकता? क्या विपक्ष कोई ऐसा सहायता केंद्र नहीं खोल सकता, जहां कुछ विशेषज्ञ जनता की समस्याओं के समाधान के लिए उपलब्ध हों? क्या सामाजिक संस्थाओं के साथ मिलकर विपक्ष जनहित का कोई कार्यक्रम नहीं चला सकता?

सरकार जब बजट पेश करती है तो विपक्ष उसे जनविरोधी बताता है, लेकिन क्या ऐसा संभव नहीं है कि विपक्ष अपनी ओर से वैकल्पिक बजट पेश करे और कहे कि यदि वह सत्ता में होता तो वह ऐसा बजट पेश करता? विपक्ष यदि किसी कानून में संशोधन चाहता है तो सेमिनारों के द्वारा तथा मीडिया की सहायता से जनमत बदल सकता है और सरकार को जनता की बात सुनने के लिए विवश कर सकता है। आलोचना करना, शोर मचाना, अव्यवस्था पैदा करना, अभद्र बयान देना आदि ऐसे साधन हैं, जिनसे जनता का ध्यान बंटता है और मूल मुद्दे गौण हो जाते हैं। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों का हित इसी में है कि मूल मुद्दों से जनता का ध्यान हटा रहे और उनकी नौटंकी चलती रहे। संसद अथवा मीडिया बहस में आपस में कुत्ते-बिल्ली की तरह लड़ने वाले अधिकांश सांसद व्यक्तिगत जीवन में गहरे मित्र हो सकते हैं। यह एक बड़ा षड्यंत्र है। आवश्यकता इस बात की है कि मतदाता के रूप में हम राजनीतिज्ञों के इस षड्यंत्र को पहचानें और सभी दलों के राजनीतिज्ञों को विवश करें कि वे अपनी असली जिम्मेदारी निभाएं और जनता की अपेक्षाओं पर खरे उतरें अन्यथा उन्हें वोट नहीं मिलेंगे।

ईमेलःindiatotal.features@gmail. com

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