भारत की अमूल्य संस्कृति को मिटने से कैसे बचाएं?

By: Apr 14th, 2018 12:11 am

मैंने संयुक्त राष्ट्र संघ में ये सारी बातें संस्कृतियों को जड़ से उखाड़ने की कोशिशों के सिलसिले में कही थीं। धर्म व धर्म के प्रचार-प्रसार के नाम पर लोग सारी सीमाएं तोड़ कर संस्कृतियों को जड़ से मिटाने में लगे हैं। एक बार जब कोई संस्कृति उखड़ जाती है, तो उससे जुड़े अधिकांश लोग जीवन में अपने आचार-विचार को खो देते हैं। इस तरह के बलपूर्वक परिवर्तन से दुनिया के जो कुछ देश व समाज बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं, उनमें ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासी और उत्तरी अमरीका में रेड इंडियन अमरीकी प्रमुख हैं…

मेरा सिर्फ इतना कहना है कि हर व्यक्ति को अपने धर्म का चुनाव अपने विवेक व अपने भीतर की खास जरूरत के आधार पर करना चाहिए। धर्म का चुनाव उन्हें अपने पास पैसा न होने, शिक्षा न होने या भोजन न होने के चलते या इन जैसी चीजों से प्रभावित होकर नहीं करना चाहिए। उन्हें इन बातों के आधार पर अपने धर्म का चुनाव नहीं करना चाहिए। मैं किसी खास धर्म से नहीं जुड़ा हुआ हूं। मैं किसी भी धर्म विशेष से अपनी पहचान नहीं बनाता। अगर कोई व्यक्ति सचमुच आध्यात्मिक राह पर चल रहा है तो वह कभी भी किसी खास वर्ग या धर्म से अपनी पहचान नहीं बना सकता।

लोगों को अपना धर्म खुद की जरूरत के आधार पर चुनना चाहिए

सवाल है कि अगर ऐसा है तो फिर मैंने वहां धर्म परिवर्तन के बारे में बात क्यों की? उसकी वजह सिर्फ इतनी थी कि दुनिया के सभी धर्म लोगों के लिए मौजूद रहें। फिर लोगों को अपनी पसंद के हिसाब से उनका चुनाव करने दो। मुझे लगता है कि किसी को भी इस धर्म या उस धर्म में परिवर्तित करने की जरूरत नहीं है और न ही व्यक्ति के लिए किसी दल से जुड़ना जरूरी है। जिसे आप धर्म के रूप में देख रहे हैं, वह धर्म नहीं है। सही मायने में धर्म शब्द का अर्थ है अपने भीतर की ओर उठा एक कदम। धर्म कोई ऐसी चीज नहीं है, जिसे आप सड़कों या चौराहों पर करते हैं। दरअसल, यह तो अपने भीतर करने वाली चीज है। अगर यह वाकई एक आंतरिक प्रक्रिया है, तो फिर किसी को परिवर्तित करने या अपना दल बनाने की कोई जरूरत नहीं है और न ही अपने-अपने दलों में सदस्यों की संख्या बढ़ाने के लिए बेचैन होने की जरूरत है। चाहे जो भी दल या संप्रदाय यह काम कर रहा हो, मैं किसी खास संप्रदाय की बात नहीं कर रहा हूं। मैंने संयुक्त राष्ट्र संघ में ये सारी बातें संस्कृतियों को जड़ से उखाड़ने की कोशिशों के सिलसिले में कही थीं। धर्म व धर्म के प्रचार-प्रसार के नाम पर लोग सारी सीमाएं तोड़ कर संस्कृतियों को जड़ से मिटाने में लगे हैं। एक बार जब कोई संस्कृति उखड़ जाती है, तो उससे जुड़े अधिकांश लोग जीवन में अपने आचार-विचार को खो देते हैं। इस तरह के बलपूर्वक परिवर्तन से दुनिया के जो कुछ देश व समाज बुरी तरह से प्रभावित हुए हैं, उनमें ऑस्ट्रेलिया के मूल निवासी और उत्तरी अमरीका में रेड इंडियन अमरीकी प्रमुख हैं। उन लोगों के साथ जिस तरह का व्यवहार किया गया, उनकी संस्कृति के साथ जो हुआ, वह अपने आप में वाकई दुखद है। भारत की एक बेहद समृद्ध और सभ्य संस्कृति है। यह अपने आप में कई संस्कृतियों को समेट सकती है, कई धर्मों को शामिल कर सकती है। इसमें कोई दिक्कत नहीं है। धर्म को फैलाने के नाम पर किसी को इस समूची संस्कृति को मिटाने की जरूरत नहीं है। भारतीय संस्कृति दुनिया की सबसे रंग-बिरंगी संस्कृतियों में से एक है। भले ही यह बेहद बिखरी हुई लगे, फिर भी बहुत सुंदर है। इसे आप रातों-रात नहीं बना सकते हैं। इसे इस तरह से विकसित होने में हजारों साल लगे हैं।

हमारे धर्म शास्त्रों में तत्त्व नहीं, सिर्फ दर्शन है

हमारी अपनी एक संस्कृति है, अपनी एक परंपरा है। हमारे यहां लोगों की एक ऐसी वंशावली रही है, जिनकी परिपक्वता की किसी से बराबरी नहीं हो सकती, क्योंकि यह परिपक्वता विचारों से नहीं, बल्कि आंतरिक ज्ञान से आती है। जीवन को भीतर से समझने और जीवन को बाहर से समझने में बहुत फर्क है। यह दोनों अलग-अलग चीजें हैं, जिनकी कभी आपस में तुलना नहीं की जा सकती। यह मायने नहीं रखता कि आप कितना सोचते हैं और इसके बारे में कितने सिद्धांत बनाते हैं। भारत में फिलासफी को ‘तत्त्व’ के तौर पर नहीं, बल्कि ‘दर्शन’ के रूप में जाना जाता है। ‘दर्शन’ का मतलब है, जिसे देखा जा सके। आप किसी चीज को देखते हैं, बस इतना ही काफी है। तत्त्व को जानने का यही एकमात्र तरीका है। आप जिसे केवल देखकर ही जान सकते हैं, उसे दर्शन कहते हैं। इसीलिए सभी भारतीय दर्शनशास्त्रों को दर्शन के रूप में जाना जाता था, तत्त्व के रूप में नहीं। तत्त्व तो विद्वानों की रचना थी। शुरुआती दौर में सभ्यता तो शुद्ध चेतना थी, बाद में इस पर विद्वानों का वर्चस्व हो गया और उन्होंने हर चीज पर दर्शनशास्त्र बना दिए।

  • सद्गुरु जग्गी वासुदेव

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