माखन लाल चतुर्वेदी : राष्ट्रीयता को काव्य का कलेवर बनाया

By: Apr 8th, 2018 12:10 am

माखन लाल चतुर्वेदी (जन्म-4 अप्रैल, 1889 बावई, मध्य प्रदेश; मृत्यु-30 जनवरी, 1968) सरल भाषा और ओजपूर्ण भावनाओं के अनूठे हिंदी रचनाकार थे। इन्होंने हिंदी एवं संस्कृत का अध्ययन किया। ये कर्मवीर राष्ट्रीय दैनिक के संपादक थे। इन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लिया। इनका उपनाम ‘एक भारतीय आत्मा’ है। राष्ट्रीयता माखन लाल चतुर्वेदी के काव्य का कलेवर है तथा रहस्यात्मक प्रेम उसकी आत्मा है :

चाह नहीं मैं सुरबाला के, गहनों में गूंथा जाऊं

चाह नहीं, प्रेमी-माला में, बिंध प्यारी को ललचाऊं

चाह नहीं, सम्राटों के शव पर, हे हरि, डाला जाऊं

चाह नहीं, देवों के सिर पर चढ़ूं, भाग्य पर इठलाऊं

मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर देना तुम फेंक

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने, जिस पथ जावें वीर अनेक

जीवन परिचय

हिंदी जगत् के कवि, लेखक, पत्रकार माखन लाल चतुर्वेदी का जन्म 4 अप्रैल, 1889 ई. में बावई, मध्य प्रदेश में हुआ था। यह बचपन में काफी रुग्ण और बीमार रहा करते थे। इनका परिवार राधावल्लभ संप्रदाय का अनुयायी था, इसलिए स्वभावतः चतुर्वेदी के व्यक्तित्व में वैष्णव पद कंठस्थ हो गए। प्राथमिक शिक्षा की समाप्ति के बाद ये घर पर ही संस्कृत का अध्ययन करने लगे। इनका विवाह पंद्रह वर्ष की अवस्था में हुआ और उसके एक वर्ष बाद आठ रुपए मासिक वेतन पर इन्होंने अध्यापकी शुरू की।

कार्यक्षेत्र

1913 ई. में चतुर्वेदी जी ने प्रभा पत्रिका का संपादन आरंभ किया, जो पहले चित्रशाला प्रेस, पूना से और बाद में प्रताप प्रेस, कानपुर से छपती रही। प्रभा के संपादन काल में इनका परिचय गणेश शंकर विद्यार्थी से हुआ, जिनके देश-प्रेम और सेवाव्रत का इनके ऊपर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। चतुर्वेदी जी ने 1918 ई. में कृष्णार्जुन युद्ध नामक नाटक की रचना की और 1919 ई. में जबलपुर से कर्मवीर का प्रकाशन किया। यह 12 मई, 1921 ई. को राजद्रोह में गिरफ्तार हुए व 1922 ई. में कारागार से मुक्ति मिली। चतुर्वेदी जी ने 1924 ई. में गणेश शंकर विद्यार्थी की गिरफ्तारी के बाद प्रताप का संपादकीय कार्यभार संभाला। यह 1927 ई. में भरतपुर में संपादक सम्मेलन के अध्यक्ष बने और 1943 ई. में हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष हुए। इसके एक वर्ष पूर्व ही हिमकिरीटिनी और साहित्य देवता प्रकाश में आए। इनके 1948 ई. में हिम तरंगिनी और 1952 ई. में माता काव्य ग्रंथ प्रकाशित हुए। हिंदी काव्य के विद्यार्थी माखनलाल जी की कविताएं पढ़कर सहसा आश्चर्यचकित रह जाते हैं। उनकी कविताओं में कहीं ज्वालामुखी की तरह धधकता हुआ अंतर्मन, जो विषमता की समूची अग्नि सीने में दबाए फूटने के लिए मचल रहा है, कहीं विराट पौरुष की हुंकार, कहीं करुणा की अजीब दर्द भरी मनुहार। वे जब आक्रोश से उद्दीप्त होते हैं तो प्रलयंकर का रूप धारण कर लेते हैं, किंतु दूसरे ही क्षण वे अपनी कातरता से विह्वल होकर मनमोहन की टेर लगाने लगते हैं। चतुर्वेदी जी के व्यक्तित्व में संक्रमणकालीन भारतीय समाज की सारी विरोधी अथवा विरोधी जैसी प्रतीत होने वाली विशिष्टताओं का सम्पुंजन दिखाई पड़ता है।

रचनाएं

चतुर्वेदी जी की रचनाओं को प्रकाशन की दृष्टि से इस क्रम में रखा जा सकता है ः कृष्णार्जुन युद्ध (1918 ई.), हिमकिरीटिनी (1941 ई.), साहित्य देवता (1942 ई.), हिमतरंगिनी (1949 ई.- साहित्य अकादमी पुरस्कार से पुरस्कृत), माता (1952 ई.)। इसके अलावा युगचरण, समर्पण और वेणु लो गूंजे धरा भी इनकी रचनाएं हैं। उनकी कहानियों का संग्रह अमीर इरादे, गरीब इरादे नाम से छपा है। चतुर्वेदी जी की रचनाओं की प्रवृत्तियां प्रायः स्पष्ट और निश्चित हैं। राष्ट्रीयता उनके काव्य का कलेवर है तो भक्ति और रहस्यात्मक प्रेम उनकी रचनाओं की आत्मा। आरंभिक रचनाओं में भी वे प्रवृत्तियां स्पष्टतः परिलक्षित होती हैं। प्रभा के प्रवेशांक में प्रकाशित उनकी कविता नीति-निवेदन शायद उनके मन की तत्कालीन स्थिति का पूरा परिचय देती है। माखनलाल जी की राष्ट्रीय कविताओं में आदर्श की थोथी उड़ानें  भर नहीं हैं। उन्होंने खुद राष्ट्रीय संग्राम में अपना सब कुछ बलिदान किया है, इसी कारण उनके स्वरों में बलिपंथी की सच्चाई, निर्भीकता और कष्टों को झेलने की अदम्य लालसा की झंकार है। यह सच है कि उनकी रचनाओं में कहीं-कहीं हिंदू राष्ट्रीयता का स्वर ज़्यादा प्रबल हो उठा है किंतु हम इसे सांप्रदायिकता नहीं कह सकते, क्योंकि दूसरे संप्रदाय अहित की आकांक्षा इनमें रंचमात्र भी दिखाई न पड़ेगी। विजयदशमी और प्रवासी भारतीय वृंद अथवा हिंदुओं का रणगीत व मंजुमाधवी वृत्त ऐसी ही रचनाएं हैं। उन्होंने सामयिक राजनीतिक विषमों को भी दृष्टि में रखकर लिखा और ऐसे जलते प्रश्नों को काव्य का विषय बनाया।

कविता लेखन

20वीं शती के प्रथम दशक में ही चतुर्वेदी जी ने कविता लिखना आरंभ कर दिया था, पर आजादी के संघर्ष में सक्रियता का आवेश शनैः-शनैः उम्र के चढ़ाव के साथ परवान चढ़ा, जब वे बाल गंगाधर तिलक के क्रांतिकारी क्रियाकलापों से प्रभावित होने के बावजूद महात्मा गांधी के भी अनुयायी बने। उन्होंने राष्ट्रीय चेतना को राजनीतिक वक्तव्यों से बाहर निकाला। राजनीति को साहित्य सृजन की टंकार से राष्ट्रीय रंगत बख्शी और जनसाधारण को जतलाया कि यह राष्ट्रीयता गहरे मानवीय सरोकारों से उपजती है, जिसका अपना एक संवेदनशील एवं उदात्त मानवीय स्तर होता है। अपनी रचनाओं में एक भारतीय आत्मा ने बलिपंथी के भाव को उद्घाटित किया है। चतुर्वेदी जी राजनीति और रचना को साथ-साथ निभाते चलते थे। ऐसे श्रेष्ठ मुद्दे राजनीति में विलयित नहीं होने पाते।

आरंभिक काव्य

माखनलाल जी की आरंभिक रचनाओं में भक्तिपरक अथवा आध्यात्मिक विचारप्रेरित कविताओं का भी काफी महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह सही है कि इन रचनाओं में इस तरह की सूक्ष्मता अथवा आध्यात्मिक रहस्य का अतींद्रिय स्पर्श नहीं है, जैसा छायावादी कवियों में है अथवा कवि की परिणत काव्यश्रेणीगत आने वाली कुछ रचनाओं में है। भक्ति का रूप यहां काफी स्वस्थ है किंतु साथ ही स्थूल भी। कारण शायद यह रहा है कि इनमें कवि की निजी व्यक्तिगत अनुभूतियों का उतना योग नहीं है, जितना एक व्यापक नैतिक धरातल का, जिसे हम समूह-प्रार्थना कोटि का काव्य कह सकते हैं। इसमें स्तुति या स्तोत्र शैली की झलक भी मिल जाती है। जैसा पहले ही कहा गया है, कवि के ऊपर वैष्णव परंपरा का घना प्रभाव दिखाई पड़ता है। भक्तिपरक कविताओं को किसी विशेष संप्रदाय के अंतर्गत रखकर देखना ठीक न होगा, क्योंकि इन कविताओं में किसी संप्रदायगत मान्यता का निर्वाह नहीं किया गया है। इनमें वैष्णव, निर्गुण, सूफी, सभी तरह की विचारधाराओं का समन्वय-सा दिखाई पड़ता है।

परिणत काव्य

परिणत काव्य-सृष्टि में उपर्युक्त मुख्य प्रवृत्तियों का और भी अधिक विकास दिखाई पड़ता है। क्षोभ, उच्छवास के स्थान पर पीड़ा को सहने और उसे एक मार्मिक अभिव्यक्ति देने का प्रयत्न दिखाई पड़ता है। कैदी और कोकिला के पीछे जो राष्ट्रीयता का रूप है, वह आरंभिक अभिधात्मक काव्य-कृतियों से स्पष्ट ही भिन्न है। उसी प्रकार झरना और आंसू में भावों की गहराई और अनुभूतियों की योग्यता का स्वर प्रबल है, किंतु इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि इस दौरान उन्होंने उद्बोधन-काव्य लिखा ही नहीं। युग तरुण से, प्रवेश, सेनानी आदि रचनाएं उद्बोधन काव्य के अंतर्गत ही रखी जाएंगी। उन्होंने राजनीतिक घटनाओं को दृष्टि में रखकर श्रद्धांजलिमूलक काव्य भी लिखा। संतोष, नटोरियस वीर, बंधन सुख आदि में गणेशशंकर विद्यार्थी की मधुर स्मृतियां हैं तो राष्ट्रीय झंडे की भेंट में हरदेवनारायण सिंह के प्रति श्रद्धा का निवेदन है।

छायावाद

परवर्ती काव्य में आध्यात्मिक रहस्य की धारा स्तुति और प्रार्थना के आध्यात्मिक धरातल से उतर कर सूक्ष्म रहस्य और भक्ति की अपेक्षाकृत अधिक स्वाभाविक भूमि पर बहती दिखाई पड़ती है। छायावादी व्यक्तित्व में विराट की भावना का परिपारक है तो आध्यात्मिक रहस्य की धारा में किसी अज्ञात असीम प्रियतम के साथ समीप आत्मा का प्रणय-निवेदन। प्रकृति और आध्यात्मिक रहस्य का यह नया आलोक छायावादी कवि की जीवन दृष्टि का आधार है। माखनलाल जी की रचनाओं में भी यह आलोक है किंतु इसका रूप थोड़ा भिन्न है। भिन्न इस अर्थ में कि वे श्याम या कृष्ण की जिस रूपमाधुरी से आकृष्ट थे, उसको सुरक्षित रखते हुए रहस्य के इस क्षेत्र में प्रवेश करना चाहते हैं। अव्यक्त लोक में भी उन्हें बांसुरी भूल नहीं पाती है। इसी कारण माखनलाल की कविताओं में छायावादी रहस्य भावना का सगुण मधुरा भक्ति के साथ एक अजीब समन्वय दिखाई पड़ता है। उनका ईश्वर (निराकार) इतना निराकार नहीं है कि उसे वे नाना नाम रूप देकर उपलब्ध न कर सकें। वे खुदी को मिटाकर खुदा देखते हैं, इसी कारण उनकी रचनाओं में छायावादी वैयक्तिकता का एकांतिक स्वर तीव्र नहीं सुनाई पड़ता है।

भाषा और शैली

भाषा और शैली की दृष्टि से माखनलाल पर आरोप किया जाता है कि उनकी भाषा बड़ी बेडौल है। उसमें कहीं-कहीं व्याकरण की अवहेलना की गई है। कहीं अर्थ निकालने के लिए दूरान्वय करना पड़ता है, कहीं भाषा में कठोर संस्कृत शब्द हैं तो कहीं बुंदेलखंडी के ग्राम्य प्रयोग। किंतु भाषा-शैली के ये सारे दोष सिर्फ एक बात की सूचना देते हैं कि कवि अपनी अभिव्यक्ति को इतना महत्त्वपूर्ण समझा है कि उसे नियमों में हमेशा आबद्ध रखना उन्हें स्वीकार नहीं हुआ है। भाषा-शिल्प के प्रति माखनलाल जी बहुत सचेष्ट रहे हैं। उनके प्रयोग सामान्य स्वीकरण भले ही न पाएं, उनकी मौलिकता में संदेह नहीं किया जा सकता।

मृत्यु :  माखनलाल चतुर्वेदी की मृत्यु 30 जनवरी 1968 ई. को हुई।


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