लाशों के बीच शब्द ढूंढते मीडिया का अपना सच

By: Apr 15th, 2018 12:05 am

नूरपुर के मलकवाल में गत सोमवार को बस हादसे में मारे गए 27 लोगों में शामिल चार से 15 साल की आयु के 23 बच्चों के आकस्मिक निधन ने पूरे प्रदेश को हिलाकर रख दिया है। यह ऐसा दुःखद समाचार था, जिसके मिलते ही हर आदमी सुन्न होकर रह गया। शायद ही कोई शख्स होगा, जिसकी आंखें यह खबर सुनकर नम न हुई होंगी। सरकार, जिसमें स्थानीय और जिला प्रशासन भी शामिल हैं, ने सूचना मिलते ही अपनी ओर से पीडि़त परिवारों को हरसंभव राहत और सहायता देने की कोशिश की।

मुख्यमंत्री स्वयं थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद इस भयावह हादसे की जानकारी लेते रहे और अगले दिन की अपनी तमाम व्यस्तताओं को छोड़कर नूरपुर पहुंचे। इस बीच उनकी कैबिनेट के दो सहयोगी खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री किशन कपूर और नगर नियोजन मंत्री सरवीण चौधरी स्थानीय विधायक राकेश पठानिया और इंदौरा की विधायक रीता धीमान के साथ मौके पर मौजूद रहकर व्यवस्था देखते रहे। राहत और बचाव कार्य रात आठ बजे तक चलते रहे। जिलाधीश संदीप कुमार नूरपुर में उस वक्त तक डटे रहे, जब तक अगले दिन सभी पार्थिव शरीरों का अंतिम संस्कार नहीं हो गया। दुःख और हैरानी का विषय है कि इन सबके मध्य नूरपुर घाटी पर आच्छादित गम की चादर में छेद करते हुए कुछ समाचार संस्थाओं और पत्रकारों ने मानवता और पत्रकारिता के मूल्यों को ताक पर धरकर, जिस तरह की पत्रकारिता करने की कोशिश, उससे तो शायद ‘येलो जर्नलिज्म’ भी शर्मिंदा हो गया होगा। अपने कुछ साथियों की इस करतूत पर, एक पत्रकार की टिप्पणी थी कि इस प्रकार की पत्रकारिता को तो ‘ब्लैक जर्नलिज्म’ कहना ही बेहतर होगा। एक दैनिक समाचार-पत्र ने तमाम हदें पार करते हुए लिखा कि ‘सी.एम. के इंतजार में तीन घंटे नहीं दिए बच्चों के शव : जो रात को सौंपे थे, वे भी वापस मंगाए’।  इस समाचार-पत्र ने यह दिखाने की कोशिश की कि शवों के सौंपने को सियासत के साथ जोड़ा जा रहा था। पठानकोट से प्रकाशित इसी अखबार के अन्य संस्करण ने भी गैर जिम्मेदाराना व्यवहार करते हुए लिखा कि ‘मुख्यमंत्री घायलों के साथ केवल डेढ़ मिनट और मृतकों के परिवारों के साथ एक मिनट ही रहे’। इसी तरह एक और समाचार एजेंसी ने एक बच्चे का साक्षात्कार कर यह दिखाने की कोशिश की कि दुर्घटनाग्रस्त बस का ड्राइवर मोटर साइकिल से रेस लगा रहा था। इसी तरह नाहन से प्रकाशित एक वैब पोर्टल ने भी इन्हीं खबरों को जैसे का तैसा आगे प्रेषित कर दिया। अगर पत्रकारिता के ‘पांच डब्ल्यू और एक एच’ के सिद्धांत को किनारे रखकर कॉमन सैंस (सामान्य बुद्धि) से भी काम लिया गया होता तो शायद एक आम आदमी भी जानता है कि चूंकि पोस्टमार्टम का काम भारी और जटिल होता है, इसलिए निर्धारित नियमों के तहत पोस्टमार्टम सुबह नौ बजे से सूर्यास्त तक ही किया जाता है। इसके अलावा जो भी व्यक्ति अस्पताल परिसर में इलाज के लिए लाया जाता है, उसकी मृत्यु चाहे अस्पताल लाने से पहले हुई हो या अस्पताल में, उसका शव बिना पोस्टमार्टम और पहचान के परिजनों को नहीं सौंपा जाता। इस घटना की संवेदनशीलता को देखते हुए प्रशासन ने नियमों में ढील देते हुए अगले दिन सुबह 7:15 बजे पोस्टमार्टम शुरू कर, परिजनों के दुःख में शरीक होते हुए पोस्टमार्टम का कार्य शवगृह के अलावा एक और स्थान पर शुरू करते हुए इस कार्य के लिए छह डॉक्टरों की दो टीमें बनाईं। जैसे-जैसे शवों के पहचानकर्ता उपलब्ध होते गए, उनका पोस्टमार्टम होता गया। तकनीकी कारणों की वजह से बस चालक मदन का अंतिम पोस्टमार्टम प्रातः 10:35 बजे पूरा हुआ। ध्यातव्य है कि मुख्यमंत्री मंडी से प्रातः 10:24 पर नूरपुर पहुंचे थे। ऐसे में शवों से क्या सियासत हो सकती है, यह बात समझ से परे है। मुख्यमंत्री करीब चालीस मिनट तक नूरपुर में रहे। जहां तक सियासत की बात है तो सत्ता पार्टी और विपक्ष, दोनों के नेता नूरपुर में मौजूद थे। मुख्यमंत्री के अलावा केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री, खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री किशन कपूर, शिक्षा मंत्री सुरेश भारद्वाज, नगर नियोजन मंत्री सरवीण चौधरी, पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार, विधायक अर्जुन सिंह तथा अनीता धीमान के अलावा विपक्ष के नेता मुकेश अग्निहोत्री और पूर्व विधायक अजय महाजन वहां मौजूद थे और बच्चों को श्रद्धांजलि अर्पित की। स्थानीय विधायक राकेश पठानिया स्वयं राहत एवं बचाव कार्यों के अलावा तमाम व्यवस्थाएं सुनिश्चित करते रहे। मुख्यमंत्री पार्थिव देहों को श्रद्धांजलि देने के उपरांत घायलों से मिले और फिर पठानकोट के लिए रवाना हुए। इन पत्रकारों ने इस बात पर भी विचार करना आवश्यक नहीं समझा कि जब रात को आठ बजे तक बचाव एवं राहत कार्य चलता रहा और पोस्टमार्टम संभव नहीं था तो किसके शव, बिना पहचान के किसको सौंपे गए? सबको ज्ञात है कि खराब मौसम में हेलिकॉप्टर उड़ान नहीं भर सकता और उड़ान से पहले उसे एअर ट्रैफिक से अनुमति लेनी होती है।

मुख्यमंत्री नूरपुर पहुंचकर, स्वयं तमाम घायलों और प्रभावित परिवारों से मिले और उन्हें सांत्वना दी। अब प्रश्न उठता है कि क्या यह सब केवल ढाई मिनट में संभव था। इस समाचार-पत्र ने लिखा है कि ‘लेकिन उससे पहले दिखा सरकार की मरी हुई आत्मा का असली चेहरा’, यहां प्रश्न उठता है कि मरता क्या है शरीर या आत्मा? बेहतर होता ये समाचार-पत्र और पत्रकार सनसनी फैलाने की बजाय कुछ ऐसा कहने की कोशिश करते, जिससे भविष्य में ऐसी परिपाटी बनाने में मदद मिलती कि ऐसी दुर्घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो। विदित है कि यह बस दुर्घटना एक ओवर स्पीड मोटर साइकिल को बचाते हुए घटी थी। क्या ऐसा संभव नहीं कि मीडिया और सोशल मीडिया, आपस में मिलजुल कर एक ऐसा सामाजिक वातावरण बनाएं कि यातायात नियमों की उल्लंघना करने वालों को कड़ा सबक सिखाया जाए और हम सभी दिल-दिमाग, दोनों से यातायात नियमों का पालन करें।

-अजय पाराशर, उप निदेशक, सूचना एवं जन संपर्क विभाग, धर्मशाला

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