लेखन के सामाजिक सरोकारों पर साहित्यकारों का मंथन

By: Apr 8th, 2018 12:05 am

आयोजन

लेखन क्या महज खुद को खुश करने के लिए है या उसका सामाज के प्रति भी कोई दायित्व है? इस विषय पर हमीरपुर के हमीर भवन में एक साहित्यिक संगोष्ठी का आयोजन किया गया। यह संगोष्ठी इरावती पत्रिका और राष्ट्रीय कवि संगम के बैनर में हुई और देश और समाज की नब्ज को पहचानने और सोशल ट्रांसफारमेशन का सबब बनी। संगोष्ठी में इस बात पर चर्चा रही कि साहित्यिक लेखन समाज से जुड़े। ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ के मूल मंत्र पर ही साहित्य रचना केंद्रित होनी चाहिए। संगोष्ठी में प्रियंवदा ने ‘कविता के सामाजिक सरोकार’ विषय पर आलेख प्रस्तुत किया, जिस पर आमंत्रित लेखकों व कवियों ने विचारोत्तेजक टिप्पणियां प्रस्तुत कीं। प्रियंवदा का कहना था कि समाज के उत्थान व परिवर्तन के लिए साहित्य का प्रगतिशील होना जरूरी है।

उन्होंने कहा कि कविता में प्रेम को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता क्योंकि प्रेम एक ऐसा सार्वभौमिक मूल्य है जिसके इर्द-गिर्द अधिकांश साहित्य रचा गया है। लेकिन प्रेम को विषय बना कर रची जा रही कविताओं का स्तर गिर रहा है। प्रेम एक ऐसी अनुभूति है जिसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता लेकिन काव्य रचनाओं में प्रेम की सूक्ष्म संवेदनाओं को रेखांकित किया जाना चाहिए, न कि उसके उथले रूप को जैसा कि आज हम सोशल मीडिया में देख रहे हैं। उन्होंने कहा कि हमारे देश में एक ऐसा दौर भी था जब मुक्तिबोध और धूमिल समाज के सरोकारों से जुड़कर काव्य रचना कर रहे थे। उनकी परंपरा को समकालीन कविता में आगे बढ़ाने की जरूरत है। मुक्तिबोध के अनुसार ‘अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे, तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब’। प्रियंवदा का संकेत उन सांप्रदायिक व कट्टरवादी ताकतों की ओर भी था जो देश में सद्भाव के ढांचे को तहस-नहस करने पर तुली हुई हैं। कट्टरवाद के विरुद्ध लेखकों को अपनी कलम उठानी चाहिए। आलेख पर प्रस्तुत अधिकांश टिप्पणियों का निष्कर्ष यह था कि साहित्य का समाज के प्रति ईमानदार व जवाबदेह होना जरूरी है क्योंकि आज मनुष्य जिस भयावह दौर से गुजर रहा है, उसे देखते हुए हाशिए पर सिमटे व्यक्ति की पीड़ा मुखर होनी चाहिए। जो साहित्य अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति के प्रति पक्षधर नहीं है उसे पाठक को नकार देना चाहिए। संगोष्ठी के आरंभ में दिवंगत सुप्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए दो मिनट का मौन रखा गया और हिंदी कविता में उनके बहुमूल्य योगदान का स्मरण किया गया। जाने-माने बुद्धिजीवी डा. भगतवत्सल शर्मा ने अपने अध्यक्षीय संबोधन में कहा कि साहित्य अपने आसपास की घटनाओं के प्रभाव से मुक्त होकर नहीं रचा जा सकता। अतः उसे समाज से जुड़ना होगा। साहित्य का मर्म इस बात में निहित है कि वह व्यष्टि से समष्टि की यात्रा तय करे। तुलसी, कबीर, नानक, सूरदास, रसखान आदि कवि आज भी जन-जन में इसलिए लोकप्रिय हैं कि उन्होंने समाज में फैले अंधकार के विरुद्ध आवाज उठाई। अंधविश्वासों, रूढि़यों व सामंती सोच पर प्रहार किया। वास्तव में वे सब प्रगतिशील सोच के कवि थे और उनमें समाज को बदलने की चिंता थी।

उन्होंने कहा कि कविता तभी सामाज से जुड़ सकती है जब वह भोगे हुए यथार्थ को प्रस्तुत करे। सामाजिक सरोकारों से जुड़ी कविता के लिए आवश्यक है कि वह अनुभूति, प्रतीति और अभिव्यक्ति के स्तर पर पाठक की संवेदना को छू सके। इरावती के संपादक राजेंद्र राजन ने कहा कि अगर कविता दबे-कुचले, शोषित और उत्पीडि़त समाज का प्रतिनिधित्व न कर पाए तो उसे सामाजिक सरोकारों से नहीं जोड़ा जा सकता। उनके अनुसार सोशल मीडिया पर जिस प्रकार दोयम दर्जे की कविताओं का महिमामंडन हो रहा है, उसे देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि समकालीन कविता संकट में है और अपने सरोकारों से भटक चुकी है। राष्ट्रीय कवि संगम की हमीरपुर इकाई के अध्यक्ष संदीप शर्मा ने कहा कि संगोष्ठी में स्कूलों व कालेजों में पढ़ रहे छात्रों की लेखन प्रतिभा को अभिव्यक्ति देने के लिए यहां मंच प्रदान किया गया है क्योंकि नवोदित लेखकों में सृजन की अपार संभावनाएं हैं और नवांकुरों को खिलने का मौका मिलना चाहिए। गोष्ठी में कवि सम्मेलन का आयोजन भी किया गया, जिसमें हिमाचल व अन्य राज्यों से आए करीब 50 कवियों ने अपनी रचनाओं का पाठ किया।        —प्रस्तुति : अनिल कुमार


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