लोक संस्कृति के संरक्षण में व्यथित जी का महती योगदान

By: Apr 29th, 2018 12:15 am

हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिला के अंतर्गत नेरटी गांव में फकीर चंद दीक्षित व माता शीला देवी के परिवार में ज्येष्ठ पुत्र के रूप में 15 अगस्त 1938 को जन्मे गौतम चंद वर्तमान में डॉ. गौतम शर्मा व्यथित के नाम से लोकप्रिय हैं। आरंभिक शिक्षा गांव के प्राइमरी स्कूल में हुई, दसवीं तक पढ़ाई हाई स्कूल रैत में की। नवंबर 1957 में जेबीटी के रूप में गांव बोह, तहसील शाहपुर में अध्यापन व्यवसाय आरंभ किया, जहां पांच वर्ष तक रहे। इन्होंने प्राइवेट छात्र के रूप में प्रभाकर व बीए की परीक्षा पंजाब विश्वविद्यालय से पास की। सन् 1964 में वह प्राइमरी टीचर स्वर्णलता के साथ परिणय सूत्र में बंधे। तत्पश्चात बीएड, एमए हिंदी कर टीजीटी के बाद मार्च 1970 में स्कूल लेक्चरर बने। जनवरी 1974 में गुरु नानक देव विश्वविद्यालय अमृतसर के हिंदी विभाग में प्रथम पीएचडी की उपाधि हासिल की। यह काम स्व. डा. चंद्रशेखर के निर्देशन में हुआ। मार्च 1974 में कॉलेज लेक्चरर बने। वर्ष 1977 से एमए हिंदी छात्रों का शिक्षण महाविद्यालय धर्मशाला के स्टाफ में रहते शुरू किया जो सेवानिवृत्ति होने तक निरंतर रहा, जिसे बाद में रीजनल सेंटर एचपीयू नाम दिया गया। 31 अगस्त 1996 को सेवानिवृत्त होने के बाद 2 वर्ष तक जिला साक्षरता समिति कांगड़ा में सचिव रहे, तत्पश्चात 2000 तक सनातन धर्म महाविद्यालय बड़ोह में प्राचार्य व पुनः 2002 से 2007 तक रीजनल सेंटर धर्मशाला में अतिथि संकाय में अध्यापन कार्य किया। वर्ष 2017 में कुछ समय के लिए हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय शाहपुर में भी हिंदी का प्राध्यापन किया। बचपन साधारण परिवार में बीता जिसके पास ज्योतिष, पुरोहित्य, कर्मकांड व चिकित्सा की परंपरा थी। विवाह के बाद पत्नी स्वर्णलता ने परिवार को संभाला और यह अध्ययन, अध्यापन व लेखन के साथ-साथ अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों के संजोने, मंचित करने में व्यस्त रहे। इन्हें जीवन में रविंद्र धीमान के माध्यम से डॉ. चंद्रशेखर, डॉ. रमेश कुंतल मेघ जैसे हिंदी के विद्वानों से संपर्क करने, उनका मार्गदर्शन पाने का अवसर मिला जो अविस्मरणीय है। डॉ. चंद्रशेखर के माध्यम से ही इन्हें 1986 में राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति सम्मान पाने और डॉ. दशरथ ओझा, डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल जैसे रंगकर्मियों, विद्वानों से मिलने का अवसर मिला। डॉ. व्यथित कहते हैं कि इनके जीवन में प्रिय वल्लभ डोभाल, प्रख्यात कथाकार का प्रेरक भाव, सानिध्य, स्नेह भूले नहीं भूलेगा। डॉ. व्यथित इन्हीं के माध्यम से नेशनल बुक ट्रस्ट जैसे संस्थान से वर्ष 1977 में जुड़े और डॉ. जाजोदिया के द्वारा ‘हिमाचल प्रदेश लोक संस्कृति और साहित्य’ पुस्तक लिखने का प्रस्ताव मिला जो 1980 में प्रकाशित हुई। डॉ. मृणाल पांडे ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया और डॉ. शहरयार ने पंजाबी में, जिससे इन्हें राष्ट्रीय ख्याति मिली। इसी कारण बाद में इसी न्यास से घियाणा व हिमाचल के लोकगीत पुस्तकें प्रकाशित हुइर्ं। इन्हें साहित्य अकादमी दिल्ली से भी पहाड़ी गांधी बाबा कांशी राम पर मोनोग्राफ लिखने का अवसर मिला। हिमाचल प्रदेश अकादमी से लाल चंद प्रार्थी पर भी इन्होंने मोनोग्राफ लिखा। इनका लेखन निरंतर जारी रहा जिसके फलस्वरूप साहित्य की कविता, कहानी, एकांकी, उपन्यास, आलोचना विधाओं पर पुस्तकें प्रकाशित हुईं। हिमाचली पहाड़ी में भी कविता की पहली पुस्तक जनवरी 1969 में प्रकाशित हुई। तत्पश्चात गास्सें हत्थ पुजाणे कियां, गजल संग्रह आया जिसे हिमाचल प्रदेश अकादमी का प्रथम पुरस्कार मिला। गितलू इनका हास्य व्यंग्य निबंध संग्रह है और लूणा दे पुले पर लघु कथा संग्रह। लोक साहित्य और लोक संस्कृति को लेकर भी इनकी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं:-कांगड़ा के लोकगीत, साहित्य विश्लेषण एवं मूल्यांकन-शोध प्रबंध 5 लोकगीतों के व 5 लोक कथा संग्रह, कुल मिलाकर 50 पुस्तकें छप चुकी हैं। गत दो वर्षों में समय के साथ हिंदी कविता संग्रह, समय की बयार हिंदी गीत काव्य, पहाड़ पर ढलती धूप कहानी संग्रह, उसके लौटने तक पहला कहानी संग्रह है। इस वर्ष ढोलरू लोक गायन का संग्रह संपादन पुस्तक छपी है। इनके निर्देशन में तीन पीएचडी और 12 एमफिल शोध छात्र शोध पूर्ण कर चुके हैं। लोक संस्कृति के संरक्षण को दस्तावेजीकरण इनके जीवन का महत्त्वपूर्ण कार्य है।

युग की मर्यादा को भांपना ही लेखन की आत्मा है

हिमाचल का लेखक जगत अपने साहित्यिक परिवेश में जो जोड़ चुका है, उससे आगे निकलती जुस्तजू को समझने की कोशिश। समाज को बुनती इच्छाएं और टूटती सीमाओं के बंधन से मुक्त होती अभिव्यक्ति को समझने की कोशिश। जब शब्द दरगाह के मानिंद नजर आते हैं, तो किताब के दर्पण में लेखक से रू-ब-रू होने की इबादत की तरह, इस सीरीज को स्वीकार करें। इस क्रम में जब हमने गौतम शर्मा ‘व्यथित’ के काव्य संग्रह ‘समय के साथ’ की पड़ताल की तो साहित्य के कई पहलू सामने आए…

दिव्य हिमाचल के साथ

 दिहिः- आपके जीवन में जो अब तक हुआ, वह पूर्ण है या जिसका इंतजार आज भी अधूरेपन का एहसास है? लेखन में पूर्णता किस संदर्भ में लेखक को तड़पाती है?

डा. व्यथितः- जहां तक जीवन में जो अब तक हुआ है, वह पूर्ण तो नहीं कहा जा सकता, हां पूर्णता के निकट अवश्य है। अधूरेपन का एहसास होना जरूरी है, अन्यथा पूर्णता की ओर अग्रसर रहना संभव नहीं। लेखक को हर कृति पूर्ण होने पर भी उसकी अन्य कृति को कनसीव करने के प्रयास और आस में रहती है, यही उसकी तड़प होती है।

दिहिः- लेखन में उम्र का तकाजा और शोहरत में लिखने की वजह। साहित्य में गुजरते ये साल आपके लिए कितना जीवन लिखते रहे?

डा. व्यथितः- लेखन में उम्र का तकाजा और शोहरत में लिखने की वजह, ये दोनों प्रश्न अन्योन्याश्रित हैं। प्रश्न लेखन की वजह से है, कारण या स्थितियां जिस भी उम्र में बनती हैं, लेखन वहीं से आरंभ होता है। शोहरत में लिखने की वजह व्यक्ति की अपेक्षा बाजार की अधिक रहती है। साथ ही शोहरत को स्थिरता-निरंतरता प्रदान करने की बलवती (जोरदार) इच्छा भी। लेखन निरंतर है, स्थिति और अनुभूति के अनुरूप।

दिहिः- लेखन के निजी सुकून के बीच कभी अचानक आश्चर्य की मंजिल मिली हो या अविश्वास के रास्ते पर निकल कर विलोम होने के बावजूद, कभी शब्द लौट आए हों?

डा. व्यथितः- ऐसा अनेक बार घटा है, इसी कारण मुझे 1986 में राष्ट्रपति भवन के सभागार में बैठने, सम्मान पाने का गौरव प्राप्त हुआ। इसी क्रम में 2007 में आठवें विश्व हिंदी सम्मेलन में भारतीय प्रतिनिधिमंडल के सदस्य के रूप में न्यूयार्क के यू.एन.ओ. भवन में प्रवेश पाने व सभागार में बैठने और विश्व के अनेक देशों के हिंदी प्रतिनिधियों से मिलने का अवसर मिला। भारत के नामी लेखकों/साहित्यकारों व फिल्म जगत के गीतकारों से मिलन, संवाद करने का अवसर मिला। इसी बीच साहित्य अकादमी दिल्ली से भाषा सम्मान पाने का भी अवसर मिला। इनमें सुकून और आश्चर्य की संश्लिष्ट अनुभूति-प्रतीति हुई। लेखन के प्रति अविश्वास न हुआ, बावजूद विरोध, उपेक्षा, पहचान पाने में भी संकोच मिला, परंतु लेखन में विलोम की स्थिति नहीं आई, सही शब्द सदैव साथ रहे, साथ देते रहे, दे रहे हैं।

दिहिः- सत्य-असत्य, यथार्थ-काल्पनिक तथा लय-अभिनय के बीच साहित्यिक संबोधनों की ईमानदारी का कोई एक पैमाना, जो सदा निर्लिप्त व निष्कर्षित है?

डा. व्यथितः- सत्य-असत्य, यथार्थ-काल्पनिक तथा लय-अभिनय के बीच साहित्यिक संबोधन में ईमानदारी का निर्लिप्त निष्कर्षित पैमाना सदैव सम्मुख रहा, इसलिए राजसेवा व साहित्य सेवा दोनों के प्रति ईमानदारी बरती है। सत्य यथार्थ कहा है, परंतु शैली प्रतीकात्मक रही है। इसे स्वीकार करना लेखन-धर्मिता माना है। परंतु 21वीं सदी के आरंभ से यह चिंतन पूर्णतया सत्य और यथार्थवादी होता गया, निर्भीक भी।

दिहिः-समय की आकृति में युग की मर्यादा को भांपना ही अगर लेखन की आत्मा है, तो क्या स्वच्छंदता का सम्मोहन शब्दों का मूर्तिकार नहीं हो सकता?

डा. व्यथितः- आपका प्रश्न सही है, समय की आकृति में युग की मर्यादा को भांपना ही लेखन की आत्मा है। और इसके लिए स्वच्छंदता भी उतनी ही स्वतंत्र व मान्य है। वास्तव में हिंदी कविता में समय की आकृति में बढ़ती दुरूहता, विषमता, द्वंद्वात्मकता आदि को सही-सही व्यंजित करना शायद छंदबद्धता में इतना सुगम, सरल-सहज नहीं रहा। अतः स्वच्छंदता ही सही व सशक्त माध्यम बनी। शब्दों का मूर्तिकार तो मूर्तिकार ही है, स्वरूप चाहे कैसा भी हो, मकसद समय की आकृति को व्याख्या देना या संप्रेषित करना है जिसे श्रोता-दर्शक सहजता से ग्रहण कर सके। अतः स्वच्छंदता का सम्मोहन शब्दों का मूर्तिकार निश्चित हो सकता है, वह चाहे छंदबद्ध या स्वच्छंद कुछ भी हो।

दिहिः-सृजन में तृप्ति बोध संभव नहीं, तो शिकायत किससे और निजात किससे? लेखन का सहज स्वभाव क्या सिर्फ आत्मीय संवाद है या पर्दों के बाहर झांकने की कोई सीमा निश्चित हो चुकी है?

डा. व्यथितः- सृजन एक सहज प्रक्रिया है, स्थितियों-परिस्थितियों की उन्मूलता भी। मुझे साहित्य सृजन की इस प्रक्रिया से गुजरते छह दशक बीत गए हैं। इसी बीच साहित्य की प्रायः हर विधाओं में लिखा गया है जिसका प्रकाशित रूप देखकर प्रसन्नता व आश्चर्य दोनों होते हैं। गिनती में पचास तक प्रकाशन हो गए हैं। लेखन के लिए द्वंद्व का होना जरूरी है, भीतर कोई चुनौती जीवंत होनी चाहिए, उसी से जूझते जो भावनाएं क्रिया-प्रतिक्रिया होती है, वास्तव में वही कृति को जन्म देती है। इस प्रक्रिया से गुजरी कृति ही कालजयी होती है। सृजन में तृप्ति बोध स्थिरता या विराम लाता है, वास्तव में अतृप्ति ही कला की जन्मदात्री है। अतः इस स्थिति में न तो किसी से शिकायत रहती है न ही निजात पाने की आशा क्योंकि लेखन का संबंध आत्मीय है।

दिहि :- क्या आप जीवन पर्यंत सृजन की फांस में रहे या जीवन को उत्सुक बनाए रखने की खोज ने पाया साहित्य ही आपके जीवन की विधा सरीखा हो गया?

डा. व्यथितः- जीवन पर्यंत सृजन की फांस में रहना या जीवन को उत्सुक बनाए रखने की खोज का साहित्यिक विधा सरीखा हो जाना स्वाभाविक है, शायद इसे ही समर्पित भाव कहते हैं। जब व्यक्ति किसी भी मकसद या कर्म के प्रति समर्पित हो जाता है तो उसे फांस भी पुष्प माला सरीखी महसूस होती है जिसकी सुगंध की मादकता में वह फांस के कसाव में भी आनंद की अनुभूति करता है।

दिहिः- आपने कमोबेश हर तरह की साहित्यिक रचनाएं रची हैं तो कोई एक सेतु जिस पर आपकी संवेदना का सारा सफर चलता रहा?

डा. व्यथितः- आपका प्रश्न सही है। मैंने साहित्य की हर विधा को छूने-अपनाने का प्रयास किया है। परंतु मेरी मूल संवेदना हिमाचली लोकजीवन की सामाजिक-सांस्कृतिक धरोहर को जानने, संजोने, दस्तावेजित करने के साथ उसे मंचीय स्वरूप देने में अधिकतर अग्रसर रही और यही सांस्कृतिक-सामाजिक संवेदना मेरे लेखकीय सफर में एक सेतु बनकर मेरा मार्ग प्रशस्त करती रही। निस्संदेह लेखकीय प्रयास साहित्य की हर विधा अथवा मनोसंवेदना के कारण कुछेक की ओर अग्रसर रहने का प्रयास करता है, परंतु  हृदय को अधिक प्रभावित करने वाली संवेदना प्रायः सेतु बन जाती है जो अनुभूति-प्रतीति की खाई को पाटती सृजनन्यात्रा को निरंतर बनाती है। इस दिशा पर उत्तर चाहें तो मैं यही कहूंगा कि मेरे भीतर लोक सांस्कृतिक संवेदना ही सेतु बनी, बनती आ रही है। सफर निरंतर जारी है।

दिहिः- हिमाचल के सांस्कृतिक पक्ष में लेखन की अपनी पारी को कितना मुकम्मल पाते हैं। सृजन का हिमाचली लोकरंग क्या पूरी तरह लेखन पर चढ़ा। संस्कृति से कितना जुड़ पाया है हिमाचली लेखन?

डा. व्यथितः- हिमाचल के सांस्कृतिक पक्ष में संप्रतिकालीन (आज का) लेखन काफी चढ़ा है, कितना मुकम्मल है यह कहना अभी मुश्किल है क्योंकि मुकम्मल के बाद विराम लग जाता है। दिव्य हिमाचल ने भी इस पक्ष को प्रोत्साहित किया है। हिम भारती, सोमसी, साप्ताहिक गिरिराज की भूमिका भी सराहनीय है। परंतु जो हिमाचल का सांस्कृतिक पक्ष उभारने, पाठकों तक पहुंचाने की भूमिका हिमप्रस्थ मासिक पत्रिका की रही है, निस्संदेह संग्रहणीय है, सराहनीय है, संदर्भ महत्त्व रखता है। जहां तक हिमाचली लेखन के संस्कृति से जुड़ने का प्रश्न है तो आज क्या दशकों से हिमाचल का कहानीकार, कवि, उपन्यासकार, आलेख लेखक बड़ी संवेदना से इस धरोहर को पात्रों, पर्यावरण/ परिवेश चित्रण, परंपरा वर्णन आदि के माध्यम से अभिव्यक्त कर रहा है। अब तो सिनेमा, लोकगायन आदि भी इस पक्ष में जागरूक है। हां यह विचारणीय है कि वे उसकी सनातनता को कितना संजोने में सहायक होते हैं।

दिहिः-बाहर और भीतर के विरोध में आपका द्वंद्व कहीं आध्यात्मिक शिराआें को छू पाया या किसी कहानी की मुंडेर पर विश्राम करने का एहसास बनकर रह गया?

डा. व्यथितः- यह प्रश्न बड़ा सटीक है। द्वंद्व का कोई भी रूप हो, इसके बिना सृजन संभव नहीं। हां बाहर का द्वंद्व जब भीतर के द्वंद्व से साझा होता है तो आध्यात्मिकता की ओर अग्रसर होता है सृजन। दूसरे, आयु के साथ व्यक्ति का चिंतन अनुभूति की सान पर घिसता, प्रतीति की तीव्रता के कारण सत्य-बोध की ओर बढ़ता है और यहीं से दिखने लगता है रचनाकार की कृति में आध्यात्मिक शिराओं का स्पर्श। ऐसा आप मेरे वर्ष 2015 में प्रकाशित हिंदी कविता संग्रह ‘समय के साथ’ और वर्ष 2016 में प्रकाशित ‘समय की बयार’ में देख सकते हैं। कहानी की मुंडेर पर जब कभी विश्राम करने की सोची भी तो आध्यात्मिक बोध ने पुनः सफर जारी रखने को प्रेरित किया।

दिहिः-किसी भी रचना की मौलिकता को छूने की शर्त या पाने की खुशबू क्या है। चेहरों के बीच किसी कविता का चेहरा अलग कैसे हो सकता है या बिना किसी पाबंदी के सीमा का उल्लंघन ही मौलिकता है?

डा. व्यथितः- रचना का यथार्थ और परक शिल्प विरेचनात्मक आदर्श ही मौलिकता को छू पाने की शर्त हो सकती है। यह दोनों तत्त्व जब संगुफित रूप में किसी भी रचना में समा जाते हैं तो वही उसकी खुशबू और सौंदर्य हो जाते हैं। ऐसी रचना पुनरावृत्ति देने पर भी उससे अतृप्त रहती है। चेहरों के बीच किसी कविता का चेहरा/यथार्थ, अभिव्यक्ति कौशल से ही अलग दिखता है। सौंदर्य की अनुभूति और प्रतीति तो दर्शक और पाठक की दृष्टि पर निर्भर होती है। अंदाज अपना ख्याल अपना कथन से तो हर कोई वाकिफ है, हां यदि यहां पाबंदी अभिव्यक्ति के आयाम की है तो उल्लंघन ही मौलिकता का लक्षण है। ढर्रे का लेखन अल्पायु होता है। साहित्य का संबंध हित से है जो यथार्थ और आदर्श से संभव है। वही उसे कालजयी बनाता है। रचना में शिल्प का सौंदर्य गालिब के इस शे’र में देखें :

हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे,

गालिब का है अंदाजे ब्यां कुछ और।

इसी माध्यम से चेहरों के बीच किसी कविता का चेहरा अलग दिखता है। निराला की कविता – ‘वह तोड़ती पत्थर इलाहबाद के पथ पर’ में भी अभिव्यक्ति की मौलिकता का उत्तर मिलता है।

दिहिः-हिमाचली परंपराओं की खूबी में आपको जो मिला और जिसे लिखा, वह अभिप्राय कैसे बना?

डा. व्यथितः-वास्तव में किसी भी अभिप्राय की पृष्ठभूमि में दो तत्त्व प्रभावी रहते हैं-संपर्क/परिवेश और अध्ययन/अनुभूति। मैं जन्म/शैशव से हिमाचली सांस्कृतिक, सामाजिक, नैतिक परंपराओं से दृश्य -श्रव्य-कृत्य रूप में जुड़ा रहा जिसमें विविध रंग / बिंब / प्रभाव मेरे मानस में घर करते रहे। छब्बीस वर्ष की आयु में डॉ. एम.एस.रंधावा कमिश्नर पंजाब कलाम नीषी से संयोगवश बख्शी राम डोगरा के माध्यम से भेंट हुई जो मेरे लोकगायन व लोकगायन शैली पर रचित पहाड़ी कविता गीतों से प्रभावित हुए। मुझे नवंबर 1964 में आकाशवाणी जालंधर से पर्वतीय गूंज कार्यक्रम में भाग लेने का अवसर मिला। 1968 में एम.ए .हिंदी करने पर जालंधर में ही डा. रमेश कुंतल मेघ व डा. चंद्रशेखर से भेंट हुई रविंद्र धीमान के माध्यम से, और मैं हिंदी विभाग पंजाब विश्वविद्यालय चंडीगढ़ में पीएचडी के लिए प्राइवेट छात्र रूप में पंजीकृत हुआ। इस मध्य डा. चंद्रशेखर जी से भाषा का संस्कार मिला, आम व्यक्ति का अंदाज भी, शब्द प्रयोग का कौशल भी स्नेह सानिध्य भाव से मिला। सन् 1974 नवंबर में कांगड़ा लोक साहित्य परिषद के मंच की स्थापना व उसके माध्यम से प्रिय मित्रों के साथ कांगड़ा जनपदीय महिला लोकनृत्य झमाकड़ा को मंचीय स्वरूप देने, यहां की भगत राम, चंद्रोली व अन्य लोक परंपरा के विरासती कलाकारों से सीधा जुड़ाव, उनकी कला विरासत की संभाल के प्रति रुचि होना, मेरे लोक सांस्कृतिक लेखन का अभिप्राय बनता गया। उसी माध्यम से मुझे आशातीत पहचान मिली, जिस पर मैं अद्यतन अग्रसर हूं।

दिहिः-मौन जब संवाद करता है या खामोशी ही अभिव्यक्ति हो जाती है, तो भाषा की पहचान क्या है। समाज के भीतर शब्दों का शून्य होना कब और कहां अखरता है?

डा. व्यथितः-ऐसी स्थिति में संप्रेषणीयता की सामर्थ्य ही भाषा की पहचान है। अभीष्ट संप्रेषणीयता जितनी सटीक, सशक्त तथा प्रभावी होती है, अभिप्राय की उतनी ही तीव्रता से पूर्णता होती है। समाज के बीच शब्दों का शून्य होना संवाद होने तक अखरता है। शब्द की प्रकृति ध्वनि है, कथन है, अभिव्यक्ति जिसमें अर्थ निहित रहता है। अतः जब तक शब्द शून्य रहते हैं तो निश्चित ही अखरते हैं। भीतर का द्वंद्व बढ़ता है, मनोरोग संक्रमित करता है। परंतु जब द्वंद्व आत्म मंथन द्वारा अभिव्यक्ति पाता है या भीतर का आक्रोश शब्द की आकृति बनकर उभरता है, तो विरंचन की स्थिति में आनंद की प्राप्ति होती है। यही कला अभिव्यक्ति की सार्थकता है।

दिहिः-अगर आप पर्वतीय परिवेश में न होते?

डा. व्यथितः-तो अन्य परिवेश अनुरूप ही व्यक्तितव व लेखन का स्वरूप होना स्वाभाविक था। लेखन या रचनाकार का प्रवृत्यात्मक विकास परिवेश की प्राकृतिक व सामाजिक पृष्ठभूमि के अनुरूप ही होता है। संभवतया इसी कारण उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, दक्षिणवासी व पर्वतीय (सीमांती) लेखन की धारा व विषय, शिल्प एक दूसरे से भिन्न होता है। यदि मैं मैदानी, रेगीस्तानी, आदिवासी या समुद्रतटीय अंचल में होता तो मेरा चिंतन व अभिव्यक्ति विषय तदनुरूप होते। परंतु मुझे जो अपने अंचल में जन्म लेने, बचपन व युवाकाल के अनुभव मिले, और जो बिना किसी विशिष्ट पारिवारिक पृष्ठभूमि के पहचान मिली, जो कर्मठ सहयोगी मिले, शायद ऐसा अन्यत्र न हो पाता, भले ही मैं हिंदी का सशक्त हस्ताक्षर हो जाता। मेरी पहचान पर्वतीय परिवेश हिमाचल के कारण बनी है, मुझे आशातीत पहचान मिली है, जो एक जीवन में पर्याप्त है। मुझे इस पर गर्व है, प्रसन्नता व संतोष है।

-विनोद कुमार, धर्मशाला

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