वट वृक्ष को ढूंढते

By: Apr 8th, 2018 12:05 am

अपनी कुशलता के लिए शारीरिक सौष्ठव कभी भी पर्याप्त नहीं रहा। मनस कौशल की नींव पर ही तन सौंदर्य का प्रासाद सुंदर हुआ करता है। आप तन के बूते पर मन की बात कभी नहीं कर सकते। मन के आधार से तन के आकार को गढ़ा जा सकता है। झ्र

झंडे की ऊंचाई के लिए भी हमें पतली लाठी की जरूरत पड़ा करती है। ऊंचा होने और अपनी स्थिरता के लिए वृक्ष की जड़ों के नीचे गहरे उतरना जरूरी है। कद-काठी से निडरता का जन्म हो, यह जरूरी नहीं। आप बौने होकर भी मानसिक अनंतता के दर्शन कर सकते हैं। मन के निर्झर झरने से उत्पन्न संगीत ही प्रकृति के साथ तादात्म्य बिठा सकता है। अपनी प्रकृति को जाने बिना असीम प्रकृति का आनंद नहीं मिला करता। भीतर बैठे डाकू को बाहर के चोरों से छिपाना व्यर्थ है। बुद्धत्व के लिए वट वृक्ष को ढूंढते रहना हमारी सनातन कमजोरी है। चिल्लाने मात्र से अपनी बात नहीं कही जा सकती। न ही शोर की भोर में स्फूर्ति का कोई आलम हुआ करता है। भाषा के लिए शब्द जरूरी, लेकिन अशब्द होकर जो कहा जा सकता है, वह किसी भाषा विवर्ण और व्याकरण के बाहर है। आपका एक इशारा आंखों की गहरी झील से मोती चुन सकता है। आपके ऊंचे मंच और ललकार भरी भाषा अकसर अर्थहीन साबित होती है। भीड़ को जमा करना ही मकसद होगा तो जुमलों की परिक्रमा से बाहर आना असंभव है। हमारे भीतर की भगवत्ता ही अर्जुन जैसी शूरवीरता के दिग्दर्शन करवा सकती है। गीता के उपदेश तब तक निरर्थक हैं जब तक आप अपनी दुश्वारियों से जीवन ऊर्जा का पान कर रहे हैं। मुसीबतों के बुत बहुत बड़े होते रहेंगे जब तक समस्या के महीन गणित को समझ न लिया जाए। मन की संकरी गलियों से निकले बिना अवसाद के किले कभी ध्वस्त नहीं होंगे। मेरा होने और हमारे होने की बारीक सीमा को लांघ कर ही हम ब्रह्मांड की अनंतता पर बात कर सकते हैं। ऋषियों के वचन उच्चारित करने से उपनिषद् के भाव पकड़ में नहीं आएंगे। न ही यज्ञ में दी गई आहुतियों से मानसिक प्रदूषण कम होगा। आप सदियां लांघ आएं, यात्रा की शुरुआत नहीं होगी। भाव संसार की शुद्धता से जीवन जीने की कला का मील पत्थर दिखाई देने की संभावना जागेगी। अमूर्त को जानने के लिए मूर्तियों की उपासना से समय हमारी अनंत मूर्खता पर हंसता आ रहा है।

— भारत भूषण ‘शून्य’


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