हर सरकारी संस्थान का दायित्व सुनिश्चित हो

By: Apr 18th, 2018 12:07 am

अश्वनी भट्ट

लेखक,  खनियारा, धर्मशाला से हैं

जब तक संस्थानों को विद्यालय स्तर पर अधिक स्वायत्तता नहीं दी जाती, तब तक कोई भी कानून व नीति वांछित सुधार नहीं ला सकती क्योंकि इसको लागू करवाने की अंतिम जिम्मेदारी विद्यालय स्तर पर ही तय की जाएगी।वर्तमान में शिक्षण व्यवसाय में भी ऐसे लोगों का प्रवेश हो चुका है, जिनके लिए यह केवल धनार्जन का साधन बन गया है…

प्रदेश में यूं तो अकसर सड़क दुर्घटनाए होती रहती हैं, परंतु पिछले दिनों कांगड़ा जिले की नूरपुर तहसील के पास हुए बस हादसे ने प्रदेश को जिस तरह झकझोर कर रख दिया है, उसके जख्मों को भरने में कई दशक लगेंगे। प्रदेश के इस हादसे की गूंज पूरे देश व दुनिया में सुनाई दी। मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, राज्यपाल व राष्ट्रपति जी ने प्रदेश में हुए इस हादसे पर अफसोस जताया। हादसे के अगले ही दिन प्रदेश का सरकारी अमला सड़कों पर चालान काटता नजर आया और हादसे से सहमे अभिभावक अपने बच्चों की सुरक्षा को लेकर चिंतित नजर आए। सरकार ने हादसे की जांच के लिए एक जांच दल का गठन कर दिया और रिपोर्ट आने पर कार्रवाई करने का भरोसा भी दिला दिया। परंतु जैसा कि अकसर होता है कि हर दुर्घटना के बाद आरोप-प्रत्यारोप व सांत्वना का जो एक दौर चलता है, वह समय के साथ-साथ क्षीण होता जाता है और फिर हम सब इसे भाग्य का कहा मान कर फिर से उसी पटरी पर जीवन को ले आते हैं। प्रदेश में जिस प्रकार से अभिभावकों का प्रदेश के सरकारी स्कूलों से मोह भंग हो रहा है और जिस तरह से प्रदेश में निजी पाठशालाओं की ब्रांडिंग की जा रही है, उससे एक असंतुलन की स्थिति पैदा हो गई है। शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 के प्रदेश में लागू होने के बाद सरकार के लिए हर डेढ़ किलोमीटर पर एक प्राथमिक पाठशाला की स्थापना अनिवार्य की गई है और प्रदेश में इस लक्ष्य को लगभग हासिल किया जा चुका है, तो फिर प्रश्न यह उठता है कि आखिर क्यों प्रदेशवासी इन पाठशालाओं में प्रवेश लेने की बजाय घरों से 35-50 किलोमीटर दूर ही शिक्षा लेने जा रहे हैं?

कारण स्पष्ट है कि प्रदेश के शिक्षण संस्थानों के प्रति लोगों में विश्वास का भाव नहीं रहा है। यह प्रदेश सरकार व प्रदेश के शिक्षा जगत से जुड़े सभी लोगों के लिए भी चिंतनीय प्रश्न है। शिक्षा ही क्यों, प्रदेश में जिस तरह से सभी सरकारी संस्थानों का क्षरण हो रहा है, वह चिंता का विषय है। अगर इसी बहाने हम प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था की ही परतें उधेडे़ं तो पता चलेगा कि प्रदेश में सरकार व विभाग जिन बातों को गुणवत्ता से जोड़ते हैं, प्रदेशवासी उन्हें गुणवत्ता को खराब करने वाला मानते हैं। सरकारी पाठशाला में जहां छह वर्ष से बच्चों को प्रवेश दिया जा रहा है, वहीं निजी पाठशालाएं दो वर्ष से ही बच्चों को पाठशालाओं में प्रवेश दे रही हैं और हर प्रदेशवासी अपने बच्चों को इनमें प्रवेश दिलवा रहा है। परंतु विभाग व सरकार इस बात से बेखबर बने हैं। निजी पाठशालाओं में जिस तरह से हर विषय व कक्षा के लिए अलग-अलग अध्यापक की व्यवस्था है, वहीं प्रदेश में पांच कक्षाओं में अगर चालीस से कम बच्चे हैं, तो केवल एक ही अध्यापक दिया जा रहा है। प्रदेश के अध्यापकों के हजारों रिक्त पदों का ब्यौरा पहले से ही विधानसभा में रखा जा चुका है। निजी पाठशालाएं जहां अपने हिसाब से वर्दी व किताबें लगवा रही हैं, वहीं सरकारी संस्थानों के बच्चों को एक जैसी वर्दी पहनने को मजबूर किया जा रहा है। अगर यह रंग इतने ही आकर्षक हैं, तो सरकार क्यों नहीं प्रदेश के सभी सरकारी व गैर सरकारी पाठशालाओं के छात्रों की वर्दी और पाठ्यक्रम एक जैसा कर देती? प्रदेश में जिस तरह से बच्चों को मुफ्त भोजन, वर्दी, किताबें व अन्य सुविधाएं दी जा रही हैं, उनसे प्रदेश की न तो शिक्षा व्यवस्था में कोई सुधार देखने को मिल रहा है और न ही इससे प्रदेश की पाठशालाओं में बच्चों की दाखिला लेने की संख्या में कोई सुधार देखने को मिला है। प्रदेश के नीति निर्धारक इन सब में सुधार करने की बजाय इनमें और सब चीजें जोड़ते जा रहे हैं। अब शायद वर्तमान सत्र से बच्चों को बैग व किताबें भी मिलनी शुरू हो जाएंगी। इन सब गैर उत्पादक खर्चों के बजाय अगर यह राशि पाठशालाओं में अध्यापकों को उपलब्ध करवाने में खर्च की जाए, तो निश्चित तौर पर बच्चों की पंजीकरण संख्या में बढ़ोतरी हो सकती है। सभी सुविधाओं से पूर्ण पाठशालाएं खोली जाती हैं, तो भी सुधार की कुछ गुंजाइश की जा सकती है। जब तक संस्थानों को विद्यालय स्तर पर अधिक स्वायत्तता नहीं दी जाती, तब तक कोई भी कानून व नीति वांछित सुधार नहीं ला सकती, क्योंकि इसको लागू करवाने की अंतिम जिम्मेदारी विद्यालय स्तर पर ही तय की जाएगी। ऐसा नहीं है कि केवल ऊपरी स्तर पर ही कमी है।

वर्तमान में शिक्षण व्यवसाय में भी ऐसे लोगों का प्रवेश हो चुका है, जिनके लिए यह केवल धनार्जन का व सामाजिक स्टेटस की पूर्ति मात्र का साधन बन गया है। प्रदेश की सरकारी पाठशालाओं में जिस प्रकार से पिछले दरवाजे से की गई भर्तियों को हर सरकार संरक्षण प्रदान करती आई है, उसने भी पार्टी विशेष के लिए वोट बैंक बनाने का कार्य किया है। जिम्मेदारी व जवाबदेही जब तक तय नहीं होती, तब तक सुधार संभव नहीं हैं। सरकारी सेवा में भी जवाबदेही सुनिश्चित होनी चाहिए व तय शर्तों पर खरा न उतरने वाले अध्यापकों व मुखियाओं को विभाग से विदाई दे देनी चाहिए। कोई भी सरकारी व्यवस्था जनता की सुविधा के लिए है, न कि सरकारी कर्मचारियों की सुविधा के लिए। जब तक सरकारी संस्थानों को निजी संस्थानों की तर्ज पर संचालित करके उन्हें उनसे ऊपरी पायदान पर खड़ा नहीं करवाया जाता, लोग घर के पास स्थित सरकारी पाठशाला की बजाय इन्हीं संस्थानों में अपने बच्चों को भेजेंगे। निजी पाठशालाओं की फीस निर्धारण व नियंत्रण का कोई भी नियामक प्रदेश में नहीं है, जो अपने आप में ही एक अचंभित करने वाली बात है। जिला शिक्षा अधिकारियों में भी यह साहस नहीं है कि इन निजी संस्थानों में निरीक्षण के लिए जा सकें। परिवहन विभाग भी तभी जागता है, जब कोई दुर्घटना घट जाती है। नूरपुर हादसा केवल एक याद बन कर न रह जाए, इसलिए सभी को इस हादसे से सबक लेने होंगे और सभी की जिम्मेदारी व जवाबदेही तय करनी होगी, चाहे वह शिक्षा विभाग हो, परिवहन विभाग हो, पुलिस विभाग हो या लोक निर्माण विभाग।

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