हिमाचल में कब होगी सुशासन की भोर

By: Apr 12th, 2018 12:05 am

सतपाल

लेखक, एचपीयू में सीनियर रिसर्च फेलो हैं

चुनाव आयोग ने विधायकों व सांसदों के लिए अपनी आय को सार्वजनिक करना आवश्यक कर दिया, जो अपने आप में सुशासन की तरफ  एक कदम है। आज सभी उम्मीदवार अपनी आय का विवरण देते हैं। परंतु विधायकों की पूंजी हजारों से करोड़ों रुपए में तबदील होना क्या सुशासन का प्रतीक है…

हिमाचल प्रदेश की जनता ने वर्ष 1948 से कई सरकारें व उनके शासन देखे हैं, परंतु आज भी सुशासन की दरकार जनता इन सरकारों से लगाए हुए है। पिछले कुछ दशकों में प्रदेश की जनता ने भ्रष्टाचार को पनपते व फलते-फूलते देखा है, जिसका कारण सुशासन का अभाव है। ऐसा कहने में अतिशयोक्ति न होगी, प्रदेश की जनता ने आपातकाल जैसे सदमे से लेकर न जाने कितने सदमे बर्दाश्त किए हैं। राजनीतिक रंजिशों के चलते राजनीति के स्तर में गिरावट का दंश भी प्रदेश की जनता ने झेला है। यद्यपि हिमाचल के अस्तित्व में आने से अब तक प्रदेश ने कई क्षेत्रों में महारत हासिल की है, चाहे शिक्षा का क्षेत्र हो, स्वास्थ्य या ढांचागत अधोसंरचना का विकास हो, प्रदेश निरंतर प्रगति पथ पर अग्रसर है। ऐसा करना प्रत्येक सरकार की नैतिक जिम्मेदारी भी है, जो भारत के संविधान ने प्रजातंत्र के माध्यम से उन्हें सौंपी है। पिछले कुछ समय से शिक्षा का बाजारीकरण, स्वास्थ्य क्षेत्र का व्यापारीकरण, कर्ज तले दबता प्रदेश, पीने के लिए स्वच्छ पेयजल का अभाव, उचित बिजली की व्यवस्था का अभाव तथा बढ़ती बेरोजगार युवाओं की सूची व भाई-भतीजावाद का बढ़ता प्रभुत्व इत्यादि ऐसे मूलभूत मुद्दे हैं, जो प्रदेश द्वारा विकास के लिए तय की गई डगर को प्रश्नात्मक दृष्टि से देखते हैं तथा सुशासन की एक कमी को महसूस करते हैं।

प्रदेश प्रगति की राह पर अग्रसर हो रहा है, परंतु सुशासन के अभाव के कारण प्रगति संकुचित हो कर रह गई है। सुशासन अर्थात गुड गवर्नेंस जिसकी आवश्यकता विश्व बैंक, संयुक्त राष्ट्र संघ व अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी विश्व की जानी-मानी संस्थाओं ने 1990 के दशक में महसूस की। जब अफ्रीका के गरीब देशों को इन संस्थाओं द्वारा सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक उत्थान के लिए विशेष सहायता प्रदान की गई थी, परंतु आबंटित राशि का उपयोग उपयुक्त न होते देख सुशासन की जरूरत पूरे विश्व में महसूस की गई तथा सुशासन नामक शब्द की उत्पत्ति हुई। सुशासन केवल शब्द नहीं है, इसकी अहमियत को समझने की जरूरत है, क्योंकि सुशासित शासन ही किसी भी देश व प्रदेश के सामरिक विकास के लिए मददगार है। सुशासन की इस कड़ी को आगे बढ़ाते हुए व भारतवर्ष में इसकी जरूरत महसूस करते हुए वर्तमान सरकार के मुखिया व प्रधानसेवक जी ने 25 दिसंबर, 2014 को वाराणसी की पावन स्थली मेें 25 दिसंबर को प्रतिवर्ष सुशासन दिवस के रूप में मनाने की एक पहल की, जो अपने आप में काबिले तारीफ समझ थी।

इस पहल के बावजूद वर्ष 2014 से वर्तमान समय तक जनता सुशासन की उम्मीद से केंद्र की तरफ टकटकी लगाए हुए है। हिमाचल प्रदेश की जनता शांतिप्रिय, ईमानदार, परिश्रमी व कर्मठ है, ऐसा कहने में अतिशयोक्ति न होगी। ऐसे शब्द राजनेता व चुनावी उम्मीदवारों के लिए प्रयुक्त होते हैं। अतः सुशासन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को जगजाहिर करके राजनेता व उम्मीदवार खरे उतर सकते हैं और इन शब्दों की लाज रख सकते हैं, अन्यथा इन प्रतिष्ठित शब्दों की तौहीन होना लाजिमी है। प्रदेश में अधिकतर जनता ग्रामीण है। उनकी आवश्यकताएं भी सीमित हैं, परंतु उन्हें सरकार से कवायद है तो सिर्फ सुशासन की। चुनाव आयोग द्वारा विधायकों व सांसदों के लिए अपनी आय को सार्वजनिक करना आवश्यक कर दिया, जो अपने आप में सुशासन की तरफ  एक कदम है, परंतु बात संपत्ति के ब्यौरे तक सीमित रह गई है। आज सभी उम्मीदवार अपनी आय का विवरण नामांकन के दौरान देते हैं, परंतु उस आय का लेखा-जोखा उनसे शायद ही कभी लिया गया हो, जो हम सभी के मन में एक प्रश्न है। प्रदेश के लगभग सभी विधायकों की पूंजी हजारों रुपए से करोड़ों रुपए में तबदील होना क्या सुशासन का प्रतीक है? वर्तमान में यहां तक कि रोजगार देने के लिए ठेकेदारी प्रथा जिसे आउटसोर्स कर्मी की संज्ञा दी गई है, किस हद तक सुशासन का परिचायक है। शायद ही प्रदेश में ऐसा कोई महकमा रह गया हो जहां इस तरह के आउटसोर्स कर्मी तैनात न किए गए हों। उन कर्मियों के ऊपर भी ठेकेदार कंपनियां कमीशन खाने का काम कर रही हैं। क्या यह सर्वोच्च न्यायालय की समान कार्य के लिए समान वेतन की अवहेलना नहीं है? क्या इस तरह के शासन को सुशासन कहा जा सकता है? एक शासन को सुशासन में तबदील करने में सत्ता पक्ष के साथ-साथ विपक्ष का भी बहुत बड़ा हाथ होता है, क्योंकि नीति-निर्माण में पक्ष के साथ-साथ विपक्ष की भी उतनी ही भूमिका रहती है। प्रदेश में कुशासन की यह बेला यहीं समाप्त नहीं होती, बल्कि हमें वर्ष 2015 में सुर्खियों में रहे अतिक्रमण नामक मुद्दे की याद दिलाती है।

अतिक्रमणकारियों पर कार्रवाई की गई, जो कि सरकार की अपनी पूंजी की रक्षा के प्रति वचनबद्धता को उजागर करती है, परंतु यह भी सभी भली-भांति जानते हैं कि कार्रवाई किस पर की गई और किस पर नहीं। क्या अपनी ही जनता के साथ दोगला व्यवहार करना ही सुशासन है? कोटखाई छात्रा हत्या प्रकरण की जांच के लिए गठित समिति के सदस्यों की ही केस में संलिप्तता का पाया जाना क्या सुशासन का प्रतीक है? ऐसी अनेक घटनाएं हैं जो प्रदेश की छवि को धूमिल करती हैं तथा जनता सुशासन की उम्मीद में आस लगाए बैठी है। अतः कोई भी सरकार हो प्रदेश को एक सुशासित शासन व्यवस्था प्रदान करे। उसमें ही जनता का हित निहित है, अन्यथा परिणाम और घातक होने की संभावनाएं बन सकती हैं, जो प्रदेश को अवनति की ओर धकेल सकती हैं।

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