अध्यात्म की दृष्टि

By: May 26th, 2018 12:05 am

बाबा हरदेव

मनुष्य केवल साक्षी मात्र है, अतः इस वास्तविकता को सम्मुख रखकर रब्बी लोग फिक्र छोड़ देते हैं मिलने और न मिलने की। सुख आए तब भी फिक्र नहीं दुख आए तो भी चिंता नहीं कि दुख आया है और इस तरह से इनके लिए धीरे-धीरे सुख और दुख में भेद गिरना शुरू हो जाता है और जब ये सुख और दुख के बीच निर्लिप्त हो जाते हैं, तो ऐसी निर्लिप्ता में इनका ‘कर्ताभाव’ खो जाता है…

अध्यात्म की दृष्टि में भाग्य का मतलब ज्योतिष से नहीं है। भाग्य का हाथ की रेखाओं से भी कोई संबंध  लेना-देना नहीं है। सड़क के किनारे बैठे हुए ज्योतिषी से कोई संदर्भ नहीं है। मानो भविष्य से भाग्य का कोई संबंध नहीं है। भाग्य का ख्याल बहुत आध्यात्मिक है। आध्यात्मिक जगत में भाग्य की धारणा इससे पैदा हुई कि मनुष्य ‘कर्ता’ नहीं है, बल्कि चीजें घटित हो रही हैं। उदाहरण के तौर पर मनुष्य ने कभी भी खुद श्वास नहीं ली। श्वास तो चल रही है, आ रही है, जा रही है। (अध्यात्म में आती हुई श्वास को सांस कहते हैं और बाहर निकल रही श्वास को ग्रास कहते हैं)। श्वास केवल एक अलग यंत्र है, अलग अवस्था है मनुष्य तो केवल साक्षी है। मनुष्य को इसका पता तक भी नहीं चलता, क्योंकि अगर मनुष्य खुद श्वास लेता होता तो यह कब का मर गया होता क्योंकि मनुष्य अगर एक क्षण को भी चूक जाता श्वास लेनी, तो टूट जाते सब सिलसिले। इसलिए श्वास मनुष्य लेता नहीं है, इसका कर्ता नहीं है, बल्कि श्वास मनुष्य को लेती है।

हर जर्रा चमकता है अनवारे इलाही से

हर सांस ये कहती है हम है तो खुदा भी है

(सूफी कवि)

अब इसी प्रकार खून शरीर में बहता है, मनुष्य खुद बहाता नहीं है। मनुष्य इसका कर्ता नहीं है। हृदय धड़कता है मनुष्य इसका भी कर्ता नहीं है। अतः श्वास का चलना खून की गति और हृदय की धड़कन की आवाज हमारी समझ में आ जाए, तो यह बात भी आसानी से समझ में आ जाएगी कि बुद्धि और मन भी चलता है और यह सब अपने आप हो रहा है। मनुष्य केवल साक्षी मात्र है, अतः इस वास्तविकता को सम्मुख रखकर रब्बी लोग फिक्र छोड़ देते हैं मिलने और न मिलने की। सुख आए तब भी फिक्र नहीं दुख आए तो भी चिंता नहीं कि दुख आया है और इस तरह इनके लिए धीरे-धीरे सुख और दुख में भेद गिरना शुरू हो जाता है और जब ये सुख और दुख के बीच निर्लिप्त हो जाते हैं तो ऐसी निर्लिप्ता में इनका ‘कर्ताभाव’ खो जाता है क्योंकि इस सूरत में करने के लिए कुछ बचता ही नहीं। संपूर्ण अवतार वाणी का भी फरमान है।

जो कुछ वी रब कर देंदा ए इसनूं मिट्ठा लगदा ए।

जिस दे दिल विच चौहवी घंटे नाम दा दीवा जगदा ए।

(अवतार वाणी)

अतः जब व्यक्ति कर्ता नहीं रह जाता तो फिर मनुष्य परमात्मा को ही कर्ता मान लेता है और जब परमात्मा को कर्ता मान लिया जाता है, तो इस भाव दशा का नाम ही ‘भाग्य’ (विधि) है।

मानो सुख की अकांक्षा न करना, दुख को हटाने का ख्याल न करना, सुख को न मांगना, न दुख को हटाने की कोशिश करना, क्योंकि अगर हम सुख मांगते हैं तो बाहर संघर्ष करना पड़ता है सुख को बचाना पड़ता है और दुख से बचना पड़ता है। इस सूरत में शरीर के बाहर चेतना को सदा भटकाना पड़ता है मकानों में, जायदाद में, धन में, पदों में, दूसरों में और फिर हम शरीर से बंध जाते हैं और इसके विपरीत अगर हमें सुख की कोई अपेक्षा नहीं, दुख से भय नहीं और अगर दुख भी मिल जाता है, तो हम राजी हो जाते हैं इसे स्वीकार करते हैं तब हम शरीर से छूटने लगते हैं और ऐसी दशा हमको शरीर के भीतर ले जाती है।

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