अवैध कब्जों के निपटारे में सुस्ती क्यों ?

By: May 21st, 2018 12:05 am

सुगन धीमान

लेखक, बद्दी से हैं

पीला पंजा जब अतिक्रमण को हटाने के लिए चलता है तो अतिक्रमणकारियों को अति वेदना होती है। परिणामस्वरूप छोटी-मोटी झड़प से लेकर गोलियों की दनदनाहट सुनाई दे जाती है, तो क्या कसौली में जो होटल मालिक ने खेल खेला वह अंतिम खेल था…

हिमाचल के लोगों की अति मृदुभाषा, सरल जीवनशैली, भोला-भाला स्वभाव मन को मोह लेता है। दूरदराज के इलाकों में यह हिमाचली शैली की छाप अभी भी बरकरार है। प्रदेश में अनेक धार्मिक स्थल लोगों के स्वभाव को धर्म की अमृत धारा से निर्बाध सींचते रहते हैं, लेकिन 21वीं सदी के आते-आते यहां के लोगों पर भी आधुनिकता का प्रभाव पड़ा है। लोगों ने अपनी जीवनशैली बदली, अधिकारों के प्रति सजग हुए। इसका कारण शिक्षा के विस्तार का होना है। अब लोग पुरानी जीवनशैली को छोड़ आधुनिकता के साथ कदम से कदम बढ़ाकर जीने लगे। जब जीवन में विकास, धन, नयापन और संपन्नता आती है, तब दबे पांव कई बुराइयां भी चली आती हैं। मनुष्य को इसका आभास ही नहीं होता। तभी पता चलता है जब तीर कमान से छूट जाए।

हिमाचल के जिन भू-भागों में बड़ी तेजी से विकास हुआ, वहां अपराध ने भी तेजी से कदम बढ़ाए हैं। प्रदेश में बाहुबलियों की संख्या में वृद्धि होने लगी। दबंग किस्म की प्रवृत्ति प्रदेश की व्यवस्था को ठेंगा दिखाने लगी। कानून का भय खत्म हो चुका है, पहली मार्च को कसौली में हुई एक महिला अधिकारी की हत्या यही सब उजागर करती है। आरोपी पुलिस बल की आंखों में धूल झोंक कर फरार होने में कामयाब हो जाता है। जल्द ही आरोपी कहां गायब हो गया था, पता ही नहीं चला। पुलिस रात भर आरोपी की तलाश में जुटी रही। आरोपी के पास अनेक कारतूस थे। वे सारे के सारे कारतूस चला देता तो पता नहीं कितने और लोग मौत के घाट उतर जाते। यह सब अनेक प्रश्नों को जन्म देता है। हालांकि यह कुत्सित कार्य करके दोषी ने स्वयं के शेष जीवन को अंधेरे में धकेल दिया, लेकिन खून के धब्बे कई पीढि़यों तक दोषी के परिवार का दामन आसानी से नहीं छोड़ेेंगे। लोकमत है कि समय रहते सरकार अपने कर्त्तव्य का निर्वाह नहीं करती। वर्षों तक विवाद यूं ही लटकते रहते हैं, जो काम कुछ दिनों में होना चाहिए, उसे लटकाकर बहुत लंबा कर दिया जाता है। व्यक्ति अपने काम के लिए दफ्तर के चक्कर लगाता थक जाता है। विशेष कर कंट्री एंड टाउन प्लानिंग दफ्तर को लेकर लोकमत यही है।

निर्माण का नक्शा पास करवाना सभी को टेढ़ी खीर लगता है। लोग यह भूल जाते हैं कि निर्माण के नक्शे को स्वीकृति देने तक अनेक बातों पर ध्यान देना होता है। आगे-पीछे दाएं-बाएं कोई आपत्तिजनक विषय तो नहीं। इस तरह यह कदापि नहीं हो सकता कि निर्माण का नक्शा जमा करवाते ही दूसरे दिन स्वीकृति के साथ मालिक के हाथ में हो। अधिकारी सरकारी नियमों से बंधे होते हैं। इस कारण नक्शे पर कई आपत्तियां लग जाती हैं। उन आपत्तियों को मालिक को हटाना पड़ता है। परोक्ष रूप से ये आपत्तियां मालिक के हक में भी होती हैं। कभी-कभी मालिक निर्माण को लेकर दूरदृष्टि नहीं होता। इसलिए नक्शे पर लगे आब्जेक्शन को लेकर तिलमिला जाता है। कभी-कभी तो वह पूरे दफ्तर के कर्मचारी से लेकर अधिकारी तक को मन ही मन भ्रष्ट समझ बैठता है। अपने साथियों से बात भी करता है, लेकिन तिलमिलाए व्यक्ति को समझा कर शांत करना आसान कार्य नहीं। याद रखना चाहिए कि यदि बिना नक्शा स्वीकृति के निर्माण होने लगे, तो दफ्तर की क्या आवश्यकता रह गई। सभी अपनी इच्छा से अपना निर्माण शुरू कर देंगे। पब्लिक इंट्रस्ट की बातों पर कोई ध्यान नहीं देगा। हर कोई मनमर्जी से अतिक्रमण करने लगे तो क्या यह जन साधारण के लिए घातक नहीं होगा? अतिक्रमण से लोगों को अत्यधिक परेशानियों का सामना करना पड़ता है। अतिक्रमण को लेकर सरकारी दफ्तर भी दोषी है, क्योंकि दफ्तर की कार्रवाई उस समय होती है, जब सिर से बहुत सारा पानी बह चुका होता है। पीला पंजा जब अतिक्रमण को हटाने के लिए चलता है तो अतिक्रमणकारियों को अति वेदना होती है, क्योंकि अतिक्रमण पर खूब पैसा व्यय किया होता है। परिणामस्वरूप छोटी-मोटी झड़प से लेकर गोलियों की दनदनाहट सुनाई दे जाती है, तो क्या कसौली में जो होटल मालिक ने खेल खेला वह अंतिम खेल था?

क्या लोग भी दफ्तर की पूरी प्रक्रिया को समझ पाएंगे? तो क्या अधिकारी भी जिम्मेदारी समझते हुए नक्शों पर अनावश्यक आपत्तियां लगाने से स्वयं को रोकेंगे? यदि उत्तर हां में है, तो यकीनन भविष्य में इसके परिणाम अच्छे होंगे। लोगों की यह सोच गलत है कि जो मन आए कर लेना चाहिए। ऐसा करने से कानून व्यवस्था में बाधा आती है। ये बड़ी बाधाएं अनसुलझी गुत्थी बनकर रह जाती हैं। हिमाचल सचमुच जितना सुंदर है, उतना ही सुंदर यहां की संस्कृति है। हिमाचल की यह साख तभी तक बनी रह सकती है, जब तक इस साख को बचाने का हम प्रयत्न करेंगे।

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