कर्नाटक सरकार तक राजनीति की नैतिकता

By: May 25th, 2018 12:08 am

प्रो. एनके सिंह

लेखक, एयरपोर्ट अथॉरिटी ऑफ इंडिया के पूर्व चेयरमैन हैं

कांग्रेस शासित राज्यों की घटती संख्या के कारण कर्नाटक, कांग्रेस के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन चुका था। सोनिया गांधी ने इस मामले को तुरंत सुलझाते हुए दक्षिण में भाजपा की राह रोक दी जिसका शेष भारत पर भी असर पड़ेगा। यह स्पष्ट था कि कांग्रेस की शक्ति कमजोर होती जा रही थी। वह केवल चार राज्यों तक सीमित रह गई थी तथा नरेंद्र मोदी इस मसले पर कांग्रेस का उपहास कर रहे थे। इससे सोनिया गांधी के मन को बड़ा आघात लगा होगा तथा अब उनके पास इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं बचा था कि वह किसी भी कीमत पर जीत हासिल करें…

सरकार निर्माण की प्रक्रिया सामान्यतः पूरी तरह स्पष्ट तथा दस्तावेज में लिखी गई होनी चाहिए ताकि कोई संदेह न रहे तथा सरकार निर्माण सहज व सुस्पष्ट हो। हमारा लिखित संविधान काफी लंबा है, किंतु यह निर्णायक मसलों पर मजबूत पकड़ नहीं रखता, मिसाल के तौर पर संरचना के मामले में तथा जब किसी भी दल को स्पष्ट बहुमत न हो, तो राज्यपाल को क्या करना है, इस विषय में स्थिति स्पष्ट नहीं है। हमने कर्नाटक में ऐसी ही स्थिति का सामना किया। हालांकि इससे पहले गोवा व कुछ अन्य छोटे राज्यों में भी ऐसी ही स्थिति पैदा हुई थी, किंतु ऐसे मामले गोवा के मामले में मिसाल के लिए अलग थे, जहां दो दिनों तक किसी ने भी सरकार निर्माण के लिए दावा पेश नहीं किया। मैंने कर्नाटक में चुनाव के परिणामों को लेकर एक अनुमान व्यक्त किया था तथा भाजपा को 110 तक सीटें दी थीं। मैंने भविष्यवाणी की थी कि कुछ निर्दलीय विधायकों की मदद से भाजपा सरकार निर्माण के योग्य हो जाएगी, किंतु वास्तव में वहां भाजपा को 104 ही सीटें मिल पाईं। 224 सदस्यीय विधानसभा में बहुमत के लिए उसे आठ और विधायकों की जरूरत थी। वहां पर केवल दो निर्दलीय जीत कर आए तथा इससे समस्या का समाधान नहीं हो पाया। कई सालों के बाद पहली बार कांग्रेस ने अपनी कार्यशैली में चुस्ती दिखाई, अन्यथा हर मामले में उसकी छवि सुस्त कार्यशैली वाली बन गई थी। गोवा के मामले में उसकी इस सुस्ती के कारण ही वह इस राज्य में सत्ता से बाहर हो गई, जबकि दूसरी ओर भाजपा ने तुरंत एक केंद्रीय मंत्री को दिल्ली से गोवा भेजकर उसे मुख्यमंत्री पद की शपथ भी दिला दी और साथ ही बहुमत भी जुटा लिया।

इस पृष्ठभूमि के चलते तथा कांगे्रस शासित राज्यों की घटती संख्या के कारण कर्नाटक, कांग्रेस के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन चुका था। सोनिया गांधी ने इस मामले को तुरंत सुलझाते हुए दक्षिण में भाजपा की राह रोक दी जिसका शेष भारत पर भी असर पड़ेगा। यह स्पष्ट था कि कांग्रेस की शक्ति कमजोर होती जा रही थी। वह केवल चार राज्यों तक सीमित रह गई थी तथा नरेंद्र मोदी इस मसले पर कांग्रेस का उपहास कर रहे थे। इससे सोनिया गांधी के मन को बड़ा आघात लगा होगा तथा अब उनके पास इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं बचा था कि वह किसी भी कीमत पर जीत हासिल करें। एक ओर भाजपा अपनी सरकार बनाने के लिए तैयारी करती रही, दूसरी ओर कांग्रेस ने अपने 78 विधायकों के साथ 38 सीटें जीतने वाले जद (एस) को अपना समर्थन दे दिया जिससे सबसे कम सीटें जीतने वाले दल के लिए सरकार निर्माण का रास्ता साफ हो गया। क्या यह लोकतांत्रिक है कि जिसके पास सबसे कम सीटें हैं, वह मुख्यमंत्री बनकर सरकार चलाएगा तथा अन्यों को शासित करेगा? क्या यह नैतिक था कि धन अथवा मंत्री पद या मुख्यमंत्री पद पेश करके समर्थन हासिल किया जाए। किंतु कांग्रेस के लिए यह अस्तित्व का प्रश्न था तथा उसने सत्ता प्राप्त करने के लिए नैतिक अथवा अनैतिक लड़ाई लड़ी। इस दौरान एक जाली आडियो टेप भी सामने आया जिसमें भाजपा को समर्थन हासिल करने के लिए कांग्रेसियों को रिश्वत की पेशकश करते दिखाया गया था।

हालांकि बाद में कांग्रेस के ही एक विधायक ने इस तरह की किसी पेशकश से साफ इनकार करते हुए इस टेप के जारी होने पर ही प्रश्नचिन्ह लगा दिया। क्या यह नैतिक था अथवा अनैतिक? भाजपा की जनादेश थ्यूरी पर भी प्रश्नचिन्ह है क्योंकि यह सत्य है कि लोगों ने कांग्रेस तथा जद (एस) के गठजोड़ को वोट नहीं दिए। जो भी वोट पड़े, वे सभी को अलग-अलग पड़े। अगर यह गठजोड़ चुनाव से पहले बना होता तो लोगों को पता होता कि वे किसे वोट दे रहे हैं। ऐसी स्थिति में यह गठजोड़ सरकार निर्माण के लिए भी ज्यादा प्रासंगिक व नैतिक होता। यहां तक बताया जा रहा है कि जस्टिस सीकरी ने इस मामले पर सुनवाई के दौरान यह प्रश्न उठाया था तथा वहां इस मसले पर विचार हुआ कि क्रम में पहला अधिकार सबसे बड़े दल का, दूसरा अधिकार चुनाव पूर्व गठबंधन का तथा तीसरा अधिकार चुनाव बाद के गठबंधन का होना चाहिए। जैसा कि दावा किया जा रहा है, यह लोकतंत्र का पराग नहीं हो सकता, किंतु यह संविधान के अधीन संभावित निर्माण प्रक्रिया है। भाजपा जनादेश का दावा नहीं कर सकती है, क्योंकि अगर जनता की ऐसी इच्छा होती तो उसने जरूर इस पार्टी को बहुमत दिया होता। अब यह स्पष्ट हो चुका है कि सरकार निर्माण के लिए समर्थन लेने के मामले में सभी दलों की नैतिकता पर सवाल किए जा सकते हैं। सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल द्वारा येदियुरप्पा को बहुमत साबित करने के लिए दिए गए 15 दिनों के समय को घटाकर केवल 28 घंटे क्यों कर दिया? सामान्यतः बहुमत साबित करने को 10 दिन दिए जाते हैं। भाजपा इस मामले में कोर्ट को अपने तर्कों से संतुष्ट नहीं कर पाई, हालांकि पूर्व में एक ऐसा भी मामला है जब हरियाणा में भजन लाल को बहुमत साबित करने के लिए 30 दिनों का समय दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कारण भाजपा के लिए सत्ता की दौड़ की यह प्रतियोगिता यहीं खत्म हो गई और इतने कम समय में वह बहुमत जुटाने में समर्थ नहीं हो पाई। एक अन्य मोर्चे पर कांग्रेस जीत गई जहां वह अपने विधायकों की किलेबंदी में सफल रही, उसने अपने विधायकों को बंदी बनाकर रखा, उनकी संचार सुविधाएं प्रतिबंधित कर दीं तथा वे पंच सितारा कैदी बनकर रह गए। क्या यह नैतिक है, क्या यह लोकतांत्रिक है कि विधायकों को बंदी बना कर रखा जाए तथा उन्हें पार्टी विशेष के पक्ष में मतदान के लिए बाध्य किया जाए।

सरकार निर्माण की इस प्रक्रिया में भाजपा ने दो चीजें खो दीं। एक, वह अपनी ख्याति को कायम नहीं रख पाई। दूसरे, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रही तथा परिवर्तन में जुटी पार्टी के रूप में उसके नंबर कम हो गए। यह पहली बार हुआ कि बहुमत न मिलने के बावजूद कांग्रेस, भाजपा पर अपनी रणनीतिक व संख्यात्मक बढ़त हासिल करने में सफल रही। हालांकि भ्रष्टाचार व घोटालों के कारण कांग्रेस का चेहरा पहले ही नैतिकता के मामले में धूमिल है। कांग्रेस अब जीत का दावा कर सकती है, परंतु यह अब एक छोटी पार्टी की गोद में चली गई है। इसमें कोई संदेह नहीं कि यह कांग्रेस के लिए एक उपलब्धि है कि वह भाजपा का विजय रथ दक्षिण व शेष भारत में रोकने में सफल रही है। हालांकि नैतिकता के मोर्चे पर किसी की भी कोई उपलब्धि नहीं कही जा सकती।

ई-मेल : singhnk7@gmail.com

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