कविता अपने भीतर के मनुष्य की शिनाख्त है
हिमाचल का लेखक जगत अपने साहित्यिक परिवेश में जो जोड़ चुका है, उससे आगे निकलती जुस्तजू को समझने की कोशिश। समाज को बुनती इच्छाएं और टूटती सीमाओं के बंधन से मुक्त होती अभिव्यक्ति को समझने की कोशिश। जब शब्द दरगाह के मानिंद नजर आते हैं, तो किताब के दर्पण में लेखक से रू-ब-रू होने की इबादत की तरह, इस सीरीज को स्वीकार करें। इस क्रम में जब हमने आत्मा रंजन के कविता संग्रह ‘पगडंडियां गवाह हैं’ की पड़ताल की तो साहित्य के कई पहलू सामने आए…
दिहि : क्या लगता है कि समाज के जिस कोने से कविता का जन्म होता है, उसकी मूल जरूरत से अलग मानव इतिहास रचा जा रहा है?
आत्मा रंजन : बेहतर दुनिया या समाज को रचने की गहन आकांक्षा कविता की जरूरत में समाहित है। न्याय और समतामूलक समाज, जनपक्षधर सामाजिक व्यवस्था, मानव और मानवीय गरिमा कविता के अभीष्ट में शामिल रहे हैं। किंतु यह सही है कि आज की तमाम व्यवस्थाएं इन तमाम मूल्यों के विपरीत लूट-खसूट के मूल्यों की न सिर्फ छूट दे रही हैं, बल्कि उसे कहीं न कहीं प्रश्रय या प्रोत्साहन भी दे रही हैं। मनुष्य अपने या अपनों के लिए दूसरों के हक-हकूक मार कर लूटने-जुटाने में लगा है, निश्चय ही यह कविता की आकांक्षा के विपरीत कविता की जरूरत को अनदेखा कर वर्चस्व और पूंजी केंद्रित इतिहास रचने जैसी दुखद कवायद ही है।
दिहि : समाज की प्राथमिकताओं से साहित्य के रुखसत होने की वजह आप कैसे देखते हैं, संवेदना से बड़ा ज्ञान हो गया है और जहां सूचना प्रौद्योगिकी का विस्तार निरूपित होता है?
आत्मा रंजन : समाज की प्राथमिकताओं से साहित्य के रुखसत होने की वजह सिर्फ सूचना प्रौद्योगिकी का विस्तार भर नहीं है। स्वार्थ आधारित चालाक मानसिकता के लिए संवेदना या संवेदनशीलता सूट नहीं करती या मुआफिक नहीं। बाजार और बाजारवादी व्यवस्था चाहती है कि हम कुछ खरीदें, कुछ बेचें, बस सोचें न, सर्वजन हिताय की जगह स्व या स्वजन हिताय की बेईमान सोच हमें संवेदना और विचार यानी साहित्य से बचना सिखाती है। उसे गैर जरूरी साबित करते हुए समाज से रुखसत करती है।
दिहि : आपके लिए कविता क्या है, क्या भाषा का कोई सांचा, विचारों का तिलिस्म या खुद की जांच में कोई नजराना या पैमाना?
आत्मा रंजन : कविता मेरे लिए न भाषा का ढांचा भर है, न विचारों का तिलिस्म ही। कविता मेरे लिए अपने भीतर के मनुष्य की शिनाख्त है। हम देखते हैं कि अक्सर हम फरिश्ता होना चाहते हैं, देवता होना चाहते हैं, मनुष्य होने से ऊपर और व्यावहारिक जीवन में अक्सर मनुष्य से नीचे का व्यवहार करते पाए जाते हैं। कहीं पशु कहीं शैतान की तरह व्यवहार करते हुए, मानवीय गरिमा के साथ मनुष्य होने की इच्छा आकांक्षा प्रायः कम देखी जाती है, जबकि वह बहुत बड़ी बात है। मैं कविता के सामने ठीक-ठाक मनुष्य होना चाहता हूं, सही के प्रति आशा और आह्लाद से भरा और गलत के प्रति जरूरी क्रोध से भरा, कविता मेरे लिए सही या सत्य के पक्ष में खड़ा होने का नैतिक साहस भी है।
दिहि : साहित्य की तरफ रुझान किसे पढ़ कर हुआ, आज भी आपके अध्ययन में साहित्य का कितना स्थान है, किसे पढ़ना प्रेरित करता है?
आत्मा रंजन : किसी एक को पढ़कर नहीं, किशोरावस्था तक पहुंचते-पहुंचते अनेक अच्छे और प्रिय कवियों ने मुझे अपने मोहपाश में बांधना शुरू किया और मैं बंधता चला गया। हिंदी के भी और विदेशी भाषाओं के भी, यह सिलसिला अनवरत जारी रहा। पढ़ता खूब हूं, आज भी। अपने आस-पास के कवि मित्रों से लेकर हिंदी और विदेशी कवियों तक को। अनेक पत्रिकाएं मेरे पास आती हैं और कविता ही नहीं, कथा और कथेतर गद्य भी खूब रुचि से पढ़ता हूं, अच्छी रचना किसी की भी हो, हमेशा प्रेरित
करती है।
दिहि : आप के अनुभव की सीमा से आगे कविता यदि मात्र कल्पना है तो भी इसके दायरे में रहते हुए विषयों का चयन व्याख्या की प्रस्तुति या पुनःप्रस्तुति के साथ आपकी अभिव्यक्ति के क्या मायने हैं?
आत्मा रंजन : कविता प्रमुखतः हमारे अनुभव के दायरे से ही निकलती है। स्मृति, अनुभव और स्वप्न तक के वितान से। हमारी स्मृतियों से लेकर स्वप्न या कल्पना तक में हमारी निजता समाहित रहती है। यह निजता ही हमारी प्राथमिकता तय करती है। कोई भी विषय चाहे वह हमारे अनुभव जगत से आगे कल्पना के दायरे का ही क्यों न हो, कवि की निजता उसके चयन की प्राथमिकताओं में प्रभावी होती है और प्रस्तुति में भी।
दिहि : आपके अनुसार कवि हृदय वक्त के वर्तमान की पाबंदियों से कितना आगे और कितना पीछे चल सकता है और जहां समय शून्य हो जाता है या होने पर शक होता है?
आत्मा रंजन : कवि को ब्रह्मा की भूमिका में माना जाता रहा है। तथाकथित ब्रह्मा द्वारा बनाई गई सृष्टि की विसंगत स्थितियों से असंतुष्ट हो कर एक बेहतर सृष्टि की रचना कविता का अभीष्ट रहा है। स्वाभाविक है-कल्पना का बहुत महत्त्व है और विशेष तौर पर इसी दिशा में, लेकिन यह कल्पना यथार्थ और विश्वसनीयता के पैरों पर खड़ी रहती है। कविता यथार्थ को सत्य में निरूपित करने का उपक्रम भी करती है। देश काल की जमीन पर दृढ़ता से खड़ी होकर भी उसे कालव्यापी और देशव्यापी बनाती हुई।
दिहि : परिस्थितियों से अलहदा भी कोई कल्पना है या यह मात्र अपने संवेग का विस्तार है। आप लिखते समय कितना अकेला महसूस करते हैं या जब लिखते हैं तो सामाजिक बीहड़ों के शोर से अलग होना कठिन है?
आत्मा रंजन : जैसा कि मैंने कहा, देशकाल और अनुभव की जमीन पर दृढ़ता से खड़े होकर ही स्मृति और कल्पना के इलाके में हम प्रवेश करते हैं। कविता के लिए निजबधता या इनवोल्वमेंट और निसंगता दोनों ही जरूरी हैं। इन दोनों को ही साधना होता है, जैसे निशाना साधता है। बीहड़ और त्रासद अनुभवों की पीड़ा को धारण करते हुए भी एक जरूरी निसंगता जैसे न्यायिक प्रक्रिया में अपेक्षित रहती है।
दिहि : कविता आपके जीवन के पलों की साक्षी है या उन कदमों की आहट है, जो अभी चले नहीं। समय के रिश्ते में रचनाधर्मिता को आप कैसे देखते हैं?
आत्मा रंजन : दोनों ही, जीवन के पल यानी हमारा अनुभूत ही हमारे जीवन दर्शन को निर्मित करता है। चीजों को देखने-समझने की समझ हमें देता है। वहीं से हम उसे भी देखते हैं या देखने की चेष्टा करते हैं जो हमारे अनुभूत से परे है या अभी घटित होना है, अनुभूत से अर्जित संतुलित दृष्टि से।
दिहि : साहित्य हाशिए पर चला गया है, कितना सहमत हैं। कहीं तो साहित्यकारों के व्यक्तित्व का पतन हो रहा है और यह इसलिए भी क्योंकि उसकी निर्भरता और आत्मसंतुष्टि के लिए सत्ता के प्रतिष्ठान या आजीविका के समाधान हो चुके हैं?
आत्मा रंजन : साहित्य हालांकि समाज के केंद्र में कभी नहीं रहा है, हां आज स्थितियां कुछ ज्यादा बदतर जरूर नजर आती हैं। बाजार और राजनीति उसे बेतरह बेदखल करते जान पड़ रहे हैं। कारण फिर वही, विचार या सृजन उसे सूट नहीं करता, उसकी अराजक आकांक्षाओं में बाधक बनता है। तो भी साहित्य केंद्र में न रहकर भी एक जरूरत की तरह मनुष्य और मनुष्यता के साथ रहा है और रहेगा भी, साहित्यकार आजीविका के लिए भले सत्ता प्रतिष्ठानों से जुड़ा हो, वह सत्ता की पक्षधरता का संवाहक कभी नहीं होता। जनपक्षधरता ही साहित्य का सही अभीष्ट है।
दिहि : सामाजिक, आर्थिक या सांसारिक अंतर्विरोधों में तालमेल बैठाते लेखक की कंगाली लगभग वैसी ही हो चली है, जिस तरह मीडिया भी एक दुकान बन चुका है। बस बिकवाली का इंतजार है?
आत्मा रंजन : यदि यह कहूं कि आप गलत कह रहे हैं तो यह झूठ है। अंतर्विरोध सामाजिक, आर्थिक, सांसारिक ही नहीं, कवि के अपने भी हैं, चुनौती की तरह मौजूद। मैं कई दफा कहता हूं आज पठनीयता के संकट से भी बड़ा विश्वसनीयता का संकट है। हम अपने लिखे पर व्यवहार में भी टिकें, व्यवहार में उसे ध्वस्त न करें। जब एक आदर्शवादी लेखक विचार के साथ-साथ व्यवहार में भी ऐसा ही होगा, तो समाज में सकारात्मक बदलाव आएगा।
दिहि : आपकी कविताओं के मूल प्रश्नों में अगर आपको या आपके परिवेश को ढूंढना हो तो माल रोड के परिदृश्य में आपकी अपनी उलझनें व सवाल हैं क्या?
आत्मा रंजन : कवि का निजत्व उसकी हर एक रचना में रहता ही है। यकीनन मेरी उलझनें मेरे सवाल वहां हैं ही। हां, मेरे भीतरी और बाहरी परिवेश को भी आप हर रचना में ढूंढ सकते हैं। बाहरी परिवेश माल रोड कविता में ही नहीं, ठेठ ग्रामीण श्रम गीत के बिसरते जाने पर आधारित कविता ‘बोलो जुल्फिया रे’ म ं
भी है।
दिहि : क्या आपके लिए सृजन मात्र आनंद है या एक निर्लिप्त मंच, जहां खुद को कहने, पुकारने या साझा करने का जरिया मिल चुका है?
आत्मा रंजन : मेरे लिए कविता न मात्र आनंद है, न मंच भर। अभिव्यक्ति की एक गहरी जरूरत है। अपने भीतर के मनुष्य से और उसके जरिए दुनिया जहान से संवाद और सवाल करने का जरिया और जरूरत। कहने-साझा करने की गहरी जरूरत और सच कह पाने के नैतिक साहस की चुनौती भी।
दिहि : आप लिखते हैं ‘क्या अर्थ रखता है दोस्त कुत्तों के समूह में, एक कुत्तिया का मां हो जाना।’ जरा अपने अर्थ में इस रचना का छोर तो बताएं?
आत्मा रंजन : कविता का छोर पाठक के पास है, आपके पास है, सूत्र कविता में मौजूद, प्रवेश भर करने की कवायद, फिर आप मनुष्य होने की तमीज की शिनाख्त भी ढूंढ सकते हैं। हमारी स्त्री विषयक लोलुप दृष्टि या आज के नित्य प्रति के जघन्य यौन अपराधों का प्रतिकार या प्रतिरोध भी।
-प्रतिमा चौहान
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