कांग्रेस भी पन्ना प्रमुख ढूंढे

By: May 22nd, 2018 12:05 am

हिमाचल कांग्रेस ने सत्ता गंवा कर क्या सीखा, इसकी समीक्षा सहप्रभारी रंजीत रंजन के दौरों से सामने आएगी, फिर भी प्रश्न यह कि भाजपा की जड़ों को समझना पार्टी की सबसे बड़ी चुनौती है। मुकाबला पन्ना प्रमुख तक है, तो कांगे्रस शैली की गंभीर कमजोरियां निचले स्तर तक दुरुस्त करनी होंगी। हमीरपुर बैठक में जो प्रयास हुआ, उसकी कहानी बेजुबान नहीं और जिस तरह कार्यकर्ताओं का गुस्सा फूटा, उसे खारिज नहीं किया जा सकता। गहन विचार तो इस तथ्य को लेकर होना चाहिए कि आगामी लोकसभा चुनाव के लिए कांगे्रस का देश के सामने एजेंडा क्या होगा। जहां तक हिमाचल का ताल्लुक है परिस्थितियां स्थानीय सुशासन से प्रादेशिक अधिकारों तक विश्लेषण करेंगी और इस लिहाज से प्रदेशाध्यक्ष सुखविंदर सुक्खू ने समय और सरकार का मूल्यांकन करने की जो बिसात बिछाई है, उसे कमतर नहीं आंका जा सकता। विडंबना यह रही कि अपनी सरकार के दौरान वह पार्टी को एकमत नहीं कर पाए और युद्ध वीरभद्र सिंह के खिलाफ बगावत जैसा रहा। मंत्रियों के बीच टकराव और सरकार का ही सत्ता में बने रहना भी पार्टीजनों के लिए दूरियां बढ़ाता रहा। बेशक इस समय विपक्ष में बैठकर सत्ता को कोसने की निपुणता बढ़ गई और हारे हुए मंत्री भी पार्टी सरीखे हो गए, लेकिन मानना पड़ेगा कि तब सरकार समतल व संतुलित नहीं रही। हमीरपुर बैठक में रंजीत रंजन ने अगर नेताओं के बजाय कार्यकर्ताओं को सुना, तो इस हकीकत के अक्स में छिपे इल्जाम कांगे्रस को सचेत करते हैं। कमोबेश बदलती सत्ता के दूसरी तरफ भी आलम बदल रहा है और भाजपा सरकार ने भी मनमुटाव के किस्से जोड़ लिए हैं। कांगड़ा एयरपोर्ट पर सरेआम किशन कपूर बनाम सरवीण चौधरी या जाहू एयरपोर्ट की संभावना पर सरकार के खिलाफ खफा इंद्र सिंह के तेवर बहुत कुछ कहते हैं। धूमल समर्थकों से असंतुलित सत्ता के पांव देखे जा सकते हैं। अगर धर्मशाला स्मार्ट सिटी परियोजना की शिमला बैठक में विधायक व मंत्री किशन कपूर गैरहाजिर हैं, तो चेहरों की लड़ाई उस पार भी है। क्या हिमाचल में सत्ता का अपना राजनीतिक तुष्टिकरण है, जो मंत्री पदों से बजट के आबंटन तक दिखाई देता है। इस मामले में सभी सत्तारूढ़ दल एक समान हैं, तो मुकाबला केवल आक्रोश का है या जिसे कांगड़ा आकर रंजन ने चिन्हित किया। क्या धवाला व राकेश पठानिया का नाखुश होना कांगे्रस की खुशी है या हमीरपुर के अध्यायों से भाजपा मुख्यमंत्री की संभावना का गुम होना, कांग्रेस के काम आएगा। ऐसे में क्या यह संभव है कि धूमल पुत्र अनुराग ठाकुर के खिलाफ कांग्रेस अपना सही मोहरा चुन पाएगी या मतदाता की संवेदना पूर्व मुख्यमंत्री के पक्ष में अक्षुण्ण बनी रहेगी। यह दीगर है कि कांगड़ा में कांगे्रस की पतलून में कई नेता उम्मीदवारी के सशक्त प्रहरी हैं, तो क्या सामने सेवानिवृत्त हो चुके शांता कुमार नकार दिए जाएंगे या उनका उत्तराधिकार इतना कमजोर होगा कि पासा पलट जाएगा। कांगे्रस की ओर से कांगड़ा में दो हारे हुए मंत्री व एक जातिगत आधार के दिग्गज नेता विद्यमान हैं, तो भाजपा के लिए भी नए प्रत्याशी को आपसी सहमति से खोज पाना आसान नहीं। कांगे्रस न केवल लोकसभा चुनाव की तैयारी कर रही है, बल्कि आगामी विधानसभा चुनाव तक नेताओं के बीच वीरभद्र सिंह का विकल्प भी देखेगी। कांगे्रस को लोकसभा चुनाव की पिछली शून्यता मिटाने के लिए अगर दृढ़ प्रतिज्ञ होना है, तो राजिंद्र राणा सरीखे नेताओं से जनसंपर्क की बुनियादी आवश्यकताओं को समझना होगा, वरना भाजपा के पन्ना प्रमुख सीधे मोदी-शाह के लिए शीर्षासन कर रहे हैं। पन्ना प्रमुख होने का मतलब जमीनी आधार का व्यापक स्वरूप है, जिसे कांग्रेस व इसके नेता नजरअंदाज करते रहे हैं। राज्यसभा में कांगे्रस की तरफ से गूंजते रहे नेताओं में आनंद शर्मा या विप्लव ठाकुर ने वीरभद्र सिंह के खिलाफ जो जमात बनाई, क्या ऐसी बिसात पर भविष्य देखा जाएगा। जिस तरह नेताओं ने एक-दूसरे को मात देते हुए कांग्रेस को धूल चटाई, क्या उससे ताकत आएगी।

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