कितने महीने का गठबंधन

By: May 25th, 2018 12:05 am

आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी से पूछा कि कर्नाटक में इस शपथ ग्रहण समारोह का संदेश क्या है? इस सवाल पर येचुरी ने खुशी जताई कि विपक्ष ने हार कर भी सरकार बनाई है। एक बार फिर भाजपा की रणनीति को नाकाम करने में हम सफल रहे हैं। गोवा, मणिपुर, मेघालय में भाजपा ने जो रणनीति खेली थी, कर्नाटक में उसी में वह नाकाम रही है। इसी के साथ येचुरी ने शंका भी जताई कि भाजपा 3 महीने में ही सरकार गिरा सकती है। इस संदर्भ में उन्होंने कर्नाटक भाजपा के दिग्गज नेता एवं केंद्रीय मंत्री सदानंद गौड़ा का नाम भी लिया। येचुरी, नायडू और डी. राजा का यह संवाद कोरी कल्पना नहीं है, बल्कि एक वीडियो का सच है। हालांकि हम उस वीडियो की पुष्टि नहीं कर सकते, लेकिन खुद मुख्यमंत्री कुमारस्वामी बोले-‘यह सरकार चलेगी, इस पर मुझे तो क्या, राज्य के लोगों को भी भरोसा नहीं है।’ इस बयान के बाद येचुरी की आशंका पर सवाल नहीं किए जा सकते। बेशक कर्नाटक मुख्यमंत्री के शपथ ग्रहण समारोह में देश के 11 दलों के नेता आए। उनमें एक पूर्व प्रधानमंत्री, 5 मुख्यमंत्री, 5 पूर्व मुख्यमंत्री और 4 सांसद दिखाई दिए। उनमें कुछ चेहरे ऐसे थे, जो ‘स्वयंभू प्रधानमंत्री’ के तौर पर आंके जाते हैं। बहरहाल विपक्ष के नेताओं की बाहें हवा में उठीं, हाथ मिले, अलबत्ता सोनिया गांधी और शरद पवार की बाहें दूर-दूर ही रहीं। मायावती और अखिलेश यादव के हाथ नहीं मिले। तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव और ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक गैरहाजिर रहे। वे गैरकांग्रेस और गैरभाजपा की राजनीति में विश्वास रखते हैं। उनके लिए दोनों ही राष्ट्रीय दल एक जैसे हैं। चंद्रशेखर राव का फोकस क्षेत्रीय दलों के ‘संघीय मोर्चे’ पर है। आजकल कांग्रेस शिवसेना का बहुत नाम ले रही है, लेकिन उसका भी कोई नेता नहीं पहुंचा। ये विपक्षी एकता की बुनियादी दरारें हैं, जो न तो कभी भर पाईं और न ही संभव है। ये विपक्षी दल बेशक साल भर तक अलग रहें, लेकिन इतिहास गवाह है कि वे छह महीने से ज्यादा एक साथ नहीं रह सकते। विपक्ष के ऐसे यथार्थ पर उछल-कूद कैसी है, देश ही उसकी व्याख्या कर सकता है।  बहरहाल पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री एवं तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी ने भी बयान दिया है-‘हम कर्नाटक में कुमारस्वामी को समर्थन देने आए हैं। हम सभी क्षेत्रीय दल हैं। कांग्रेस अलग पार्टी है। वह अपना काम करती रहेगी।’ ममता ने यह भी दावा किया-जो हमसे टकराएगा, चूर-चूर हो जाएगा। बेशक विपक्षी नेताओं ने एकता की खातिर हवा में हाथ मिलाए हों, लेकिन एकता या महागठबंधन के लिए इतना ही पर्याप्त नहीं है। इतिहास और अतीत में कई बार हवा में बाहें उठी हैं, मुट्ठियां तनी हैं, हाथ भी मिले हैं और नारे भी गूंजे हैं, लेकिन विपक्षी एकता का हश्र क्या होता रहा है, उसका देश गवाह है। हम बीते कल के संपादकीय में भी उसका विश्लेषण कर चुके हैं। चूंकि शपथ समारोह में जमा हुए नेताओं का एक ही राजनीतिक, चुनावी मकसद था कि प्रधानमंत्री मोदी को सत्ता के बाहर कैसे करना है। यह मकसद भी सवालिया और विरोधाभासी है। येचुरी ने जो आशंका जताई है, वह निराधार नहीं है। कर्नाटक भाजपा की राजनीतिक उम्मीदों का एक आधार है, लिहाजा वह कांग्रेस-जद (एस) का ‘अनैतिक गठबंधन’ किसी भी सूरत में 2019 तक नहीं चलने देगी। निशाना जद-एस को बनाया जा सकता है, क्योंकि उसके 38 विधायक ही हैं। उनमें कई विधायक ऐसे हैं, जिन पर लिंगायत समुदाय का दबाव बन सकता है। वे अपनी विधायिका का जोखिम उठाकर सत्तारूढ़ पक्ष से अलग हो सकते हैं। अब कर्नाटक में यह प्रक्रिया कैसे होती है, यह तब तक एक सवाल है जब तक यथार्थ सामने नहीं आता। प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ जिस विपक्षी एकता की नुमाइश की गई है, वह भी घोर सवालिया है। क्या आंध्रप्रदेश में कांग्रेस और टीडीपी या कांग्रेस और वाईएसआर-कांग्रेस में गठबंधन होगा? क्या बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल और प्रमुख विपक्षी वाममोर्चा तथा कांग्रेस सभी एक साथ मिलकर लोकसभा चुनाव लड़ सकते हैं? क्या ओडिशा में बीजद और कांग्रेस में गठजोड़ संभव है, जबकि बीजद बुनियादी तौर पर कांग्रेस-विरोधी दल है? इसी तरह हरियाणा में कांग्रेस और उसका धुर विरोधी इनेलो में कुछ भी हो सकता है, लेकिन गठबंधन नहीं हो सकता। इनेलो ताऊ देवीलाल की विरासत है, चौटाला परिवार उसे यूं ही कलंकित नहीं होने दे सकता। महाराष्ट्र में कांग्रेस और एनसीपी में गठबंधन तो स्वाभाविक है, क्योंकि वह पहले भी रहा है, लेकिन भाजपा से अलग होने के बाद शिवसेना क्या इनके गठबंधन में शामिल हो सकती है? कुछ विरोधाभास ये हैं कि ममता राहुल गांधी को नेता मानने को तैयार नहीं हैं। मायावती उपचुनाव में सपा का साथ दे सकती है, क्योंकि सैद्धांतिक तौर पर बसपा उपचुनाव नहीं लड़ती, लेकिन क्या वह अखिलेश यादव को अपने से बड़ा नेता मान लेंगी? सवाल यह भी है कि मायावती, अखिलेश यादव और राहुल गांधी एकसाथ या अलग-अलग कैराना चुनाव में क्यों नहीं गए? प्रधानमंत्री मोदी तो प्रचार-रैली करने बागपत जा रहे हैं। सिर्फ नेताओं के जमावड़े से एकता की व्याख्या नहीं होती। अजीत सिंह को खुद नहीं पता होता कि वह किस गठबंधन या पार्टी के साथ कब तक रहेंगे। बहरहाल अभी तो शुरुआत है। इस बार आम चुनाव दिलचस्प होगा और राजनीतिक टूट-फूट भी खूब होगी।

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