किसानों व कृषि को बचाने की जरूरत

By: May 30th, 2018 12:05 am

संजय ठाकुर

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं

यह एक विडंबना ही है कि जिसके इर्द-गिर्द देश की लगभग पूरी अर्थव्यवस्था घूमती है, उसी कृषि पर कुल बजट का सिर्फ 3.7 प्रतिशत धन ही खर्च किया जा रहा है। कृषि की इससे अच्छी स्थिति तो तब थी, जब भारत देश आजाद हुआ ही था। उस समय कृषि पर कुल बजट का 12.5 प्रतिशत धन खर्च किया जाता था…

देश में पिछले कुछ वर्ष कृषि व किसानों के लिए घोर संकट के रहे हैं। कृषि व किसानों पर छाए इस संकट का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले कुछ ही वर्षों में देश में तीन लाख से भी ज्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं। किसानों की बदहाली के मुख्य कारण हैं-सरकारी उपेक्षा और कृषि व किसान विरोधी सरकारी नीतियां। सरकार न तो कृषि क्षेत्र को इस स्तर का बना पाई कि कृषि पर लागत को कम किया जा सके और न ही कृषि उत्पादों को बाजार तक पहुंचाने की व्यवस्था की ओर सरकारी तंत्र का ध्यान गया है। इसका नतीजा यह निकला कि जहां कृषि पर लागत बढ़ने से कृषि क्षेत्र घाटे का सौदा हो गया है, वहीं कृषि उत्पादों को बाजार तक पहुंचाने की व्यवस्था न होने से बिक्री का सारा लाभ बिचौलियों के हवाले कर दिया गया है। यह एक विडंबना ही है कि जिसके इर्द-गिर्द देश की लगभग पूरी अर्थव्यवस्था घूमती है, उसी कृषि पर कुल बजट का सिर्फ 3.7 प्रतिशत ही धन खर्च किया जा रहा है।

कृषि की इससे अच्छी स्थिति तो तब थी, जब भारत देश आजाद हुआ ही था। उस समय कृषि पर कुल बजट का 12.5 प्रतिशत धन खर्च किया जाता था। तब से अब तक तो स्थितियां बहुत बदल गई हैं जिनके चलते कृषि पर बजट इससे भी कहीं ज्यादा होना चाहिए था, लेकिन हुआ इसके बिलकुल उलट। इससे हुआ यह कि कृषि लगभग पूरी तरह से उपेक्षा की शिकार हो गई, जिस कारण वर्तमान परिप्रेक्ष्य में लगातार उभरती चुनौतियों का सामना कर पाना तो दूर, किसानों के लिए अस्तित्व की लड़ाई तक लड़ना मुश्किल हो गया। यही कारण है कि बड़े आर्थिक अभाव से जूझते-जूझते किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं। अब इससे ज्यादा चिंताजनक बात क्या होगी कि पूरे देश का पेट भरने वाले किसानों के पेट खाली ही नहीं, बल्कि दुर्व्यवस्था ने उन्हें यहां तक पहुंचा दिया है कि उन्हें अपनी जीवन-लीला समाप्त कर देना ही एकमात्र विकल्प नजर आता है। किसानों द्वारा आत्महत्या का सबसे बड़ा कारण है-उनकी दयनीय आर्थिक स्थिति। इस तरह से एक बार लिए गए कर्ज का जाल कभी नहीं टूटता और कर्ज के बोझ से दबे किसान को आत्महत्या ही बेहतर रास्ता नजर आता है। एक बहुत बड़ी संख्या उन किसानों की भी है जो इस दंश के पाश में कुछ इस तरह से फंसते हैं कि अपनी जमीन-जायदाद बेचकर शहरों की तरफ पलायन कर जाती है। अभी पिछले कुछ ही वर्षों का जायजा लें, तो तीन करोड़ से भी कहीं ज्यादा किसानों के पलायन का दर्द साफ नजर आएगा। इसे कृषि व किसानों की दुर्दशा नहीं तो और क्या कहेंगे? कृषि व किसानों की इस दशा के लिए सरकार पूरी तरह से जिम्मेदार है। सरकार द्वारा बार-बार आर्थिक विकास के लिए बात की जाती है। ऐसे विकास का क्या महत्त्व है जिसका लाभ देश की आम जनता तक न पहुंचाया जा सके। ऐसा विकास आंखों में धूल झोंकने जैसा ही है कि एक तरफ जहां अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विकसित देशों की कतार में खड़ा होने की डींगें भरी जा रही हैं, वहीं दूसरी तरफ देश की लगभग 90 प्रतिशत जनता देश के इस तथाकथित विकास का हिस्सा ही नहीं है। यह बात तब और भी तकलीफ देने वाली हो जाती है जब इतनी बड़ी जनसंख्या में लगभग 60 प्रतिशत ऐसी जनसंख्या हो जो पूरी तरह से कृषि पर निर्भर है। अब यह बात हास्यास्पद नहीं तो और क्या है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक विकास दर के आधार पर प्रतियोगिता की जा रही है और देश की एक बहुत बड़ी जनसंख्या के पास दो वक्त की रोटी नहीं है। महज पांच-दस प्रतिशत लोगों के आर्थिक विकास को देश का विकास नहीं कहा जा सकता है। सरकारी आंकड़ों की ही बात करें, तो वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश की 58.2 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर है। हालांकि यह स्थिति कृषि के महत्त्व को ही प्रतिपादित करती है, लेकिन जब यह पता चलता है कि इतनी बड़ी संख्या का देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में योगदान 14.1 प्रतिशत ही है तो चिंता होती है। कारण स्पष्ट है कि कृषि क्षेत्र पर इतनी बड़ी जनसंख्या की निर्भरता के बावजूद यह क्षेत्र इतना उपेक्षित है कि किसानों के पास कृषि से पर्याप्त आय अर्जित करने जैसी स्थितियां ही नहीं हैं। यह आय इतनी कम है कि रोजमर्रा की जरूरतें पूरी करना तो दूर, किसानों के लिए दो पहर की रोटी तक जुटाना मुश्किल है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश के ज्यादातर किसान किस स्थिति में हैं।

जहां तक किसानों के लिए सरकारी नीतियों व योजनाओं का सवाल है, तो सरकार ने किसानों के लिए ऐसी कई नीतियां व योजनाएं चला रखी हैं जिनसे किसानों को सुरक्षा प्रदान कर उनके विकास का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है, लेकिन क्रियान्वयन के स्तर पर सब धरे का धरा ही रह जाता है। कृषि से जुड़ी ऐसी बहुत सी समस्याएं हैं, जिनके लिए सरकार पूरी तरह से जवाबदेह है, लेकिन यहां किसी सरकार को देखने-सुनने का समय नहीं है। कृषि के लिए मजदूरों की अनुपलब्धताएं, कृषि उत्पादों की सही पैकिंग और विपणन की सही व्यवस्था जैसी कई समस्याएं हैं, जिनके समाधान की किसान सिर्फ आस में ही रह जाते हैं। यह है सरकार का कृषि के प्रति नजरिया या ऐसा कहें कि सरकारी उपेक्षा से कृषि पर ग्रहण लगता जा रहा है। सरकारी स्तर पर तो कृषि व किसानों के लिए कुछ किया नहीं जा रहा है और राजनीतिक लोगों के लिए राजनीति पहले है। वे पांच साल के ठाठ और फिर उस ठाठ को अगले पांच साल की अवधि के लिए हासिल करने के जुगाड़ तक ही सीमित हो गए हैं। ऐसे में किसान सरकारी उपेक्षा की शिकार कृषि का बुरा हश्र देखने के लिए मजबूर है।

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