कृष्ण का अर्जुन को संदेश

By: May 12th, 2018 12:05 am

महेश योगी

यह अर्जुन के अपरिहार्य गुण का प्रतीक है। गुणाकेश का अर्थ है निद्रा का राजा। वह जिसका निद्रा पर बुद्धि पर जड़ता पर आधिपत्य है। इस शब्द से अर्जुन के बुद्धि की एकाग्राता व्यक्त होती है। कभी विफल न होने वाले धनुर्धर के रूप में अर्जुन की बुद्धि सदैव स्फूर्त रहती है…

श्रीमद्भागवद् गीता के 24वें श्लोक में संजय धृतराष्ट्र से कहते हैं।

एवयुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेने भारत।

सेनयोरुमयोर्मध्ये त्यापयित्वा स्थोत्तमम।।

हे भारत! गुणाकेश (अर्जुन) के निवेदन पर ऋषिकेश भगवान श्री कृष्ण अपने उत्तम रथ को दोनों सेनाओं के मध्य ले जाते हैं। संजय धृतराष्ट्र को रणक्षेत्र में जो भी घटित हो रहा है, उसके बारे में बताता है। यहां वह धृतराष्ट्र के लिए भारत, शब्द का प्रयोग करता है, जो वृहत्तर भारत के महान राजा भरत के वंशज हैं। महाभारत का नायम अर्जुन दोनों सेनाओं के मध्य जाता है, ताकि देख सके कि उसे किन योद्धाओं से लड़ना है। संजय अर्जुन के लिए ‘गुणाकेश’ शब्द का प्रयोग करता है। यह अर्जुन के अपरिहार्य गुण का प्रतीक है। गुणाकेश का अर्थ है निद्रा का राजा। वह जिसका निद्रा पर, बुद्धि पर जड़ता पर आधिपत्य है। इस शब्द से अर्जुन के बुद्धि की एकाग्राता व्यक्त होती है। कभी विफल न होने वाले धनुर्धर के रूप में अर्जुन की बुद्धि सदैव स्फूर्त रहती है। संजय गुणाकेश शब्द का प्रयोग नायक के चरित्र और गुण को व्याख्यायित करने के लिए करता है। यह महर्षि व्यास के वर्णनात्मकचातुर्य का कमाल है। वह कथा का वर्णन करते समय समग्र अर्थ वाले सटीक और सहंत शब्दों को चुनते हैं। उनकी रचना का आनंद लेने और उनका अधिकतम अर्थ निकालने के लिए सब थोड़ी सी बुद्धि की आवश्यकता है। महर्षि व्यास ने अर्जुन के रथ का वर्णन करते हुए ‘उत्तम’ रथ का प्रयोग किया है। संस्कृत का यह शब्द अलौकिक रखता है। भगवान श्री कृष्ण अर्जुन के हृदय में प्रेम की लहर ही उत्पन्न नहीं करते, बल्कि उसे सुदृढ भी करते हो और इसके लिए वे कहते हैं कि यहां एकत्र कौरवों पर दृष्टिपात करो। ऐसा कहने से अर्जुन के हृदय के वे सारे भाव जाग्रत हो जाते हैं जहां विभिन्न मानवीय, संबंध प्रेम के विभिन्न रंगों में वास करते हैं। अपने परिजनों पर एक साथ दृष्टिपात कर अर्जुन का हृदय प्रेम से विभोर हो उठता है। अर्जुन का यही भाव आगे भी दिखाई पड़ता है। तत्रापश्यत स्थितान पार्थः पितृनथ पितामहान।। आचार्यान मातुलान भ्रातृन, पुत्रान सखींस्तथा।। पृथा के पुत्र ने वहां अपने सामने चाचाओं, दादाओं, गुरुओं, मामाओं, भाइयों, पुत्रों, पौत्रों तथा मित्रों को देखा। तत्पश्चात पार्थः का आशय है कि जब अर्जुन ने विपक्षी सेना को देखा, तब उसकी दृष्टि शत्रुता से नहीं, बल्कि प्रेम से स्निग्ध थी। यदि उसने शत्रु को अग्निपूरित नेत्रों से देखा होता, तो उसे और कुछ कहा जाता। यह भगवान श्री कृष्ण की संचालन क्षमता का द्योतक है। भगवान कहते हैं पार्थः पश्यत (पार्थ देखो) और अर्जुन माता के समक्ष उस पुत्र की तरह हो जाता है, जिसके हृदय में प्रेम और श्रद्धा है।

श्वसुरान् सुहृदश्वैव सेनयोरुभयोरपि।।

तानसमीक्ष्य स कौन्तेयः सर्वान्बंधूनवस्थितान्।।

काैंतेय (अर्जुन) दोनों सेनाओं में श्वसुर, शुभचिंतक और वहां उपस्थित सभी बुधु-बांधवों पर दृष्टि डालता है। अर्जुन अपने विरोधियों को देखने के लिए खड़ा होता है, किंतु उसे कोई विरोधी दिखाई नहीं पड़ता, बल्कि उसे सभी अपने प्रिय लगते हैं। ऐसा इसलिए है, क्योंकि भगवान श्री कृष्ण ने उसे पार्थ नाम से संबोधित कर उसकी दृष्टि को प्रेममय बना दिया है।

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