गिरते रुपए का क्या है समाधान

By: May 23rd, 2018 12:05 am

अश्विनी महाजन

लेखक, एसोसिएट प्रोफेसर, पीजीडीएवी कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय हैं

जिस प्रकार कृषि वस्तुओं के मूल्य में अस्थिरता को रोकने के लिए ‘बफर स्टॉक’ रूपी उपाय का उपयोग होता है, कि जब उन वस्तुओं की पूर्ति बढ़ जाए, तो उसका मूल्य न घटे, इसके लिए सरकार उन्हें खरीदकर अपने भंडार में भर लेती है और जब उनकी मांग बढ़ती है तो उसी ‘बफर स्टॉक’ से निकाल के बेच देती है। इसी प्रकार का उपाय विदेशी मुद्रा के संदर्भ में भी किया जा सकता है। जब विदेशी संस्थागत निवेशक राशि देश में लाएं, तो उन्हें सरकार खरीदकर ‘बफर स्टॉक’ में डाल दे और जब वे वापस जाएं तो उसी में से निकालकर जारी कर दे…

भूमंडलीकरण और नई आर्थिक नीति के आगाज के बाद भारतीय रुपया जिसकी विनिमय दर 1990 में 17.5 रुपए प्रति डालर के बराबर थी, कभी निर्णायक रूप से मजबूत नहीं हुआ, बल्कि लगातार कमजोर होता गया। पिछले तीन महीनों में रुपया लगभग 64 रुपए प्रति डालर से कमजोर होता हुआ 67.8 रुपए प्रति डालर तक पहुंच चुका है। रुपए की विभिन्न करेंसियों में विनिमय दर के निर्धारण से पूर्व की व्यवस्था में विनिमय दरों का

निर्धारण मोटे तौर पर रिजर्व बैंक द्वारा होता था। भूमंडलीकरण के दौर में जैसे-जैसे वस्तुओं और सेवाओं का मुक्त प्रवाह शुरू हुआ, विदेशी निवेश पर लगे सभी प्रतिबंध धीरे-धीरे समाप्त होते गए, तभी विनिमय दर यानी ‘एक्सचेंज रेट’ का निर्धारण भी रिजर्व बैंक के नियंत्रण से बाहर आकर अब बाजार के हाथ में आ गया। रुपए की विभिन्न करेंसियों में विनिमय दर अब बाजार द्वारा मांग और पूर्ति शक्तियों द्वारा निर्धारित होने लगी है। जाहिर है उदारीकरण और भूमंडलीकरण के युग में आयातों पर प्रतिबंध हट चुके हैं। न तो उन पर आयात शुल्कों के रूप में कोई रोक-टोक है और न ही उसके अलावा कोई प्रत्यक्ष प्रतिबंध हैं, जिन्हें मात्रात्मक नियंत्रण कहते हैं। विदेशी निवेश भी अब खुले रूप से आ-जा सकता है और उन पर लाभों, रायल्टी, ब्याज, डिविडेंड या अन्य प्रकार से विदेशी मुद्रा बाहर ले जाने पर भी कोई प्रभावी रोक-टोक नहीं है। ऐसे में निर्यातों से जो विदेशी मुद्रा आती है, उससे कहीं ज्यादा विदेशी मुद्रा आयातों और आमदनियों के बहिर्गमन से बाहर चली जाती है। चूंकि हमारे आयात बहुत अधिक होते हैं और उनकी तुलना में निर्यात बहुत कम होते हैं, तो डालर की मांग और पूर्ति में असंतुलन आना स्वाभाविक ही है। ऐसे में यदि डालरों की अन्य स्रोतों से पूर्ति नहीं बढ़े, तो रुपए का मूल्य बहुत कम भी हो सकता है।

सुखद संयोग है कि बड़ी संख्या में भारतीय मूल के जो लोग विदेशों में रहते या काम करते हैं, कमा कर विदेशी मुद्रा भारत में भेजते हैं, जिसके कारण डालर / अन्य विदेशी मुद्रा की पूर्ति बढ़ जाती है। इसके अलावा सॉफ्टवेयर, बीपीओ एवं अन्य सेवाओं के निर्यात से प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और पोर्टफोलियो निवेश दोनों से भी डालर की आपूर्ति बढ़ जाती है। ऐसे में कुल मिलाकर डालर की मांग और पूर्ति में कुछ संतुलन बन जाता है। जब-जब विदेशी निवेशक अपना निवेश वापस ले जाते हैं, या आयात महंगे हो जाते हैं, तो स्वाभाविक तौर पर रुपया कमजोर हो जाता है। पिछले कई महीनों से कच्चा तेल महंगा होता जा रहा है, जिससे डालरों की मांग बढ़ रही है। दूसरा पिछले कुछ समय से हमारे पोर्टफोलियो निवेशकों ने अपना पैसा वापस भेजना शुरू किया है, जिसे पोर्टफोलियो निवेश का बहिर्गमन कह सकते हैं। इसके कारण भी डालर की मांग बढ़ जाती है और रुपया कमजोर होता है। पोर्टफोलियो निवेशकों के वापस जाने का प्रमुख कारण अमरीका में ब्याज दर बढ़ाया जाना भी हो सकता है और अमरीकी सरकार द्वारा निवेश आकृष्ट किए जाने के लिए टैक्स में की गई कटौती समेत अन्य उपाय भी इस निवेश बहिर्गमन के लिए जिम्मेदार हो सकते हैं।

समझना होगा कि भारतीय अर्थव्यवस्था की मूलभूत स्थिति, जिसे ‘फंडामेंटल’ भी कहते हैं, में कोई कमजोरी दिखाई नहीं देती है। उदाहरण के लिए जीडीपी ग्रोथ बढ़ने की ओर अग्रसर है, मेन्युफैक्चरिंग बेहतर और महंगाई नियंत्रण में है। इसलिए कुल मिलाकर रुपए की यह कमजोरी काफी हद तक वैश्विक कारणों से ही है। यह बात इस तरह से भी सिद्ध होती है कि दुनिया की कई करेंसियां इस वजह से कमजोर हो रही हैं और इस प्रकार रुपए की कमजोरी अपवाद के रूप में नहीं देखी जा रही। पिछले 3 महीनों में पांचों ब्रिक्स देशों में से चीन को छोड़कर, जहां अवमूल्यन मात्र 0.5 प्रतिशत ही है, शेष में करेंसियों में खासा अवमूल्यन हुआ है। साउथ अफ्रीका में -2.3 प्रतिशत, भारत में 4.4 प्रतिशत, ब्राजील में 7.0 प्रतिशत और रूस में 5.3 प्रतिशत अवमूल्यन हुआ है। यानी भारत की स्थिति बीच की है। यानी दो देशों में हमसे ज्यादा अवमूल्यन हुआ है और दो में हम से कम है।

गिरते रुपए के मायने

वास्तव में रुपए का कमजोर होना भारत के लिए शुभ लक्षण नहीं है। हालांकि जब-जब रुपया कमजोर होता है, निर्यातक प्रसन्न होते हैं, क्योंकि उन्हें अपने निर्यातों के बदले में ज्यादा रुपए मिलते हैं। उनका यह तर्क रहता है कि कमजोर रुपए से भारत को अपना व्यापार घाटा कम करने में मदद मिलेगी। उनके तर्क से सहमति जताने वाले अर्थशास्त्रियों की भी कोई कमी नहीं है। हमें समझना चाहिए कि रुपए के कमजोर होने से हमारी कठिनाइयां बढ़ जाती हैं। हमारे आयात महंगे हो जाते हैं, जिसके कारण देश में महंगाई बढ़ जाती है। विदेशों से जो ऋण हमारे व्यवसायियों ने लिया होता है, उस पर ब्याज और अदायगी का बोझ भी रुपयों में बढ़ जाता है। गौरतलब है कि हमारी अनेक कंपनियों ने कम ब्याज दर के लालच में विदेशों से भारी ऋण लिया हुआ है। जब-जब रुपया कमजोर होता है, उनकी अदायगी बढ़ने से वे फायदे की बजाय नुकसान में चले जाते हैं। तेल की बढ़ती कीमतों से पहले ही ग्रस्त जनता पर अब रुपए के कमजोर होने से दोहरी चोट पड़ने वाली है।

कैसे संभले रुपया?

यह सही है कि बाजार शक्तियों केचलते कई मामलों में रुपए की गिरावट को रोकना संभव नहीं है, क्योंकि न तो तेल की कीमतों पर हमारा नियंत्रण है और न ही अमरीकी सरकार की नीति के चलते पोर्टफालियो निवेश के बहिर्गमन को हम रोक सकते हैं, लेकिन विनिमय दर निर्धारण में हम कुशल प्रबंधन जरूर कर सकते हैं। ध्यान में आता है कि जब भी विदेशी संस्थागत निवेशक विदेशी मुद्रा भारत में लाते हैं, तो डालर की पूर्ति बढ़ने से रुपया कुछ मजबूत होने लगता है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया डालर खरीदकर उसके मूल्य को बढ़ने से रोकता है, लेकिन जब वही निवेशक अपना पैसा वापस ले जाते हैं, तो रिजर्व बैंक का उस प्रकार का हस्तक्षेप नहीं होता, नतीजन रुपया भारी रूप से कमजोर हो जाता है। रुपए के मूल्य में भारी उठापटक वास्तव में सट्टेबाजों को ही फायदा पहुंचाती है।

चूंकि यह स्थापित हो चुका है कि विदेशी संस्थागत निवेशक विदेशी मुद्रा लाते और ले जाते ही रहते हैं, इसलिए उनकी गतिविधियों से रुपए को प्रभावित होने से रोकना चाहिए। जिस प्रकार कृषि वस्तुओं के मूल्य में अस्थिरता को रोकने के लिए ‘बफर स्टॉक’ रूपी उपाय का उपयोग होता है, कि जब उन वस्तुओं की पूर्ति बढ़ जाए, तो उसका मूल्य न घटे, इसके लिए सरकार उन्हें खरीदकर अपने भंडार में भर लेती है और जब उनकी मांग बढ़ती है तो उसी ‘बफर स्टॉक’ से निकाल के बेच देती है। इसी प्रकार का उपाय विदेशी मुद्रा के संदर्भ में भी किया जा सकता है। जब विदेशी संस्थागत निवेशक राशि देश में लाएं, तो उन्हें सरकार खरीदकर ‘बफर स्टॉक’ में डाल दे और जब वे वापस जाएं तो उसी में से निकालकर जारी कर दे। इस प्रकार हम रुपए की बिना वजह हो रही उठापटक को रोक सकते हैं। इसके अलावा विदेशी निवेशकों पर अंकुश भी लगाने की जरूरत है। सरकार कर लगाकर उन्हें अपने लाभ बाहर स्थानांतरित करने से हतोत्साहित कर सकती है। अर्थशास्त्र की भाषा में इसे ‘टोबिन टैक्स’ कहा जाता है। इसके अलावा इन निवेशकों पर एक न्यूनतम समय सीमा यानी ‘लॉक इन पीरियड’ भी लागू किया जा सकता है, ताकि वे रोज-रोज अपने धन को ले जा न सकें।

ई-मेल : ashwanimahajan@rediiffmail.com

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