गीता रहस्य

By: May 12th, 2018 12:05 am
स्वामी रामस्वरूप

वेदों में कहे ईश्वर के नाम ॐ का अर्थ सहित चिंतन एवं उच्चारण करता हुआ, इस प्रकार ईश्वर के नाम का स्मरण करता है, वह साधक अंत समय में शरीर को त्यागकर, जो मनुष्य जीवन का लक्ष्य मोक्ष है, वह उस मोक्ष के सुख को प्राप्त कर लेता है। यह मोक्ष का सुख ही प्राणी की उच्चतम गति है, क्योंकि ईश्वर की अनुभूति प्राप्त हुए योगी को ही मोक्ष प्राप्त होता है…

श्लोक 8/13 में श्रीकृष्ण महाराज अर्जुन से कह रहे हैं कि जो साधक  ॐ अक्षर को ब्रह्म का बोधक जानकर उच्चारण करता हुआ देह का त्याग करके भली प्रकार जाता है, वह साधक सर्वोच्च गति को प्राप्त होता है।

भावः (यः) पद श्लोक 8/12 से संबंधित है। इस प्रकार ‘य’ पद का अर्थ होगा कि अर्जुन जो साधक अपनी इंद्रियों के सब द्वारों को रोककर एवं मन को हृदय में स्थिर करके और प्राणायाम के अभ्यास द्वारा प्राण को मृर्द्धा में स्थिर करके इस प्रकार योगाभ्यास द्वारा योग के छठे अंग (धारणा) के रहस्य को जानकर धारणा में स्थित हो जाता है और इस प्रकार वेदों में कहे ईश्वर के नाम ॐ का अर्थ सहित चिंतन एवं उच्चारण करता हुआ, इस प्रकार ईश्वर के नाम का स्मरण करता है, वह साधक अंत समय में शरीर को त्यागकर, जो मनुष्य जीवन का लक्ष्य मोक्ष है, वह उस मोक्ष के सुख को प्राप्त कर लेता है।

यह मोक्ष का सुख ही प्राणी की उच्च्तम गति है, क्योंकि ईश्वर की अनुभूति प्राप्त हुए योगी को ही मोक्ष प्राप्त होता है। जिसके पश्चात कोई कर्म करना शेष नहीं रहता। अतः मनुष्य की इस अवस्था को गीता ने भी ‘परमाम गतिम पाति’।

अर्थात उच्चतम अवस्था प्राप्त करता है, वेदानुकूल ऐसा ही कहा गया है। ‘ॐ इति माम एकाश्ररम’ ‘ब्रह्म’ 8/13 में कहा कि जो देह त्याग करते हुए मुझ एक अक्षर स्वरूप ब्रह्म को अर्थात ॐ इस अक्षर का उच्चारण करता है एवं स्मरण करता है, वह परम गति को प्राप्त करता है।

चारों वेद अविनाशी ब्रह्म से उत्पन्न हैं। अतः स्वभाविक ही चारों वेदों में आया ॐ अक्षर अविनाशी ही सिद्ध होता है। फलस्वरूप स्वयं ईश्वर ने यजुवर्दे मंत्र 40/15 में कहा ‘ॐ क्रतो स्मर’ अर्थात हे कर्म करने वाले प्राणी ईश्वर के अविनाशी नाम ॐ का नित्य स्मरण कर।

इसी प्रकार अन्य सभी वेदों में जैसे सामवेद मंत्र में ईश्वर ने अपने नाम का उच्चारण एवं स्मरण करने का उपदेश दिया है। यहां यह स्पष्ट होता है कि ईश्वर के वही अविनाशी नाम जो ईश्वर ने स्वयं वेद में कहे हैं, वह ही स्मरण करने योग्य हैं अथवा यज्ञ में उच्चारण करने योग्य हैं और शीघ्र उत्तम फलदायक है।

परंतु सृष्टि रचना के बाद ईश्वर ने स्वयं वेद में कहे हैं वह ही स्मरण करने योग्य हैं और शीघ्र  फलदायक हैं। परंतु सृष्टि की रचना के बाद ईश्वर के वह नाम जो स्वयं मनुष्यों ने रचे हैं उनका मुकाबला वेदों में कहे ईश्वर के नामों से कदापि भी नहीं किया जा सकता। क्योंकि मनुष्यों की बनाई प्रत्येक रचना नाशवान है। मनुष्य की रचना अधिक से अधिक प्रलय समय तक रहती है।

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