ग्रामीण चौपाल से जनमंच तक

By: May 25th, 2018 12:05 am

जन समस्याओं के निदान की नई रूपरेखा में जयराम सरकार जनमंच के जरिए जो अलख जगा रही है, उसकी ध्वनि में सुशासन की इत्तला है। केंद्र सरकार के चार साल का जश्न जिस हिमाचली जनमंच पर होने जा रहा है, वहां से उम्मीदों की गली शुरू होती है। अगर यह महज कार्यक्रम है या कहने का नया मंचन, तो जमघट के बीच तड़पते विषयों की नुमाइश भी क्या कर लेगी, लेकिन यहां इम्तिहान सुशासन को आजमाने का है। जनमंच केवल परिभाषा के सलीके में अपना दौर शुरू करेगा या मुद्दों की पैरवी में सरकार का पक्ष रखेगा, इससे भी कहीं आगे देखना यह होगा कि कार्यसंस्कृति में आखिर सुराख हैं ही क्यों। गांव कहां महरूम है या क्यों आम आदमी के मसले किसी सरकारी छत के नीचे दब जाते हैं। हर मंत्री अगर अपनी फाइलें निपटा दे, अधिकारी अपने दायित्व का अर्थ समझा दे या कामकाज की प्रणाली भरोसा दिला दे, तो जनमंच का नया अवतार जन एहसास का साधन होगा, वरना फरियादी संस्कृति में पलती जनभावनाएं केवल संपर्कों की साधना में एक नया इतिहास लिखेंगी। जैसा कि प्रारूप नजर आता है, जनमंच से ग्रामीण चौपाल को अर्थपूर्ण बनाने के प्रयास में वर्तमान सरकार अपनी प्रशासनिक क्षमता को अति संवेदनशील, सक्षम व सफल सिद्ध करने की कोशिश कर रही है। सरकार के पास राज्यीय व केंद्रीय योजनाओं की कमी नहीं, लेकिन कहीं कार्यालयों की ढीठ हो चुकी परंपराओं ने लबादे ओढ़ लिए हैं, ताकि पारदर्शिता या जवाबदेही तय न हो पाए। आशा है लोकमंच की वजह से जनता के प्रति पारदर्शिता का माहौल और काम की गारंटी का प्रचलन बढ़ेगा। अमूमन जनता के बीच अधिकारियों व नेताओं की रौनक का तकाजा केवल मौके को लूटने का रहा है, जबकि अब दावे व दांव पर प्रतिष्ठा खड़ी की जा रही है। यह प्रयोग अगर जनता के बिगड़े एहसास को नए विश्वास से जोड़ने का सबब है, तो शिकायतें केवल सुनी या पढ़ी नहीं जाएंगी, बल्कि यह भी देखना होगा कि क्यों सामान्य स्तर के काम किसी मंच की बदौलत ही पूरे हैं। सरकारी कार्यालयों के ढर्रे को जिस अनैतिकता से काम करने की आदत पड़ गई है, वहां फाइलें केवल जनता की सर्कस का मुखौटा हैं। हर नियम पर नए नियम के तहत और पद्धति में पुरस्कृत होते भ्रष्टाचार की आंतें जब तक बाहर न निकालीं, जनता की विवशता केवल नए आश्वासन की मुरीद बनकर रह जाती है। कहने को हिमाचल की करीब दो सौ सेवाएं ऑनलाइन हैं, फिर भी आम आदमी के लिए सुशासन किसी कम्प्यूटर के बजाय किसी मंच से निकलता है। जाहिर है ऐसे अनेक सवाल गांव की छाती पर मूंग दलते हैं या जहां व्यक्तिगत मजबूरियों को सुनने वाला ही कोई नहीं बचा, तो वहां कुंठाओं के बढ़ते पर्यायवाची लक्षणों में जनमंच के कान देखे जाएंगे। ग्रामीण जनता के लिए सरकार व सुशासन की तफतीश का क्षेत्र चंद विभागों के दायरे तक ही सीमित है, लेकिन जब कभी राजस्व विभाग रेगिस्तान बन जाता है या सरकारी योजनाओं के कार्यान्वयन में विभागीय मशीनरी नदारद होती है, तो आक्रोश के खूंटे पर भविष्य दिखाई देता है। बेहतर पंचायती राज तथा ग्राम विकास के मायनों में जनमंच कितना सिद्धहस्त होता है, यह कमोबेश उसी मशीनरी पर निर्भर करेगा जो अब तक कार्यालयों में पसरी बैठी है। दरअसल जनता और सरकार के बीच फासले पैदा ही तब होते हैं, जब निचले स्तर तक कार्यसंस्कृति की घंटियां नहीं बजतीं। प्रशासनिक तौर पर गांव की तस्वीर आज भी पंचायती संस्थाओं की संकीर्ण राजनीति के बाहुपाश में है। जब विकास के बदलते मॉडल के तहत ढांचागत सुविधाएं कुछ इस तरह हों कि जनता को एक ही छत के नीचे सारे विभागों का संपर्क मिल जाए, तो अवश्य ही जनमंच कार्यशील माना जाएगा। बहरहाल हर महीने जनमंच के माध्यम से सरकार अपनी कार्यशैली और सुशासन की हाजिरी में जो संकल्प ले रही है, उससे जनभावनाएं करीब आएंगी।

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