जन-प्रबंधित सिंचाई योजनाओं की स्थिति

By: May 26th, 2018 12:10 am

कुलभूषण उपमन्यु

अध्यक्ष, हिमालयन नीति अभियान

राजाओं के समय में उसे स्थानीय राजस्व प्रशासक  जिन्हें  चाड और लखन्यारा कहा जाता था, कोहली को उसके आदेशों को पालन करवाने में मदद करते थे और मौके पर ही जुर्माना करने की शक्तियों से लैस थे। इसलिए व्यवस्था ठीक चल रही थी। कृषि कार्य मुख्य व्यवसाय था, जिसमें लोग पूरी रुचि लेते थे। आजादी के बाद प्रशासनिक सहयोग की जिम्मेदारी पंचायत को दी गई, जो एक चुनी हुई संस्था होने के कारण सख्ती से निर्णय नहीं देती रही। काम में ढील पड़ने की शुरुआत हो गई…

भारतवर्ष में जन-प्रबंधित सिंचाई व्यवस्थाओं की प्राचीन परंपरा रही है। दक्षिणी भारत में इसके बहुत विकसित उदाहरण मौजूद हैं। इसमें बड़े-बड़े तालाब बना कर और नदियों पर बांध बना कर सिंचाई व्यवस्थाएं विकसित की गई हैं। हिमाचल प्रदेश में भी इसके अच्छे उदाहरण विद्यमान हैं। विशेष कर कांगड़ा और चंबा जिलों के धान उत्पादक क्षेत्रों में  अच्छे सिंचाई जन-प्रबन्धन की व्यवस्थाएं विद्यमान हैं। हां, वर्तमान में इन व्यवस्थाओं में दूरदर्शिता के अभाव में कुछ विघटन हुआ है, जिसे वर्तमान जरूरतों के अनुसार नए रूप में पुनः जाग्रत करने की जरूरत है वरन सिंचाई व्यवस्था में आने वाली बाधाएं कृषि कार्य को हानि पंहुचा रही हैं। पर्वतीय क्षेत्रों में जोतें छोटी- छोटी हैं। इसलिए यहां की व्यवस्थाएं और व्यावहारिक प्रबंधन भी सूक्ष्म प्रकार का है। उदहारण के लिए हम जिला चंबा की खग्ग्ल कूहल और जिला कांगड़ा की कृपाल चंद कूहल की व्यवस्थाओं पर दृष्टि डाल सकते हैं। जिला चंबा की खग्गल कूहल राजा चंबा द्वारा बनाई गई थी। इसकी लंबाई 10 किलोमीटर से ज्यादा है। यह खरगट से सिहुंता तक सिंचाई करती है। व्यवस्थाएं इतनी बारीकी से बनाई गई हैं कि उनके पालन से आज भी सिंचाई कार्य सहजता से सफलता से किया जा सकता है। इसमें ऊपरी क्षेत्र तुलनात्मक रूप से ऊंचाई वाले हैं, जिनमें गर्मी कम पड़ती है इसलिए उन्हें पानी पहले दिया जाता है वरन फसल समय पर नहीं पकती है। किन्तु कूहल के अंतिम छोर तक पानी पंहुचने की तिथियां भी विक्रमी संवत् के अनुसार निर्धारित की गई हैं। उस तिथि को स्थानीय किसान कूहल के हैड तक पानी के बंध की मरम्मत के लिए इकठ्ठा होकर जाते थे और उनकी अगवाई के लिए कोहली नियुक्त होता है, जो पानी स्रोत से लाने के लिए किसान श्रमदान की व्यवस्था करने के अलावा पानी का बंटवारा करने और बारी का उल्लंघन करने वालों पर कानूनी कार्यवाही करने का भी कार्य करता था।

राजाओं के समय में उसे स्थानीय राजस्व प्रशासक  जिन्हें  चाड और लखन्यारा कहा जाता था, कोहली को उसके आदेशों को पालन करवाने में मदद करते थे और मौके पर ही जुर्माना करने की शक्तियों से लैस थे। इसलिए व्यवस्था ठीक चल रही थी। कृषि कार्य मुख्य व्यवसाय था, जिसमें लोग पूरी रुचि लेते थे। आजादी के बाद प्रशासनिक सहयोग की जिम्मेदारी पंचायत को दी गई, जो एक चुनी हुई संस्था होने के कारण सख्ती से निर्णय नहीं देती रही। काम में ढील पड़ने की शुरुआत हो गई। इसके बाद सिंचाई विभाग का अलग से गठन हुआ। सिंचाई विभाग को कार्य उपलब्ध करवाने और लोगों की ढील का निदान करने की दृष्टि से कुछ मुख्य कूहलों को सिंचाई विभाग द्वारा अधिगृहीत कर लिया गया। इससे मरम्मत के लिए अच्छा पैसा आने लगा। मरम्मत कार्य सीमेंट के प्रयोग से होने लगा। पहले जो काम श्रमदान से लोग अपनी जरूरत के दबाव और प्रेरणा से करते थ, वह विभाग की जिम्मेदारी बन गया। विभाग ने नई जिम्मेदारी ओढ़ तो ली, लेकिन न तो उसे व्यवस्था की बारीकियों का पता था और न ही उसके पीछे कोई जरूरत का दबाव ही था।

इससे व्यवस्था लापरवाही की भेंट चढ़ती गई। पहले राजा केवल बड़े मरम्मत कार्यों को ही करवाता था, जो लोगों की सामर्थ्य से बाहर होते थे। छोटी मरम्मत जिसकी जरूरत हर साल होती थी, वह किसानों द्वारा श्रमदान से की जाती थी। कूहल का अधिकांश भाग कच्चा था, जिसकी मरम्मत के लिए पास पड़ी मिट्टी उठा कर ऊपर एक पत्थर रख दिया और काम हो गया। सीमेंट से कूहलों का निर्माण करने से मरम्मत कार्य लोगों के हाथ से छिन गया। आज वे करना भी चाहें तो भी कर नहीं सकते। सीमेंट से कूहल निर्माण की गुणवत्ता इतनी घटिया है कि आधा पानी कूहल के दो- तीन किलोमीटर सफर के बीच ही रिसाव द्वारा खड्ड में वापिस चला जाता है। जलवायु परिवर्तन से पानी की पहले ही कमी पड़ चुकी है, उस पर इस पानी की बर्बादी से व्यवस्था चरमरा गई है। देहर खड्ड से जहां से यह कूहल निकलती है, वहीं से बहुत सारी पेयजल योजनाएं भी बन गई हैं जिससे भी पानी की कमी पड़ गई है। आज की स्थिति यह है कि कोई भी श्रमदान से कूहल का पानी बांध कर लाने के लिए समय निकालने को तैयार नहीं है, क्योंकि कूहल लाने के लिए एक दिन पूरा बर्बाद होगा, जिसमें दिहाड़ी लगा कर तीन सौ रुपए कमा सकते हैं। पानी लाकर इसकी कोई गारंटी नहीं है कि कितना कमा  पाएंगे, क्योंकि कूहल के अंतिम छोर तक पानी पंहुचने के लिए जो सख्त प्रशासनिक व्यवस्था चाहिए, वह गायब हो चुकी है और जमीन बंटते-बंटते जोतें बहुत  छोटी रह गईं हैं। कृषि में आम तौर पर ही उतनी कमाई की संभावनाएं संदिग्ध लगने लगी हैं। सिंचाई विभाग के पास पानी बांधने लायक लेबर ही नहीं बची है। नई भर्ती इसलिए नहीं हो सकती, क्योंकि वर्कचार्ज बनने के लिए आंदोलन होने लगते हैं और पूरा वर्ष इस लेबर को खपाने के लिए कोई काम भी नहीं होता। अतः विभाग को सक्रिय करने के लिए हायर एंड फायर के सिद्धांत पर नई लेबर भर्ती की छूट का प्रावधान किया जाना चाहिए। भटियात में और भी कूहलें समोट-1, व समोट-2, धुलारा- थकोली कूहलें भी इसी तरह की समस्याओं से ग्रसित हैं। एक तरफ  सरकार बूंद-बूंद सहेज कर कृषि को प्रोत्साहित करने के काम में लगी है और 2022 तक किसान की आय दोगुनी करने पर कार्य कर रही है, वहीं दूसरी ओर पहले से चली आ रही सिंचाई व्यवस्थाओं की अनदेखी से लक्ष्य प्राप्त करना आसान नहीं बन रहा है। इसी तरह कांगड़ा घाटी की कूहल व्यवस्थाएं भी लगभग इन्हीं समस्याओं से ग्रसित हैं। कृपाल चंद कूहल, जो कि 35 किलो मीटर लंबी है और न्यूगल खड्ड से पालमपुर से ऊपर से शुरू हो कर मारंडा, भवारना होते हुए गढ़, पटबाग तक जाती है, लेकिन उपरोक्त समस्याओं के अलावा इसको नाजायज कब्जों की समस्या से भी जूझना पड़ रहा है।

तमाम समस्याओं के बावजूद  कुछ-कुछ पुरानी कोहली व्यवस्था के अवशेष बचे हैं। आज जरूरत यह है कि पुरानी और नई व्यवस्था का मिलाजुला नया रूप विकसित  किया जाए, जो आज की बदलती परिस्थितियों के अनुकूल हो। बंटवारे के कार्य के लिए कोहली व्यवस्था आज भी कारगर साबित हो सकती है, लेकिन पानी बांध कर लाने और कूहलों की मरम्मत का कार्य आज श्रमदान से करवा पाना संभव नहीं लगता है। अतः यह जिम्मेदारी विभाग को दी जाए। नई सिंचाई व्यवस्थाएं खड़ी करने से पहले पुरानी योजनाओं को सफलतापूर्वक पुनर्जीवित करना उससे भी जरूरी और आसान काम है, जिसकी ओर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है।

ई-मेल : kbupmanyu@gmail.com

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